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विरहन की पीर

प्रवीण त्रिपाठी
नोएडा

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पिया बसे परदेश में, हिय में उपजी पीर।
साजन की नित याद में, नयनन बहता नीर।

राधा सी बन बाँवरी, भटकूँ वन दिन-रैन।
कहीं नहीं मन अब लगे, हृदय न पाये चैन।
अपलक राह निहार कर, थकतीं आंखें रोज।
मुख सीं कर बैठी रहूँ, नहीं निकलते बैन।
चिट्ठी तक आती नहीं, ह्रदय न पावे धीर।
पिया बसे परदेश में, हिय में उपजी पीर।1

जिन राहों से तुम गये, देखूँ नित उस ओर।
भटकूँ बन पागल पथिक, चले न दिल पर जोर।
अंतहीन विरहाग्नि में, झुलस रहीं हूँ नित्य।,
हृदय दग्ध अब हो रहा, पीड़ा मन में घोर।
लहरों को बस गिन रही, बैठी नदिया तीर।
पिया बसे परदेश में, हिय में उपजी पीर।।2
साजन की नित याद में, नयनन बहता नीर।

खटका हो जब द्वार पर, रुक जाती है साँस।
द्वारे पर प्रियतम न हों, चुभती दिल में फाँस।
साँसों की सरगम सधे, यदि लौटे निज गेह।
दरवाजे यदि अन्य हो, लगती मन को डाँस।
वापस अब आओ पिया, व्याकुल हृदय शरीर।
पिया बसे परदेश में, हिय में उपजी पीर।3

वापस आयेंगे सजन, मिट जायेगी पीर।
बालम के सानिध्य में, नहीं बहेगा नीर।

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परिचय : प्रवीण त्रिपाठी नोएडा


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