अर्चना मंडलोई
इंदौर म.प्र.
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अतिथि! तुम्हारा जब आगमन हुआ था, तो हम सबने यही सोचा था कि मेहमान हो कुछ दिन ठहर कर चले जाओगे। लेकिन अब तो बार-बार पूछना पड रहा है…. अतिथि तुम कब जाओगे?
तारीख पर तारीख और फिर तारीख! लेकिन तुम तो बेशर्म की तरह यहाँ पैर पसारे जमने की कोशिश कर रहे हो।
तुम अपने खौफनाक डरावने चेहरे की छाप मेरी जमीन पर डाल तो चुके हो पर तुम ये भी जान लो कि तुम मेरी जमी और मेरे अपनों को बहुत आहत कर चुके।
क्या तुम नहीं जानते ये हौसलो की जमी है, तुम्हे मूँह की खानी ही होगी।
जब तुमने अपने आने की आहट दी थी, तब मेरा मन अज्ञात आशंका से धडक उठा था। अंदर ही अंदर मै मेरे अपनो के लिए काँप गई थी। हम सतर्क भी थे, हमने वितृष्णा से तुम्हारा तिरस्कार भी कर दिया था। फिर भी तुम न जाने कैसे बेदर्दी से मेरे अपनो को लील गए।
मेरी आशंका निर्मूल नही थी ! तुम नहीं गए ! तुम्हें भगाने के लिए हम घरो मे रहे और मेरे प्रभु अपने घरो को बंद कर चल पडे – जहाँ तूम मेरे अपनो के बीच डेरा डाले जमे थे, यहाँ तक कि उन्होंने अपना स्वरूप भी बदल लिया। वे कभी सफेद वस्त्रों मे तो कभी खाकी वर्दी मे, कभी नीले वस्त्रों में नजर आने लगे। उन्होने अपने शस्त्र भी बदल लिए, वे अब चमचमाते वस्त्र नही पहनते ना ही त्रिशुल, कमल, धनुष रखते है, बल्कि उनके हाथो मे अब मेडिकल स्टुमेंट्स रहते है, तो कभी तुम्हें मारने वाली संजीवनी दवाई तो कभी अन्नदाता बन सहस्त्र हाथो मे भोजन।
अतिथि अब तुम्हे जाना ही है, क्योंकि अब से पहले हम जानते ही नही थे कि अतिथि देवो भव: के अतिरिक्त दानव भी हो सकता है।
अतिथि तुम नही जानते कि तुम्हारे आगमन से हमारे चेहरो की मुस्कुराहट अब धीरे-धीरे बुझ रही है। इस शहर मे उडने वाले खुशियों के गुब्बारे अब दिखाई नही देते…. संवादो का सिलसिला थम सा गया है। मेरे अपनो को प्यार से गले लगाए अरसा बीत गया है। नौनिहाल अपने गेंद लेने अब पडौस के घर मे नही जाते, शब्दो के लेन देन अब सिमटने लगे है, यहाँ तक कि कुछ निवाले रोटी के अब मूँह तक नही पहूँच पा रहे है।
अतिथि तुम्हारे कारण मेरा शहर चुप हो गया है। अब तुम्हें जाना ही होगा। क्योकि मेरा शहर फिर दौडेगा नन्हे कदम फिर दौडेगे हाथो मे बस्ता लिए, वो सोहार्द फिर लौट आयेगा। पडौस वाले दीनू की झोपडी मे चूल्हे की आग की रौशनी फिर दिखाई देगी।
बहुत कर चुके हमारी भावनाओं को आहत् हमनै अपने हिस्से की पीडा अब पी ली है।….अब तो बस एक ही प्रश्न है ? तुम कब जाओगे !अतिथि…..??
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परिचय : अर्चना मंडलोई
पिता : स्व. रमेशचन्द्र व्यास
माता : स्व. दुर्गा व्यास
पति : ललित मंडलोई
जन्मतिथि : ३/५/१९६९
निवासी : इंदौर
शिक्षा : एम.ए. हिन्दी साहित्य एवं आप एम.फिल. पी.एच.डी रजीस्टर्ड
व्यवसाय : उच्च श्रेणी शिक्षक
साहित्यिक उपलब्धि : अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना प्रकाशन, सम्पादन, लेखन, नाट्य लेखन व मंचन, अभिनय, अनेक साहित्यिक संस्थाओं की सदस्य, संचालन, विभिन्न विधाओं में लेखन, सामाजिक गतिविधियों में सहयोग, मालवी बोली के संरक्षण व संवर्धन हेतु मालवी नाट्य मंचन, लेखन तथा मालवी परम्परा व व्यंजनो का तीन वर्ष से मेला आयोजन।
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