
श्रीमती विभा पांडेय
पुणे, (महाराष्ट्र)
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हज़ार पाबंदियों में रख लो,
चाहे बेड़ियों में जकड़ दो।
खिलने के बाद रौंदने की चाह भी रख लो।
मगर यह तो प्रकृति का नियम है,
फूल कहीं भी खिलें, महकते ही हैं।सुबह की रोशनाई चुरा लो उनसे,
शाम की हंँसी अँगड़ाइयाँ भी छुपा लो।
रात की चांँदनी भी न बिखरने दो,
लाख ताले लगा रख दो जलता दीप उसमें,
पर दीप जले तो, उजाले होते ही हैं।जिंदगी कई इम्तहान लेती है।
कभी हंँसाती है, तो कभी रुलाती है।
कभी कई साथ देते, तो कई छोड़ते हैं,
पर आदत है अपनी, सबको पुकारते
हम आवाज़ लगाते ही है।इस राह में तुम साथ दो तो बहुत अच्छा।
और गर चल दो, साथ ना दो, तो भी अच्छा।
अकेले चलने की तो आदत है, हम रुकेंगे नहीं
चाहे कैसा भी मौसम हो इन आँखों में
जीत जाने के सपने हमेशा सजते ही हैं।
परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड.
जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी
निवासी : पुणे, (महाराष्ट्र)
विशेष : डी.ए.वी. में अध्यापन के साथ साथ साहित्यिक रचनाधर्मिता में संलग्न हैं ।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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