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पहन तू नरमुंडो के हार..

विनोद सिंह गुर्जर
महू (इंदौर)

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कवि, कलम बना तलवार।
जिनके मन में
कलुषित तन में,
पनप रहा व्यभिचार..
पहन तू नरमुंडो के हार..।।

शासन चुप, शासक सोये हैं।
सब अपनी धुन में खोये हैं।
अंधा रेबड़ी बांट रहा है।
बेहरा सबको डांट रहा है।
संविधान के जयकारे हैँ।
किंतु आज फिर हम हारे हैं।।

अपराधों का बड़ता जाता
अजब ही कारोबार।।..
पहन तू नरमुंडो के हार..।।

पांडव की सेना घटती है।
कौरव की सेना बढ़ती है ।
कान्हा, अर्जुन भला कहाँ पर,
दुशासन बैठे यहाँ घर-घर।
भीष्म मूक, विधुर शांत है।
भीम शोक में फिर क्लांत है।।

द्रोपदी की लाज बचाने,
कौन आये इस बार।।..
पहन तू नरमुंडो के हार..।।

नरभक्षी और पिशाचों के कर्मों
से अपराध बड़ा।
क्या बोलूं क्या नाम दूं इसको,
शोकग्रसित मन आज खड़ा।
तोड़ कलम फेंकू क्या पथपर,
और बंदूक उठा लूं हाथ।
बोलो कवि क्या बागी होगे,
दोगे कदम-कदम पर साथ।।
बलात्कार करने वालों के सिर
के टुकड़े कर डालूं।
संविधान में संशोधन कर,
इस कृत्य को साधू वर डालूं।

जी करता हैै परशुराम बन,
कर डालूं संहार। ..
पहन तू नरमुंडो के हार..।।

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परिचय :-   विनोद सिंह गुर्जर आर्मी महू में सेवारत होकर साहित्य सेवा में भी क्रिया शील हैं। आप अभा साहित्य परिषद मालवा प्रांत कार्यकारिणी सदस्य हैं एवं पत्र-पत्रिकाओं के अलावा इंदौर आकाशवाणी केन्द्र से कई बार प्रसारण, कवि सम्मेलन में भी सहभागिता रही है।


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