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जख्मों की टीस

मंजिरी पुणताम्बेकर
बडौदा (गुजरात)

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                                  नेहा महज तीस साल की है। वह हिमाचल प्रदेश के बद्दी में रहती है। वह बद्दी के एक नामी पाठशाला में शिक्षिका है। वह अक्सर कहती कि उसे छुट्टियों वाले दिन की दोपहर बहुत लम्बी लगती है जैसे कि दिन यहाँ आकर रुक सा जाता है और इन दोपहरों की चुप्पी जैसे बीहड़ की कोई झील एकदम शांत सी। आज इतवार था। इस दिन का सभी बेसब्री से इंतजार करते हैं। कोई दोस्तों से मिलने जाता है तो कोई सिनेमा देखने तो कोई शॉपिंग। पर नेहा के लिये यह सबसे लंबा और बोझल दिन रहता है। वह तब भी था जब आकाश था और वह अब भी है जब आकाश नहीं। आकाश नेहा का पति एल. आई. सी. में फील्ड ऑफिसर था। उसकी मौत हो चुकी थी। वह कोशिश करती कि रविवार को भी कॉपी चेकिंग के लिए ले जाये। पर आज तो उसके सारे काम भी खतम हुए काफ़ी समय हो गया था। शाम का समय था कॉलोनी के कपल देख उसका मन भारी हो रहा था। कोई कपल स्कूटर पर तो कोई पैदल तो कोई कार में। सारे एक दूसरे के साथ समय बिताने जा रहे थे। तभी नेहा को बिजली के तार पर एक कबूतर दिखा जो एकदम गुमसुम सा बैठा था। उसे खुद पर बहोत गुस्सा आया कि उसका उदास मन हर किसी में अपने जैसा अक्स क्यूँ तलाश लेता है? क्यूँ हर चुप्पी अपनी सी जान पडती है? वह जल्दी से हॉल में आई और टीवी चालू कर बैठी ही थी कि उसका मोबाइल बज उठा। फोन दीपक का था। दीपक आकाश का दोस्त था। आकाश के जाने के बाद दीपक का अक्सर नेहा से मिलने घर आता था। पर नेहा को दीपक का घर आना कतई पसंद नहीं था। ऐसा नहीं कि दीपक बुरा आदमी था दीपक को देख नेहा को अक्सर आकाश याद आ जाता था।
इसबार गर्मियों की छुट्टियों में नेहा की माँ और भाभी ने दूसरी शादी की बात निकाली। पर नेहा ने साफ मना कर दिया। क्यूंकि नेहा अतीत को दुहराना नहीं चाहती थी। वह कमरे में गईं और अँधेरे में ही बैठी रही। उसे आकाश के साथ बिताये सारे पल याद आ रहे थे जिन्हें वह भुला देना चाहती थी। चार साल पहले का वक़्त जहन में ताज़ा होने लगा। उन्हें भुलाने के लिये नेहा सुबह जल्दी उठी। जॉगिंग शूज पहन वह दौड़ती रही।बहुत तेज और खूब देर तब तक कि जब तक वह थककर चूर न हो जाये। उसे अपनी माँ के सामने स्वयं को कमजोर नहीं पड़ने देना था। क्यूंकि नेहा के कुछ दुःख समय के साथ डर की शक्ल ले रहे थे। वह सोच रही थी कि ये दुःख चिपक जाते है हमारे वजूद से किसी परछाई की तरह। मन के ज़ख्म देह के जख्मों से कई गुना गहरे होते है। नेहा आज भी उतनी ही शिदद्त से महसूस कर रही थी उनकी टीस। ऐसे मैं कैसे कर लूँ दूसरी शादी? फिर से बेवा होने की तैयारी? शायद उसकी माँ नेहा की बात समझ गईं थी। कुछ दिनों बाद मॉ ने कहा हादसों को भुलाना पड़ता है बेटा। मौका देना पड़ता है खुद को। और अंत में माँ के सामने नेहा को झुकना पड़ा। क्यूंकि माँ, पिताजी, भाई, भाभी कब तक उसे आसरा देते? बेसहारा लाचार होने से तो अच्छा था कि वह दूसरी शादी कर ले। दुःख दर्द बताये जा सकते हैं, सुने जा सकते हैं मगर बाँटे नहीं जा सकते। अपने अपने डर अपनी-अपनी उदासियाँ हमें खुद ही जीनी पड़तीं हैं। माँ ने समझाया नेहा पोखर मत बनो। नदी बनो। हमेशा बहती हुई। सब कुछ पीछे छोड़ती हुई। अब मुस्कुराहटें जान रहीं थीं नेहा का पता।

परिचय :- मंजिरी पुणताम्बेकर
निवासी : बडौदा (गुजरात)
घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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