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उभर आती हो तुम ग़ज़ल बनकर

गगन खरे क्षितिज
कोदरिया मंहू (मध्य प्रदेश)
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अपने अल्फाजौं को सजाया है
तुम्हारे लिए
खुबसूरत ग़ज़ल के रूप में,
सामने जब भी आते हो
एक नये अंदाज में संवर जाती हैं
जिन्दगानी मेरी, बन के लबौं पर
आ जाती हो ग़जल बनकर ।

आरज़ू यही है बस तुम्हारी
खुशी में ही है छिपी मेरी खुशी,
उल्फत में जलजाने की परवाने की
तरह चाहत लिए संवर जाती है
जिन्दगी मेरी एक नई ग़ज़ल बनकर ।

परिंदों की उड़ान भरने लगती जब
मेरी तमन्नाएं खूबसूरत असमान के
क्षितिज पर नई तस्वीर बन जाती हो
तुम मेरी ग़ज़ल बनकर।

खिलते कुसुम पर मुस्कुराती शबनम,
उषा की किरणों की हंसीन
लालीमा लिए गगन अल्फ़ाजौं में
उनकी मासूमियत संवर जाती हैं,
एक नये अन्दाज लिए और लबौं पर
उभर आती हो तुम ग़ज़ल बनकर ।

परिचय :- गगन खरे क्षितिज
निवासी : कोदरिया मंहू इन्दौर मध्य प्रदेश
उम्र : ६६वर्ष
शिक्षा : हायर सेकंडरी मध्य प्रदेश आर्ट से
सम्प्रति : नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण भोपाल मध्यप्रदेश सेवानिवृत्त २०१४
साहित्य में कदम : २०१४ से भारतीय साहित्य परिषद मंहू, मध्य प्रदेश लेखक संघ मंहू इकाई, महफ़िल ए साहित्य कोदरिया मंहू, आर्चना साहित्य संस्थान मंहू, राष्ट्रीय सखी साहित्य परिवार, छत्तीसगढ़ सखी साहित्य परिवार, म. प्र. संखी साहित्य परिवार, राष्ट्रिय हिंदी रक्षक मंच आदि समूह से समय पर जुड़े है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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