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स्त्री या वेदना

अशोक शर्मा
कुशीनगर, (उत्तर प्रदेश)
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तुम माँ बहन भार्या हो,
जग में खूब सम्मान है।
हाँ, तुम वही स्त्री हो,
सृष्टिकर्ता तेरी पहचान है।

तुमने पुरुषों को जन्म दिया,
जो पौरुष दिख लाते है।
कभी अदब कभी रौब से,
तुम पर हुकुम चलते हैं।

तुम अबला बन सहती हो,
समाज के जुल्मों सितम।
शिक्षा की देवी हो तुम,
भावे न तुमको अहम।

काली दुर्गा देवी बन,
तिहु लोक में पूजी जाती।
रणचंडी नारायणी बन,
शक्ति स्वरूपा कहलाती।

पर कहीं-कहीं भाग्य ने,
बेरहम हाथों में थोप दिया।
अनचाहे पौधे जैसे,
दहेज मरु में रोप दिया।

ना समझे जग तेरी पीड़ा,
कोख में तू मेरी जाती।
कहीं बेरहम कहीं कोठों पर,
मर्यादा तार तारी जाती।

बन लक्ष्मी मूरत तुम,
ममता रूप दिखाती हो।
जब बढ़ जाये पाप धरा पर,
चामुंडा बन जाती हो।

कहीं दरिंदों के हाथों,
मर्यादा कुचली जाती है।
बन स्त्री रूप जघन्य सहती,
तू वेदना की थाती है।।

परिचय :अशोक शर्मा
निवासी : लक्ष्मीगंज, कुशीनगर, (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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