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वर्षा तुम जब

प्रवीण त्रिपाठी
नोएडा

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राधेश्यामी छंद में वर्षा गीत…

वर्षा तुम जब जब भी आती, मेरा मन दुलरा जाती हो।
तरु के पत्तों से टकरा कर, सुरमय संगीत सुनाती हो।

तेरे आने की आहट नित, मुझको पहले मिल जाती है।
जब तप्त हृदय मेरा होता, तब क्षितिज कालिमा छाती है।
हो निनाद जब दूर कहीं पर, नभ हो जाता जिससे गुंजित।
विरही मन में तब हूक उठा, प्रियतम की याद दिलाती है।
पहले ही संकेतों द्वारा, जैसे भेजी मृदु पाती हो।१

चातक सा रहता मन प्यासा, चाहत बूँदों की है मन में।
कुछ स्वाति फुहारें पड़ जायें, शीतलता आये तब तन में।
नभ से बरसे जल झर-झर कर, भीगे तब आकुल सा तन-मन।
लग जाएँ सावन की झड़ियाँ, आये बहार तब जीवन में।
बूँदों की टिप-टिप से उपजे, तुम नवल राग में गाती हो।२

होते हैं भाव विभोर सभी, जब ऋतु परिवर्तन करती हो।
तब शुष्क पड़े सब हृदयों के, तुम ताल सरोवर भरती हो।
इस भूतल के सारे प्राणी, मिल राह तकें चौमासे की।
मेघनाद के नित निनाद से, पीड़ा तुम सबकी हरती हो।
मन आँगन की बन पोषक तुम, नये रंग दिखलाती हो।३

अपनी शीतल बौछारों से, तन-मन की प्यास बुझाती हो।
वर्षा तुम जब-जब आती हो, मेरा मन दुलरा जाती हो।

परिचय : प्रवीण त्रिपाठी नोएडा


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