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मैं क्यों नहीं चीख पाता इन दिनों

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विवेक सावरीकर मृदुल
(कानपुर)

मैं जानता हूं रे कि
चीखने का समय है ये
पर करूं क्या!
आज तो मेरा कंठ रूद्ध है
तुम देखते हो क्या
कोशिश कर?
कहता आया हूं मैं यही ताज़िंदगी
एक अप्रिय स्थिति से जान बचाकर।।

देखो उंगली उठानी है मुझे
उनकी मुखालिफत में
जो सड़कोंऔर चौराहों पर
बहा देते हैं किसी का भी खून
पर क्या करूं
उंगली अकेली कहां है
वो और चारों के साथ है
उसके उठने और झुकने पर
किसी न किसी अनजाने
षड़यंत्र का हाथ है।।

अरे मैं सचमुच चढ़ाना चाहता हूं
त्यौरियाँ, लाना चाहता हूं
पेशानी पर बल
उनके खिलाफ जो बाजार
पाट रहे हैं मिलावट के जहर से
मैं अब भी चैक करता हूं
एक्सपायरी डेट दवाओं और सीलबंद
खाद्यपदार्थों की
पर वो लिखी होती है बहुत महीन
फिर ये सोचकर
कि ले रहे है इसे मेरी बगल में खड़े
कॉरपोरेट कल्चर में नहाए
शार्ट्स और स्वेट शर्ट्स पहने
अनगिन लोग
मैं हो जाता हूँ मुतमईन

बेशक़, मैं रोना चाहता हूं अनाम कब्रों पर
जिनमें सो गया असमय इस देश का
सारा का सारा बचपन
श्मशानों में करना चाहता हूँ विलाप
जहां खाक हो गई इस मुल्क की
आत्मीयता और
सहजता भरी मुस्कान
पर क्या करूं
मुझे दिखाये जाते हैं
ज्ञान,विज्ञान, कम्प्यूटर,अंतरजाल
और वैज्ञानिक तरक्की के सामान

मैं गले लगाना चाहता हूं समूची
सभ्यता को
पर क्या करूं
मेरे सामने बार बार खड़े कर दिए
जाते हैं अलग अलग धर्मों की
पोशाक पहने, प्रतीकों को टांगे
इंसानों के ही क्लाउन

तो समझ गये न अच्छी तरह
मैं क्यों नहीं चीख पाता इन दिनों?

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लेखक परिचय :-  विवेक सावरीकर मृदुल
जन्म :१९६५ (कानपुर)
शिक्षा : एम.कॉम, एम.सी.जे.रूसी भाषा में एडवांस डिप्लोमा
हिंदी काव्यसंग्रह : सृजनपथ २०१४ में प्रकाशित, मराठी काव्य संग्रह लयवलये,
उपलब्धियां : वरिष्ठ मराठी कवि के रूप में दुबई में आयोजित मराठी साहित्य सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व, वरिष्ठ कला समीक्षक, रंगकर्मी, टीवी प्रस्तोता, अभिनेता के रूप में सतत कार्य, हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन।
संप्रति : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक कुलसचिव।

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