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शरद ऋतु

सपना
दिल्ली
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शरद ऋतु आते ही
सूरज दादा भी खेलें
हमसे आँख मिचोली
देर से आते
जल्दी चल बनते,
कभी रहते दिन भर गायब….

दिन निकलता पर
होता नहीं उजाला
चारों ओर रहता अंधेरा छाया
ऐसा लगता मानो कोहरे
का आतंक सब पर है भारी…..

उस पर
सर्द हवाएं, शीत लहर से
कट कट करते दांत बजते
रोज़ नहाना होता बेहाल
पानी भी बन जाता  दुश्मन
देखते ही इसे
भागते सब दूर दूर…

कबंल, रजाई छोड़
उठने की न अब हिम्मत होती
गर्म कपड़े डालो जितना
फिर भी ठंड से राहत नहीं
उस पर भी जुकाम, खांसी
सबको लेते अपने घेरे में
होठ, पैर सब फट जाते
मानो जैसे
रुखापन जीवन में बस जाता…

गली, मुहले  में
अब न होती पहली वाली रौनक
सब घर के अंदर
दुबके है मिलते
चारों ओर बस
सन्नाटा छाया रहता…..

रहम करो अब तो
हम पर सूरज दादा
चीर इस कोहरे को
अपनी किरणों से
तुम फिर से अपना
परचम लहराओ
ठिठुरते जीवों को आकर
तुम राहत दो…!

परिचय :- सपना
पिता- बान गंगा नेगी
माता- लता कुमारी
शैक्षणिक योग्यता- एम.ए.(हिंदी), सेट, नेट, जेआर. एफ. अनुवाद में डिप्लोमा ( अंग्रेज़ी से हिंदी), पी.एचडी. (ज़ारी)
साहित्यिक उपलब्धियां- १५ से अधिक राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता तथा प्रपत्र वाचन एवं विभिन्न पत्रिकाओं/ संपादित पुस्तकों में विभिन्न विषयों पर शोधालेख प्रकाशित। साथ ही साहित्य सिनेमा सेतु वेबसाइट पर कुछ कविताओं का प्रकाशन।
निवासी- दिल्ली
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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