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अनोखा बंधन

डॉ. सर्वेश व्यास
इंदौर (मध्य प्रदेश)

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प्रस्तावना:- व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में कई लोगों से मिलता है, जुुुड़ता है, बिछड़ता है, लेकिन इस भीड़ मेे कुछ लोगों से ऐसे मिलता है और जुुुड़ता है, जैसे जनम-जनम का साथ हो। सामने वाला कब, कहाँ और कैसे उसके इतने निकट आ जाता है कि कुछ पता ही नहीं चलता। कोई कहता है, कि यह पूर्व जन्म का अधूरा कर्ज है, जो मनुष्य इस जनम में पूरा करता है और कोई कहता है कि कुछ रिश्ते और कुछ फर्ज पूर्वजन्म मे अधूरे रह जाते हैं, उन रिश्तो का प्रभाव इतना गहरा होता है, कि मानव को उन रिश्तो की पूर्णता एवं उस फर्ज की प्रतिपूर्ति हेतु इस जन्म में आना पड़ता है। प्रकृति उन्हें मिलाती है, वे उन रिश्तो से भागने की कितनी भी कोशिश क्यों न करे, पर प्रकृति किसी न किसी बहाने उन्हें बार-बार सामने खड़ा कर देती है। हालांकि व्यक्ति इन रिश्तो को कभी परिभाषित नहीं कर पाता है लेकिन यह रिश्ता कब उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है, कब उसके जीवन की प्राणवायु बन जाता है पता नहीं चलता। आज की कहानी ऐसे ही अनोखे बंधन की है ।

                   शहर के एक निजी विद्यालय में दुर्गेश दास शिक्षक के पद पर कार्य करते थे। उनकी उम्र ३२ साल थी और रंग सावला। साधारण से दिखने वाला व्यक्ति, कर्तव्यनिष्ठ, अपने कार्यों के प्रति गंभीर, रिश्तो के प्रति ईमानदार और भावुक। सबसे बड़ी बात उनमे एक आदर्श शिक्षक के सारे गुण विद्यमान थे। किताबों के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि थी। विद्यालय के अन्य सदस्य उनके प्रति आदर का भाव रखते थे एवं विद्यार्थियों में उनकी अच्छी पैठ थी, चूंकि दास सर को किताबें पढ़ने का बड़ा शौक था, इसलिए विद्यालय में उनका अधिकतर समय ग्रंथालय में गुजरता था। इसी कारण जब ग्रंथपाल छुट्टी पर होते थे, तो ग्रंथालय का प्रभार दास सर के पास ही होता था। ऐसे ही दिन बीत रहे थे, तभी विद्यालय में एक नई ग्रंथपाल की नियुक्ति हुई, जिसका चेहरा चंद्रमा के समान था (चंद्रमुखी), जो हिरनी सी आंखों वाली (मृगलोचनी) और हथिनी सी चाल वाली (गजगामिनी) थी, हंसती थी तो मोती बिखर जाते थे और बोलती तो ऐसा लगता था, मानो कोयल कुहू-कुहू कर रही हो (कोकिला), उसके व्यक्तित्व के आगे सारी उपमाऐं छोटी थी। उसके बारे में वाणी इसलिए नहीं कह सकती थी, कारण वाणी के नेत्र नहीं है और नेत्रों पास वाणी नहीं है। उसके जैसी बस वह खुद थी, लेकिन वह हमेशा हाँ-ना मे उलझी रहती थी, अनचाहा डर उसके व्यक्तित्व मे था। हमेशा नकारात्मक बातें सोचा करती और खुद से एवं सत्य से भागने की असफल प्रयास करती, लेकिन वह अपने कार्य के प्रति निष्ठावान और ईमानदार थी। दिन-भर ग्रंथालय को सँवारने एवं व्यवस्थित करने में लगी रहती थी। किताबों की देखभाल करना उसे अच्छा लगता था एवं किताबों को सहेजना, फटी हुई किताबों को चिपकाना आदि कार्य करा करती थी, नाम था- गीता विश्वास। दास सर अपनी नित्य आदत के अनुसार ग्रंथालय में जाते पुस्तकें एवं अखबार पढ़ते और आ जाते थे, इधर गीता मैडम भी अपना काम किया करती थी। एक दिन यूं ही दोनों में बातें होने लगी और दोनों को यह मालूम पड़ा कि दोनों हस्तरेखा पढ़ लेते हैं, मतलब दोनों को हाथ देखना याद है। फिर क्या था, दोनों ने एक दूसरे के हाथ देखें और एक दूसरे के बारे में चर्चा की, चूंंकि दास सर का अधिकतर समय ग्रंथालय मे हीं गुजरता था तो यह दोनों एक दूसरे के स्वभाव से तो परिचित थे, लेकिन अब और अच्छी तरह एक दूसरे को जानने लगे। दोनों में और बातें होने लगी और बातों बातों में वह दोनों अनजाने में ही दोनो एक-दूसरे से बहुत अच्छी तरह जुुुड़ गये। जब वे विद्याालय पहुंचते तो दोनों की निगाहें एक दूसरे को ढूंढने लगती, हालांकि वे एक दूसरे के बारे मे किसी और से कुछ पूछते भी नहीं थे और किसी और को कुछ बताते भी नहीं थे। वे दोनो अपनी मर्यादाऐं जानते थेेे, इसीलिए दोनों एक दूसरे के मामले पर चुप रहना ज्यादा पसंद करते थे, लेकिन जब सामने होते थे तो चेहरे पर एक खुशी और संतुष्टि का भाव होता था। दोनों खूब बातें करते थे, दोनों एक दूसरे से अपनी खुशियां तो सारी बांटना चाहते थे, लेकिन अपनी-अपनी परेशानियां, अपने दर्द दोनों छुपाना चाहते थे, लेकिन दोनों एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह जानते थेे एवं उनकी परेशानियां भी, लेकिन दोनों अपनी मर्यादाओं मेे रहकर उन परेशानियों को दूर करने का प्रयास करते पर उस पर कभी कोई चर्चा नहीं करते, कारण सामने वाले को बुरा ना लग जाये, उसे तकलीफ ना हो। दोनो एक-दूसरे की चिंता खुद से ज्यादा करने लगे, स्थिति यह थी कि काटा एक को लगे तो दर्द दूसरे को हो। थोडे समय पश्चात दास सर अपने हृदय मे बहुत हलचल महसूस करने लगे, वे बहुत विचलित से हो रहे थे, उनके जीवन मे विशेष कमी महसूस होने लगी, उन्हें लगने लगा कि वे ऐसे तड़पते हैं, जैसे मछली बिन पानी के। लेकिन वह किसी से कुछ कह नहीं सकते थे, किसी से कुछ पूछ नहीं सकते थे, खासकर गीता मैडम से क्योंकि वे गीता मैडम से बहुत डरते थे, उन्हेंं लगता था कि उनकी किसी बात से मैडम को बुरा ना लग जाए, वह नाराज ना हो जाए, उनसे बात करना ना छोड़ दें, इसलिए वे चुप रह जाते थे। हालांकि दास सर थे, तो शब्दों के जादूगर, कई बार अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात गीता मैडम तक पहुुँँचाई, लेकिन वे यह कभी नहीं समझ पाए कि गीता मैडम उनकी बात समझी ही नहीं या समझ कर भी नासमझ बनने का ढोंग करती रही। हां दास सर ने मैडम की आंखों में अपने प्रति एक विशेष अपनत्व भाव का जरूर देखा था। दोनो मे सामान्य नोक-झोंक भी होती थी, और कभी-कभी दोनो आपस में बातें भी नहीं करते, लेकिन दोनो एक-दूसरे से बात किए बिना रह भी नही सकते थे, अतः पुनः बात करने लग जाते। बड़ा ही अनोखा बंधन था दोनो मेेंं, जिसका कोई नाम तो नही था, लेेेकिन नाम वाले बंधनो से कई गुना ज्यादा अटूट एवं पवित्र। एक अगर बिना बताए आधे दिन की छुट्टी लेकर चला जाए या पूरा दिन ना आए तो दूसरा जब तक उसके ना आने का या जल्दी चले जाने का कारण न जान ले, तब तक चैन से नहीं बैठता था, इसी प्रकार दिन बीतने लगे।
गीता मैडम के बारेे में जैसा कि पहले बताया था कि बहुत उलझन वाली प्रवृत्ति रखती थी, तो वह इस रिश्ते को लेकर भी बहुत कंफ्यूज (उपादोह मे) थी, इसके समाधान हेतु वह अपनी एक महिला मित्र, जो कि अन्य विद्यालय में ग्रंथपाल थी, के पास जाती और दास सर के बारे मे बात करती। वह समझ नहीं पा रही थी कि जिंदगी उसे कहां ले जा रही थी, वह खुद से लड़ रही थी। इसी दौरान एक ऐसा दौर आया जब विद्यालय में दास सर षड्यंत्र का शिकार होने लगे, उनका प्रभाव लोगोंं की आंखोंं का कांटा बन गया। लोग उन्हें कई तरह से अपमानित करने लगे। यह बात गीता मैडम को तनिक भी नहीं सुहाती थी। एक दिन दास सर ग्रंथालय में आए वे बहुत परेशान थे और आस भरी निगाह सेे गीता मैडम की ओर देखने लगे। गीता मैडम सब समझ गई, उन्होंने दिल पर पत्थर रखते हुए तपाक से कहा यह नौकरी छोड़ दो कहीं और कर लो, जहां अपमान हो वहां नहीं रहना चाहिए। दास सर के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई, उन्हें गीता मैडम से इस जवाब की उम्मीद नहीं थी। वे गीता मैडम के साथ के बिना काम करने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, लेकिन गीता मैडम का एक-एक शब्द उनके लिए ब्रह्म वाक्य था, इसलिए उन्होंने आगे पीछे नहींं सोचते हुए, तुरंत नौकरी सेेे त्यागपत्र दे दिया। इसका दूसरा कारण भी था, कि वे जानते थे कि- “खैर, खून, खांसी, खुसी, बैर, प्रीति मघपान। रहिमन दाबे न दबे, जाने सारा जहान।।” गीता मैडम पर कोई भविष्य में उंगली ना उठाएं इसलिए उन्होंने यहां से चले जाना ही उचित समझा और दूसरे विद्यालय में नौकरी कर ली। जाते समय दास सर ने गीता मैडम को वचन दिया कि मैंं कभी आगे होकर फोन नहीं लगाऊंगा और ना ही मिलने के लिए कहूँँगा, क्योंकि वे जानते थे कि गीता मैडम चाहे मुंह से कुछ ना बोले लेकिन उनकी आंखें उनके दिल का सारा हाल बता देती थी, चूकि वह इस रिश्ते को लेकर बहुत उलझन मे तथा परेशान थी, अतः उनकी उलझन और परेेशानी कम करने के लिए ऐसा वचन दिया। दास सर कुुछ भी सह सकते थे, लेकिन गीता मैडम को उदास, परेशान और उलझन में नहीं देख सकते सकते थे। विद्यालय से जाते समय दास सर गीता मैडम के लिए एक पत्र एवं कुछ उपहार लाए थे, लेकिन देने की हिम्मत ना कर सके और बिना दिए ही चले गये। नए विद्यालय मे दास सर दिन-दिन भर गीता मैडम के बारे में ही सोचा करते थे। उन्हें उन्हें चिंता थी कि पुरानेे विद्यालय का माहौल ठीक नहीं है, तो मैडम कैसे रह रही होगी। कहीं कोई उनके खिलाफ षड्यंत्र तो नहीं कर रहा होगा। इसी चिंता में वे दिन भर रहते थे। कभी-कभी पुरानी बातें याद करते समय उनकी आंखें भीग जाया करती थी, गीता मैडम की कमी उन्हें बहुत खलने लगी थी। इधर गीता मैडम भी अपने आप सेे लड़ रही थी, काफी जद्दोजहद में थी । वह इतना डरी हुई थी कि उन्होंने दास सर का मोबाइल नंबर भी ब्लॉक कर दिया था, ताकि दास सर उन्हें फोन ना लगा सके। ऐसे ही दिन बीतने लगे। कुछ सालों तक दोनो मे कोई बात नहीं हुई और ना ही मुलाकात। दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित तो थे, लेकिन एक-दूसरे के बिना अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने लगे। एक दिन अचानक गीता मैडम को पता चलता है कि दास सर की नौकरी छूट गई है, और वह घर पर हैं। उन्होंने तुरंत फोन लगाया हाल-चाल जाना और बहुत डरते डरते संकोच के साथ सकुचाते हुए कहा कि अगर आप बुरा ना माने तो एक बात कहूं मेरे खाते में मेरी बचत के लगभग ५०,००० रु. रखे हैं, आप ले लीजिए, अभी आपके काम आ जाएंगे, बुरा मत मानियेगा। इस बात को सुनकर दास सर जोर से हँसे और बोले “जहां बुरे वक्त में व्यक्ति मुुँह छुपाता है, सोचता है कि सामनेे वाला सहायता ना मांग ले और यदि मजबूरी में सहायता करनी भी पड़े तो एहसान जताता है। इसके विपरीत आप सामने से फोन कर रहे हैं और वह भी संकोच के साथ सहायता प्रदान करना चाहते हैं, धन्य है आप। उनकी विनम्रता देखकर दास सर नतमस्तक हो गए और बोले मैं वादा करता हूं जिस दिन मुझे रुपयों की आवश्यकताा होगी उस दिन मैं आप सेेे ही लूंगा। उस दिन से गीता मैडम रोज दास सर की नौकरी के लिए प्रार्थना करने लगी। अखबार में विज्ञापन की कटिंग काटकर दास सर के पास पहुंचाने पहुंचाने लगी, अपने दोस्तों से पूछने लगी आदि। कुल मिलाकर वह सारे प्रयास करने लगी जिससे दास सर की नौकरी लग जाए। दूसरी ओर वह दास सर से फोन पर बातें करने लगी, ताकि उन्हें अच्छा लगे, उन्हें सात्वना देती, उनका आत्मविश्वास बढ़ाने हेतु उन्हें प्रयास करती, कुल मिलाकर उनका यह प्रयास होता कि कहीं दास सर टूट ना जाए अतः उन्हें प्रसन्नता प्रदान करने हेतु सकारात्मक बातें करती। यह क्रम लगभग २ महीने तक चला, आखिर उनकी मेहनत रंग लाई और भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनी। दास सर की बहुत अच्छी नौकरी लग गई। गीता मैडम प्रसन्न हो गई मानो, उन्हें जिंदगी की सारी खुशियां मिल गई हो। ऐसा अनोखा बंधन था इन दोनों का। यह दोनों मिले नहीं, कभी नहीं, लेकिन जीते थे एक दूसरे की खुशियों के लिए। यह बड़ा ही अनोखा बंधन था इन दोनो का। इसमे राधा कृष्ण सी नोक-झोक थी, खटपट थी, अठखेलियां थी और मीरा सी पूजा थी, पवित्रता थी, पावनता थी, न था तो बस मिलन।

परिचय :-  डॉ. सर्वेश व्यास
जन्म : ३० दिसंबर १९८०
शिक्षा : एम. कॉम. एम.फिल. पीएच.डी.
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
लेखन विधा : व्यंग्य, संस्मरण, कविता, समसामयिक लेखन
व्यवसाय : सहायक प्राध्यापक
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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