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तुम हो अपरिभाषित

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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कारागार में जन्म लिया,
गोकुल का ललना बनकर,
देवकी मां की गोद मिली,
यशोदा मां का मिला दुलार,
वासुदेव के तनय बने तुम,
नंद के गोपाल
कैसे लिखूं!! क्या लिखूं!!
तुम तो हो अपरिभाषित,
चाहे मैं जितना लिखूं ।।
हे नंद के लाल ।।

गोपियों के प्रिय बने,
राधा के प्रियतम ,
रुक्मिणी के श्री हो,
सत्यभामा के श्रीतम,
राक्षसों का वध किया,
संसार को निर्मल किया,
हर जन जन को मोहित किया,
अपना सबकुछ त्याग दिया,
कैसे लिखूं !! कितना लिखूं!!
तुम रहोगे अपरिभाषित
चाहे मैं जितना लिखूं ।।
हे नंद के लाल ।।

आत्म तत्व के चिंतन तुम,
परमेश्वर परमात्मा तुम
स्थिर चित्त योगी तुम्हीं,
परमार्थ का अर्थ तुम्हीं।
नभ जल अग्नि वायु,
बनकर प्राण तुम्हीं बन जाते हो,
पंचतत्व में विलीन हो,
अजर अमर कहलाते हो,
क्या लिखूं, कितना लिखूं
तुम रहोगे “अपरिभाषित”
चाहे मैं जितना लिखूं।।

अर्पण है ये तन मन धन,
जीवन तुम पर वारा है
अब तो विनती सुनों,
दीनों ने पुकारा है,
चाह नहीं है भौतिकता की,
चाह नहीं अब जीवन की,
मुक्त करो हर बंधन से,
शरण तुम्हारी आना है
क्या लिखूं, कैसे लिखूं,
जितना भी लिखूं,
तुम तो हो “अपरिभाषित” ही,
हे नंद के लाल …।।

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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