राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)
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गगन का मन आज बहुत उदास था। वह कई साल बाद इस महानगर में लौट रहा था। इस नगर से उसके जीवन की बहुत सी यादें जुड़ी थी। वक्त कैसे गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता? गाड़ी बहुत तेज गति से दौड़ रही थी। एक के बाद एक स्टेशन पीछे छूटता जा रहा था। गाड़ी को भी आज अपनी मंजिल पर पहुंचने की जल्दी थी। हर स्टेशन पर गाड़ी कुछ देर रुकती। वह मन ही मन सोच रहा था। इतना अधिक भीड़-भड़ाका, धक्का-मुक्की तो सिर्फ भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में ही संभव है। ऐसा नजारा और कहीं देखने को नहीं मिल सकता। गाड़ी फिर अगले स्टेशन के लिए धीरे-धीरे चल पड़ी। पर जल्दी ही गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। हर स्टेशन से कई अजनबी चेहरे गाड़ी में चढ़ते और उतरते। भारत ही संसार का सबसे अनोखा देश है। जहां पर इतनी विभिन्नता पाई जाती हैं। यहाँ पर हर तरह का मौसम पाया जाता हैं। प्राकृतिक सौंदर्य तो देखते ही बनता हैं। मैदान हैं, तो पहाड़ों की भी भरमार है। सागर हैं, तो जंगलों की भी संख्या कम नहीं है। कई स्थान ऐसे हैं, जहां बहुत वर्षा होती है। तो कई स्थान ऐसे भी हैं जहां सूखा पड़ता है। रेगिस्तान है, तो बर्फ़ीले पहाड़ भी है। वह खुद को बहुत भाग्यशाली समझता था। जो उसे केंद्रीय विद्यालय में जॉब मिली थी। हर दो-तीन वर्षों में नए-नए स्थानों पर उसकी ट्रांसफर हो जाती थी। पिछले कुछ वर्षों से उसने उत्तर भारत के मैदानी इलाकों का खूब भ्रमण किया था।
हरियाणा, पंजाब, हिमाचल तीनों जगह कमाल की थी। लोग भी दिल से चाहने वाले थे। सुंदरता, रहन-सहन सभी कुछ अनोखा था। शायद इसीलिए उत्तर भारत के लोग पूरे भारत की शान थे। पास वाली सीट पर एक आदमी आकर बैठ गया। उसने बड़े प्रेम से कहा, सर जी क्या अपना बैग थोड़ा सा, मैं समझ गया? मैंने बैग उठाकर अपने पास रख लिया। गाड़ी तेज गति से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ती जा रही थी। सांझ अब रात की तरफ बढ़ रही थी। गाड़ी में रोशनी की चमक बढ़ती जा रही थी। आसमान में चांद चमक रहा था। तारे टिमटिमा रहें थे। भगवान ने संसार को कितना सुंदर बनाया हैं।
पहले मैं ऐसा बिल्कुल नहीं था। इस बदलाव का कारण पायल थीं। पायल का सुंदर चेहरा भी तो गुलाब की तरह ही था, खिला-खिला। वह बहुत सुंदर थी। उसका रंग दूध की तरह गोरा चिट्टा था। वह अप्सरा सी लगती थी। उसके रूप की जितनी तारीफ करूं कम है। उसका चेहरा आज भी मेरे सामने आकर ठहर जाता है। आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसी के कारण हूँ।
वह हमेशा मेरे साथ थी,साथ हैं और साथ रहेगी। कहकर वह अतीत के पन्ने पलटने लगा। पहली मुलाकात उसकी आंखों में सहज हो आई। वह कालेज में फाइनल ईयर का स्टूडेंट था। माता-पिता उसे आगे पढ़ाने के लिए मना कर चुके थे।घर की माली हालत खराब थीं। वह उदास मन से कॉलेज के गेट की तरफ बढ़ रहा था। वह खुद में ही गुम था। उसके कदम आगे बढ़ते जा रहे थे। तभी एक साइकिल उससे आकर टकराई और वह गिर पड़ा। साइकिल की टक्कर बड़ी तेज थीं। वह गुस्से से तिलमिला उठा। इससे पहले वह कुछ कहता। एक मीठी सी आवाज ने उसका ध्यान अपनी ओर खींचा।
मुझें माफ कीजिएगा। सारी गलती मेरी है। मुझें ठीक से साइकिल चलानी नहीं आती, प्लीज। उसने मुझे उठाने के लिए अपना कोमल सा हाथ आगे बढ़ा दिया। मैंने भी अपना हाथ उसके हाथों में दे दिया। उसने पहले मुझें उठाया, फिर अपनी चुन्नी से मेरी किताबें साफ करने लगीं। एक बार फिर उसने कहा, आपने मुझे माफ कर दिया ना। मैं तो उसे कब का माफ कर चुका था?
मैं उसे कॉलेज में जाते हुए, एकटक देखता रहा। जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई। अब तो मैं रोज ही उसका इंतजार करता। वह भी मेरी तरफ देखती। वह मुस्करा कर हेलो का इशारा करती। एक दिन मैंने हिम्मत करके उसे मिलने के लिए कह दिया। पर डर के मारे मेरा शरीर कांप रहा था।
पर उसने मुझसे मिलना स्वीकार कर लिया है। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। शाम को वो मुझसे मिली। मैंने उससे दोस्ती करने को कह दिया। धीरे-धीरे हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई। हमनें एक-दूसरे के साथ जीने मरने की कसमें खाई। साल कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला? मैं उसके बिना नहीं रह सकता था। परीक्षा खत्म हो गई। वह अपने मामा के घर जा रही थीं।
मैंने उसे समझाया कुछ महीनों की बात है। तुम मेरी चिंता ना करो। हम जरूर मिलेंगे। हम एक-दूसरे के लिए बने हैं। उसने मुझसे वादा लिया, तुम मुझें भुला तो नहीं दोगे, गगन। मैं सिर्फ तुम्हारी होना चाहती हूँ। मैं तुम्हें रोज पत्र लिखा करूंगी। पर तुम मुझें पत्र नहीं लिखना, क्यों? मैं नहीं चाहती अभी किसी को हमारे प्यार के बारे में पता चले। हर सप्ताह उसके पत्र आतें।
भेजने वाले का नाम दिनाकरन लिखा होता। मैं तुरंत लिफाफा खोलता। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। यह पायल का पत्र था। वह मेरे साथ बिताए पलों को अपनी जिंदगी के अनमोल मोती मानती थीं। उसका लिखा एक-एक शब्द मेरे मन को छू जाता। मैं उसके पत्रों को बार-बार पढ़ता, उन्हें सीने से लगा कर सो जाता। मैं रात-दिन उसके बारे में सोचता रहता।
परीक्षा का परिणाम भी आ चुका था। पर वह लौट कर नहीं आई। धीरे-धीरे उसके पत्र आने भी कम हो गए। कुछ दिनों बाद उसका आखिरी पत्र आया। गगन, मेरा रिश्ता हो गया है। अब मैं कभी लौट कर नहीं आऊंगी। मुझें माफ कर देना। अगर तुमने मुझसे सच्चा प्यार किया है, तो जल्दी ही अपने माता-पिता का सहारा बन जाना। मुझें तुमसे बहुत उम्मीद है। मैं तुम्हारी थीं और तुम्हारी ही रहूंगी।
तुम्हारी पायल!
में खुद को संभाल नहीं पा रहा था। मन करता था, उसका पता करूँ। सारे वादें तोड़कर उसके पास चला जाऊं। पर अब क्या फायदा ? वह किसी और की हो रही थी। मैंने शहर छोड़ दिया। मैं नौकरी की तलाश में भटकने लगा। कई बार लगा, अच्छा हीं हुआ। जो उसने मुझें छोड़ दिया। मैं नकारा हूँ। मैं किसी काम का नहीं हूँ। पर उसके पत्र मुझें जीने के लिए प्रेरित करते रहे। कुछ सालों के कठिन परिश्रम का फल मुझें मिला। आज मेरे पास सब कुछ हैं। माता-पिता को हमेशा खुश रखता हूँ।
बस माँ के शादी के प्रस्ताव को हमेशा अस्वीकार करता रहा। पिता जी नहीं रहे। माँ घर पर अकेली रह गई थी। इसलिए यहाँ ट्रांसफर करवा लिया। गाड़ी धीरे-धीरे रुक गई। घर स्टेशन से एक किलोमीटर दूर था। अपना बैग उठाया और चल पड़ा। माँ गेट पर ही थी। उन्होंने मुझें कसकर गले से लगा लिया। उनकी आँखें नम थीं। तुमनें तो अपनी माँ को भुला ही दिया था। माँ हाथ पकड़ कर मुझें मेरे कमरे में ले गई। मेरा कमरा आज भी वैसा ही था।
माँ मुझें कमरे में बैठकर बाहर चली गई। जब अंदर आई तो उनके हाथों में पत्रों का ढेर था। माँ ये सब—। बेटा किसी दिनाकरन के पत्र तुम्हारे लिए आते थे। लो संभालो। बेटा एक तो कल ही आया था। मैं चाय बना कर लाती हूँ। उसने आखिरी पत्र खोला।
गगन, तुम कैसे हो? क्या तुम्हें कभी मेरी याद नहीं आती या भूल गए हो? मैं उसी कॉलेज में पढ़ती हूँ, अगर मन करें तो——। मुझें यकीन ही नहीं हो रहा था। पर क्यों जाऊं, उससे मिलने, वह मेरी क्या लगती है? अब सब खत्म हो चुका है।
पर ना चाहते हुए भी, मैं कॉलेज के गेट पर पहुंच गया। चौकीदार ने मुझें पहचान लिया। सर क्या आप पायल जी के पति हो? इससे पहले कुछ और कह पाता। चौकीदार कॉलेज की तरफ दौडा। वह पायल को साथ लेकर लौट रहा था। मुझें अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। पायल मेरे सामनें आकर खड़ी हो गई। बिल्कुल साधारण वेशभूषा, माँग में सिंदूर। उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझें अपने कमरें में ले गई। मैं कमरें की दीवार पर अपनी तस्वीर देखकर अचंभित रह गया। यह क्या पागलपन हैं, पायल?
बस अब कुछ ना कहो, मेरा इंतजार खत्म हो गया है। मैं तुम्हें हमेशा कहती थी ना कि हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं। मैं तो कुछ सालों बाद भी यहां आ गई थी। मैं इसी कॉलेज में पढ़ाती हूँ। यहां हॉस्टल में रहती हूँ। तुम्हारी यादों के सहारे ही जी रहीं हूँ।
तुमने तो शहर छोड़ दिया था। पर मुझें पता था तुम एक दिन जरूर लौट आओगें। मैं हमेशा तुम्हें पत्र लिखती रहीं। मैन तुम्हें ही अपना सब कुछ मान लिया था। ओह, पायल मुझें माफ कर दो। मैंने तुम्हें कितना….?अब क्या इरादा है? गगन ने उसका हाथ पकड़कर कहा, चलो अपने घर।
जैसे ही गगन घर पहुँचा, माँ हाथ में थाली लिए खड़ी थी। माँ, तुम्हें सब पता था। माँ, और पायल हँस पड़े। वह अब भी मेज़ पर पड़े पत्रों का ढेर देख रहा था।
परिचय : राकेश तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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