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मै क्यों गाऊँ

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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मै गीत विरह के क्यों गाऊँ,
मै गीत विरह के क्यों गाऊँ।
मेरे तन के रोम रोम में,
बसा हुआ कान्हा प्रियतम,
जब चाहूँ मै उसे निहारूँ,
साथ मेरे रहता हरदम।
जब मै सोऊँ वह भी सोऐ,
साथ मेरे उठ जाता है,
जब वह रहता साथ ही हरपल,
फिर क्यों मै न इतराऊँ,
मै गीत विरह के क्यों गाऊँ।
जब चाहूँ पलके मूंदे,
वंशी की ध्वनि मैं सुनती हूँ,
जब लगता तन्हा हूँ मै,
उससे बतियाया करती हँ।
जब हो जाती दग्ध ह्रदय,
वह हमे हँसाया करता है,
गाकर अपनी मधुर रागिनी,
मुझे रिझाया करता है।
मै उसकी वह मेरा है,
मै इसको क्योंकर झुठलाऊँ,
मैं गीत विरह के क्यों गाऊँ।
हर दिन ही तो मेरे दिल में,
वह नये तराने लिखता है।
रूठूँ गर मै कभी अगर तो
वह हमे मनाया करता है।
उसकी इन प्यारी बातो को
क्योंकर भला मै ठुकराऊँ
मै गीत विरह के क्यों गाऊँ।
मै गीत ….

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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