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रचयिता : डॉ. सुरेखा भारती
विवेक को राखी बांधते हुए, प्रिया के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। शादी के ग्यारह साल बाद पहली राखी पर वह अपने भाई के हाथों में, अपने मायके आकर राखी बांध रही थी। राखी का त्यौहार इतना सूना हो जाएगा यह उसने सोचा भी नहीं था।
शादी बाद पहली बार, आने के एक महिने पहले से उसने क्या-क्या सोच कर रखा था, माॅ के लिए, छोटे भैया के लिए, पापा के लिए। अपनी बड़ी बहनों से गिप्ट और माॅ के गोदी में सिर रख कर बहुत सारी बातें। कितनी ही यादें ताजा होकर उसके हृदय को सावन की बूँदों की तरह भिगा जाती, वह पुलकित हो जाती।
अभी राखी को पन्द्रह दिन ही तो बाकि थे कि भैया का फोन आया पापा की तबीयत ठीक नहीं तुम देखने चली आओ। उसने कहा- ‘आ तो रही हूँ राखी पर, तब मिलना हो ही जाएगा।’ मम्मी, कमर में फेक्चर होने के बाद अब तो उठने-बैठने लगी है, पर मुझे दुःख है कि मैं उन्हें देखने नहीं आ सकी। इतनी दूर जो मुझे दे दिया। अब तो कोई चिंता नहीं है, सब ठीक ही होगा। अपने छोटे भाई को समझाते हुए प्रिया ने सात्वना दी थी। ससुराल में भी सारा भार उसके उपर ही था ।
कुछ देर बात फिर भैया का फोन आया, ‘पापा की तबीयत ज्यादा खराब है, तुम आ जाओ …., और् फिर थोडी देर बाद की, वह नहीं रहे़ …… । सावन की शीतल बूँदों की जगह अब गरम आँसू गालो पर छलक रहे थे। शब्द निकल ही पडे ‘अब की कैसी राखी’
परिचय :- नाम :- डॉ सुरेखा भारती
कवियत्री, लेखिका एवं योग, ध्यान प्रशिक्षक इंदौर
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