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क्या बताऊं

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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कलम करती सृजन कृपा दृष्टि मां से पाऊं
दुष्कर हालातों में, क्या समझूं क्या बताऊं।

मन पिंजरा विचित्र, चाहे कुछ भी भरना
है जो मन के अंदर, काश बने वो झरना

सोचो तुम खुद ही, क्या रखूं,क्या बहाऊं
विपरीत समय में, कुछ तो दिमाग लगाऊं

दुष्कर हालातों में क्या, समझूं क्या बताऊं।
मोबाइल नितांत जरूरी, बन गया जो आत्मा

राहों के दुरुपयोग में, बहुतों का हुआ खात्मा
बिन मोबाइल के अब, देखो कितना बौराउं

नए विचार की पैठ, मॉडल नया मंगाउँ
दुष्कर हालातों में, क्या समझूं क्या बताऊं।

नया युग चल रहा, साथ रहे सद्व्यवहार
खाली रहकर व्यस्त, अब कैसे जीवन पार

सुने नहीं समझे नहीं, कैसे खुद को जगाऊं
आत्मनिर्भर बनने, कितना बोध कराऊँ

दुष्कर हालातों में क्या, समझूं क्या बताऊं।
बिना अक्ल व मेहनत, काम हो आराम का

ज्ञान और मौका जहां, स्थान नहीं काम का
श्रेष्ठ यदि मिलता हो, खुद को क्यों खपाउं

अपने गुण ध्यान नहीं, दूसरे के दोष गिनाऊं
दुष्कर हालातों में, क्या, समझूं क्या बताऊं।

कोरोना महामारी में, कितने हुए लापरवाह
रात दिन की रोकथाम, अनंत है वाह -वाह

नियम तोड़ बगैर मॉस्क, बाज़ार हाट इतराउं
जुर्माने की नौबत में, कितना अधिक थकाउं

दुष्कर हालातों में, क्या समझूं क्या बताऊं।
कुछ अमृत पी आये, संक्रमण नहीँ होता

नियम बराबर सबको, उल्लंघन क्यों होता
सुंदर शिक्षा पाई है, फिजूल धाक जमाउँ

यातायात भले बाधित, आखिर क्यों शरमाऊं
कठिन हालातों में, क्या समझूँ क्या बताऊं।

हमसे ही देश सजे, खुद को क्यों छिपाउँ
है अनमोल ये जीवन, क्यों व्यर्थ गँवाऊं

उपचार यदि संभव है, सदा ही दोष भगाउँ
भयाक्रांत पूर्ण समाज, कुछ करके दिखलाऊँ

याद आए बचपन, मां मैं गांधी बन जाऊं
याद आए बचपन, मां मैं गांधी बन जाऊं

कलम करती सृजन, कृपादृष्टि मां से पाऊं
कठिन हालातों में, क्या समझूं क्या बताऊं।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति :१९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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