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मनवा काहे को घबराय

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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मनवा काहे को घबराय
ये दुनिया एक सराय
खुशियाँ बिखेर ले प्राणी,
जहाँ आयु घटे ना आय।

निज’ भाव’ गिराना मत,
‘भाव’ भाव से कहता है
आप आपसे मिलकर,
आप आपसे सुनता है
आपाधापी साथ चलेगी,
जीवन जंग तू लड़ता जाये
मानव काहे को घबराय…

‘ताज’ साक्षी प्रेम का,
‘ताज’ तख़्त न भूल कभी
प्रेम पेज ‘दो बेर’ मिले,
या ‘दो बेर’ का संग सभी
‘हार’ न तू अपनी बाजी,
पग पग ‘हार’ मिलेंगे आय
मनवा काहे को घबराय….

‘मांग’ भरी जब तूने,
अब ‘मांग’ रहा ये अंश है,
शह ‘मात’ का खेल सयाना,
‘मात’ पिता का वंश है
‘घराना’ रहता याद तभी,
जब घर आना तू कहता जाय
मनवा काहे को घबराय….

‘बाज’ आएं उन करतूतों से,
जहाँ ‘बाज’ झपट्टा चलता है
कन्धों में दम हो तब ही
कन्धों पे दुपट्टा रहता है
विजय विशालतम बना रहे,
विजय पताका फहराता जाय
मनवा काहे को घबराय
ये दुनिया एक सराय
खुशियाँ बिखेर ले प्राणी
जहाँ आयु घटे न आय।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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