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परवरिश

केशी गुप्ता
(दिल्ली)

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कॉफी हाउस से गुस्से में उठ स्नेहल बदहवास सी बिना रुके चलती ही जा रही थी स्वाति ने आवाज दी स्नेहल रुक जाओ मगर स्नेहल अनसुना कर वहां से निकल गई उसे मंजिल की खबर नहीं थी। ना जाने वह किस बात की सजा खुद को दे रही थी? आनंद और स्वाति कुछ ना कर सके। स्नेहिल जिंदगी से खफा थी सब कुछ होते हुए भी जिंदगी में कड़वाहट थी। मां बाप के बीच की दूरी ने उसके अंदर एक अजब अहसास पैदा कर दिया था। जाने अनजाने कब वह दोनों से दूर हो गई पता ही नहीं चला। स्वाति ने स्नेहल के पैदा होने पर अपनी दुनिया को बहुत छोटा कर लिया था। उठते बैठते उसे सिर्फ और सिर्फ स्नेहल का ख्याल था। जी जान से उसकी परवरिश में खो गई यहां तक कि नौकरी भी छोड़ दी मगर फिर भी स्नेहल को बांध ना सकी।
बच्चों की परवरिश में कितना ही समय दो मगर बात फिर वही जन्मों के संबंधों और किस्मत के लिखे पर आ जाती है, चाहे अनचाहे से कई मोड जिंदगी में आ ही जाते हैं। आज स्नेहल के भीतर की कड़वाहट  स्वाति के लिए जहर का काम कर रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी की नन्ही सी परी स्नेहल ना जाने कब इतनी बड़ी हो गई कि आज स्वाति उसकी गुनहगार बन गई। जिस परी पर स्वाति और आनंद अपनी जान न्योछावर करते रहे वह उनके आपसी मनमुटाव का कहीं शिकार हो गई। हालांकि उन्होंने कभी नहीं चाहा कि उनके बीच की दूरी का एहसास कहीं भी स्नेहल पर कोई असर छोड़ें। दोनों ने २५ साल स्नेहल को इस कड़वाहट से बचाने में साथ गुजार दिए मगर आज जब स्नेहल ने आनंद स्वाति को खुलकर कहा कि मेरी इस कड़वाहट के जिम्मेवार आप दोनों ही हो तो वह समझ नहीं पाए कि आखिर परवरिश में क्या कमी रह गई?
कभी शायद यूं ही होता है कि हम अपनी नाकामियों के लिए खुद को जिम्मेवार ना ठहराने की कोशिश में अपने परिवार  और अपनी परवरिश में कमियां ढूंढने लगते हैं। इससे बेहतर कोई बचाव नहीं होता। स्वाति सोच रही थी मां बाप कितना भी कर ले बच्चों के लिए कम ही पड़ जाता है शायद जवानी का जोश और नादान उम्र कभी ना कभी हर मां-बाप को गुनहगार बना ही देती है। मां बाप और बच्चों का रिश्ता माली और पौधे जैसा होता है जिसकी माली जी जान से  देखरेख करता है ताकि वह भरपूर फल फूल सके मगर उसका बढ़ना और खेलना उसके अपने स्वभाव और अन्य कारणों पर भी निर्भर करता है। माली को संपूर्ण दोषी ठहराना न्याय संगत नहीं, इतने में  स्नेहल वापस लौट आई और बोली चलो घर चलें। आनंद स्वाति उसके साथ अपनी की परवरिश पर उठे कई सवाल लिए खामोशी से घर की ओर चल दिए। स्नेहल स्वाति और आनंद जोड़कर भी जुड़ना सके या कहीं अलग होकर भी अलग ना हो सके। यह तय करना हर व्यक्ति के अपने नजरिए में है कि वह क्या समझता है मगर यह तय है कि परवरिश किसी की किस्मत नहीं बदल सकती। व्यक्ति के अपने संस्कार उस पर सदैव हावी रहते हैं।

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लेखक परिचय :- केशी गुप्ता लेखिका, समाज सेविका
निवास – द्बारका, दिल्ली


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