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वेणी वाली दुर्गा

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स्वाति जोशी
पुणे

देवी मंदिर के आहते में सजी छोटी सी दुकान पर स्मिता सामान ले रही थी। हार, फूल, नारियल,धूप, कपूर, प्रसाद सब ले लिया था, तभी वहाँ रखी लाल रंग की जरी बाॅर्डर की साडी पर उसकी नज़र पडी, कुछ कहने के लिये मुडी, तो देखा पति सतीश दुकान के बाहर कुछ दूरी पर मोबाईल में सिर गडाये खडा था। वहीं से आवाज़ देकर स्मिता ने पूछा, ‘ये साडी भी ले लूं देवी माँ के लिये?’
‘हाँ,हाँ ले लो’ सतीश ने सिर हिला कर सहमति दी।
‘ये औरतें भी ना… एक तो नवरात्रि में भीड़-भाड़ में इनके साथ मंदिर चलो, और फिर, ‘ये भी ले लूंँ?, वो भी ले लूँ?”… सतीश मन ही मन बुदबुदाया..मगर पत्नी से कुछ भी कहने के बजाय, हाँ कहना उसे ज्यादा आसान लगा। वैसे भी मंदिर में चारों तरफ लोग ही लोग थे, जहां जगह मिली वहाँ छोटी छोटी दुकानें भी लगा रखी थीं हार- फूल, नारियल वालों ने, कमाई का सीज़न था उनका! उपर से बारिश की चिक-चिक… उफ़!
कहीं से बच्चे के रोने की आवाज़ आई तो देखा वहीं जमीन पर थैला बिछाकर फूलों की वेणियांँ बेच रही एक मैली सी औरत… नहीं नहीं..लडकी… वह तो खुद ही सोलह-सत्रह की उमर की होगी, अपने दुधमुंहे बच्चे को चुप कराने की कोशिश कर रही थी। बच्चा था कि रोऐ जा रहा था…आखिर इधर-उधर देखकर उसने अपने फटे हुए आँचल में बच्चे को छुपाया, और फिर से जोर जोर से ‘वेणी ले लो’, ‘दस -दस रूपए’, ‘दस – दस रुपए’….की आवाज़ लगाने लगी, मानो अपनी शर्म और झिझक से लोहा ले रही हो!
कभी कनखियों से, तो कभी जान बूझकर, सतीश उसे देख रहा था।
वह मैली सी लडकी, गोद में दूध पीता बच्चा लिये, दोनों हाथों से फटाफट रंग-बिरंगे फूलों की वेणियाँ गुंधती जा रही थी साथ ही साथ आवाज़ भी लगा रही थी..’ वेणी ले लो..’। आते जाते लोग, वेणी लेने में कम, मगर उसके फटे चीथडों से झांकती उसकी बेबसी को निहारने में ज्यादा रुचि ले रहे थे। मगर वह तो पूरे मनोयोग से अपनी गरीबी को ढांकने और शाम तक अपनी और अपने बच्चे की आज की भूख का इंतजाम करने में लगी थी।
‘सुनो’, स्मिता सामान लेकर सतीश के पास आकर खडी थी,बोली… ”मुझे अभी याद आया, कल मुझे मोरपंखी रंग की साड़ी पहननी है और इस रंग की साड़ी मेरे पास है नहीं! तो अब हमें मंदिर के बाद साड़ियों की दुकान पर जाना होगा, मोरपंखी साडी खरीदने… वो क्या है न, कि मेरे किटी ग्रुप की सहेलियों ने तय किया था कि नवरात्रि में नौ दिन नौ अलग अलग रंगों की साड़ियांँ पहनकर गरबा करेंगे…अब किसी से मांगने से अच्छा है, खरीद ही लो…”एक साँस में बडी सहजता से स्मिता चलते चलते बोल रही थी …. मगर सतीश अवाक् सा कभी स्मिता को, तो कभी उस लडकी को देखता रहा… आखिर, कुछ सोचकर उसने कहा, ‘ हाँ, हाँ तुम जरुर खरीदना मोरपंखी साडी, मगर क्यूँ न इस नवरात्रि में उस वेणी वाली दुर्गा के लिये भी हम एक साडी खरीद लें?” ठिठक कर स्मिता ने उस वेणी वाली लडकी को देखा और ‘अभी आई ‘ कहकर हार-फूल वाली दुकान पर पहुंच गई, वेणी वाली दुर्गा के लिये साडी लेने…

लेखीका परिचय :- 
नाम – स्वाति जोशी
निवासी – पुणे
शिक्षा – स्नातकोत्तर ( प्राणिशास्त्र), पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से स्नातक (एकवर्षीय पाठ्यक्रम)
लेखन कार्य – स्वतंत्र लेखन


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