राजनारायण बोहरे
इंदौर मध्य प्रदेश
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जगत और भानू को बड़ा दुख हो रहा था कि वे आज स्कूल क्यों चले गये? एक दिन न भी तो तो क्या बिगड़ जाता? जिस वक्त वे दोनों स्कूल में थे, ठीक उसी वक्त उनके यहाँ दिल्ली वाले चाचा आये थे। स्कूल तो रोज-रोज जा सकते हैं, पर दिल्ली वाले चाचा थोड़ी रोज-रोज आते हैं। वे तो साल भर में एक बार कभी आते हैं, और आते ही जगत और भानू से मिलने जरूर पहुंचते हैं।
यूं दिल्ली वाले चाचा इन दोनों के सगे चाचा नही है, पर वे इन दोनों का इतना प्यार करते हैं कि कहा नही जा सकता। जगत और भानू के पापा की मृत्यु पांच साल पहले हो गई थी, तो घर में कोहराम मच गया था घर में सत्तर साल के बूढ़े दादाजी के अलावा कोई दूसरा आदमी न था। जिसका सहारा कहा जा सकता हो। उन दोनों भाईयों के अलावा मम्मी और छोटी बहन अमृता की देखभाल का जिम्मा भी उनके बूढ़े दादाजी के जिम्मे आ गया था। तब तार पाकर दिल्लीवाले चाचा कस्बे में आये थे। रोते-रोते उन्होंने जगत और भानू को अपने सीने से लगा लिया था। बाद में जाते वक्त दादाजी से बोले थे ’’कोई जरूरत हो तो आप मुझे लिख देना मैं तुरन्त भेजूंगा। भैया की कमी महसूस नहीं होगी आपको।’’ दादाजी के एक छोटे भाई के तीन बेटे हैं, तीनों इसी मुहल्ले में रहते हैं। दादाजी के तीसरे भाई के इकलौते बेटे दिल्ली बाले चाचा है।
ये दोनों स्कूल से लौटे तो छोटी बहिन ने बताया कि दिल्ली वाले चाचा आये थे। आंगन में घंटा भर तक बैठे रहे, और मम्मी से सब लोगों के हाल चाल पूंछते रहे। दादाजी से भी कहते रहे कि आप इलाज कराने दिल्ली चलो। पर दादाजी न माने और हमेशा की तरह यही कहते रहे कि मुझे क्या हुआ, मैं तो भला चंगा हूं। मेरे सामने से मेरा जवान बेटा चला गया तब मुझे कुछ नहीं हुआ, अब क्या होगा। मैं तो अमरफल खा के आया हूँ।
जब अमृता ने उन दोनों के हिस्से की गजक लाकर उन्हें दी तो गजक खाते हुए उन्हें चाचाजी की खूब याद आई। चाचाजी जब भी आते हैं सफेद तिली की गजक जरूर लाते हैं। जगत बोला- ’’भानू अपन लोग ऐसा करते हैं कि चाचा के यहाँ चलकर दिल्ली वाले चाचा से मिल आते हैं। वहाँ ज्यादा देर तक रूकेंगे, बस पांव छूकर लौट आयेंगे।
यह सुनकर उदास बैठा भानू बोला- ’’नहीं भैया अपन लोग वहाँ नहीं चलेगे, काका जब भी हमको देखते हैं, गंभीर हो जाते हैं वैसे चाहे हंस रहे हों पर हमारे पहुंचते ही उनकी हंसी गायब हो जाती है। मुझे ये कतई अच्छा नहीं लगता। वे लोग अपने को शायद मनहूस समझते हैं, तभी तो कभी हंस के नहीं बोलते।’’
दोनों की बाते मम्मी सुन रही थी, उन्होंने भानू को डांटा- ’’हट पगले ! क्या उल्टी सुल्टी बाते सोंचता है। काका जब भी तुम्हें देखते हैं उन्हें तुम्हारे पापा की याद आ जाती होगी, इसलिये चुप हो जाते हैं।’’
’’तो मम्मी हम क्या करें? आप ही बताओ। हमारे हटते ही काका फिर हंसी मजाक करने लगते हैं। इसलिये हमको तो यह बहुत बुरा लगता है कि कोई हमें देखकर रोने जैसा मुंह बना लें। हमें अपना अपमान लगता है’’ भानू ने मम्मी को अपने मन की बात बता दी।
मम्मी ने अनुभव किया कि दोनों बच्चे जबसे दसवें में पहुँचे हैं समझदारी की बातें करने लगें हैं। बड़े स्वाभिमानी हो गये हैं दोनों, हालांकि जगत अभी पन्द्रह साल का होगा और भानू मुश्किल से तेरह साल का। वे कुछ सोच ही रही थी कि बैठक में लेटे दादाजी ने वहीं से उन दोनों से पूंछा कि अगर वे दोनों दिल्ली वाले चाचाजी से मिलना चाहते हैं तो मैं चला चलता हूँ। पर जगत भानू कुछ न बोलें। दादाजी तो उठकर अपना बेग भी संभालने लगे थे पर भानू ने उनसे भी मना कर दिया।
मम्मी ने देखा कि दोनों बच्चे उदास से हैं, तो वे बोल- ’’तुम लोग यहाँ बैठे बैठे अपने स्वाभिमान की बातें सोच रहे हों और उधर दिल्ली वाले चाचा सोच रहे होंगे कि इन दोनों को बड़ा घमण्ड आ गया, मेरा पता लग जाने के बाद भी मिलने नहीं आये।
अब भानू को भी लगा कि उनहें मिलने जाना चाहिए। उसने जगत को राजी कर लिया और वे दोनों काका के यहाँ चल पड़े। काका के यहाँ दिल्ली वाले चाचा नहीं थे, तो निराश से होकर वे दूसरे चाचा के यहाँ चले गये। बैठक के किवाड़ खुले थे और दूर से ही दिख रहा था कि सब चाचा एक साथ बैठे हैं। सबके हाथें में तस्तरियां थी, जिनमें हलवा और जलेबी रखे थे। जगत और भानू दरवाजे पर पहुँचे तो उन्हें देखते ही दिल्ली वाले चाचा खुश हो गये’’ आओ बेटा।
आगे बढ़कर चाचा के पांव छूते उन दोनों ने महसूस किया कि चाची भीतर से आई है और टेबुल पर रखी हलवा की भगौनी तथा जलेबी की टाट उठाके तेजी से भीतर चली गई। एक-एक करके चाची-चाचाओं ने अपनी प्लेट उनकी ओर बढ़ाई लो नाश्ता कर लो।
जूठा खाना तो उन्होंने सीखा ही न था, और यहां वे कुछ खाने थोड़ी आये थे, वे तो दिल्ली वाले चाचा से मिलने आये थे। उन्हें यह भी लगा कि उन्हें देखकर सब लोग सीरियस और चुप हो गये हैं….उक्त दोनों को लगा कि यह उनका अपमान है। आंखों से उन्होंने एक दूसरे को संकेत किया ओर झटके से वे उठे और बाहर चले आये। उनकी इच्छा थी कि हर बार की तरह वे दिल्ली वाले चाचा से बतियाएगें और अपनी अच्छी डिवीजन के लिये चाचा की शाबासी भी पायेंगे। वे सिर्फ शाबासी ही चाहते हैं…. और कुछ लेने की तो उनकी इच्छा कभी नहीं रही। उनकी फर्स्ट डिवीजन आने का पुरस्कार तो दादाजी हर साल दे देते हैं- जलेवियां मंगवाकर। हां जलेबी उन दोनों की प्रिय मिठाई है और जलेबी वे साल में सिर्फ एक बार उसी दिन खाते हैें जब रिजल्ट आता है।
चलते वक्त जगत ने दिल्ली वाले चाचा की आंखों में झांका था तो उसे लगा कि चाचा के दिल में उफनता प्यार आंखों में लहराता दिखाई दे रहा है, पर वे स्पष्ट कुछ नहीं कह पा रहे हैं। घर लौटते जगत और भानू एक बार फिर उदास थे। उन्हें लग रहा था कि उन्हें चाचा से मिलने जाना ही नहीं चाहिये था। कभी-कभी मम्मी उन दोनों को टोकती भी थी कि तुम दोनों अभी बिल्ले भर के तो हो और मान-अपमान की बड़ी-बड़ी बाते सोचते रहते हो, पर उन्हें लगता है कि पापा की मृत्यु के बाद उन्हें इसी ढंग से सोचना चाहिये। क्योंकि घर और मुहल्ले के लोग उनके परिवार को हमेशा ही दया की नजर से देखने लगे हैं। सबको ये भय भी लगा रहता है कि जगत भानू कुछमांग न लें। पर जबसे जगत-भानू थोड़ा जानने समझने लगे हैं, वे कभी किसी से कोई सहायता नहीं मांगते। उन्हें पता है कि घर में आय का इकलौता जरिया वो पेंशन है तो पापा की मौत के बाद मम्मी को मिलती है। उस जरा सी पेंशन में तो दाल-रोटी भी नहीं खा सकते थे, पर दादाजी ने अपनी पुरानी खेती पर ध्यान देना शुरू कर दिया था, तो फसल के वक्त घर में थोड़ा सा गेहूँ और ढेर सारी ज्वार आ जाती है। उनके घर गेहूँ की रोटी तो सिर्फ उस दिन बनती है जब कोई त्यौहार हो या घर में कोई मेहमान आ जाये, नहीं तो रोज-रोज ज्वार की रोटी ही बनती है उनके घरमें। ज्वार के आटे में नमक नहीं डाला जाता इस वजह से ये रोटी कुछ स्वादिष्ट तेा नहीं लगती पर उन सबको आदत पड़ गई है उसी से पेट भरने की, सो वे लोग चुपचाप रोटी खाके अपने घर पडे रहते है, कभी किसी के यहां नहीं जाते। पर जब भी वे किसी के यहां काम से पहुंचते हैं, यह भली प्रकार अनुभव कर चुके हैं कि उन्हें देखकर खाने पीने की चीजें छिपा दी जाती है। त्यौहारों के दिन भी बिना पूंछे चाची कहने लगती हैं कि हमने कोई पकवान नहीं बनाये। यह सुनकर चाची की बेवकूफी पर जगत भानू को गुस्सा भी आता है और मन ही मन हंसी भी, वे कोई खाना मांगने थोड़े आये हैं।
घर पहुंचकर भानू ने मम्मी को सारी बात बता दी तो वे समझाने लगी कि दिल्ली वाले चाचा के मन में तो तुम सबके लिये प्यार है न । तुम्हें बांकी लोगों से क्या लेना? फिर मम्मी ने कहा कि दिल्ली वाले चाचा को गेहूँ और चना के दानों को उबाल के बनाई गई ’’घूंघरी’’ बड़ी प्रिय है, मैं बनाये देती हूँ तुम किसी तरह उन्हें खिलाना आना। मम्मी घूंघरी बनाने में जुट गई तो वे दोनों होमवर्क करने लगे।
रात को दिल्ली वाले चाचा के पास जाने का वे साहस नहीं जुटा सके तो उन्होंने तय किया कि सुबह पांच बजे जब चाचा ट्रेन से दिल्ली के लिये जा रहे होंगे तो वे लोग स्टेशन पर पहुंचकर चाचा को घूंघरी का डिब्बा भेंट कर देंगे। अपने कस्बे की प्रिय चीज खाकर चाचा सचमुच बहुत खुश होंगे। इसी निर्णय के साथ वे दोनों सो गये।
तब अंधेरा था, व सुबह का उजाला ठीक से फैला भी न था कि मम्मी ने उन्हें जगाया और स्टेशन जाने की याद दिलाई। वे दोनों झटपट तैयार हुये और घुंघरी का स्टील का डिब्बा हाथ में लेकर स्टेशन की ओर दौड़ लगा दी।
उन्होंने पूरे स्टेशन पर घूम फिर के तलाश कर लिया। चाचा कहीं नहीं दिखे यानि कि वे अभी स्टेशन नहीं आये थे। स्टेशन की एक बैंच पर बैठकर वे दोनों चाचाजी का इंतजार करने लगे।
जगत-भानू को पहले इस बात का बड़ा आश्चर्य था कि दिल्ली वाले चाचा उन दोनों के प्रति इतनी सहानुभूति क्यों रखते हैं ? पर बाद में मम्मी ने बताया कि बचपन में दिल्ली वाले चाचा की मम्मी एकाएक खत्म हो गई थी और उन्होंने भी वह कष्ट भोगा था जो बिना माँ बाप के बच्चे को भोगना पड़ता है। चाचा के पिता शुरू से अलमस्त आदमी थे उन्हें न तो बच्चों से कोई प्यार था और न बच्चों की चिन्ता, इसलिये पिता का होना न होना चाचा के लिये बराबर था। चाचा ने खूब मेहनत की और खूब पढ़े लिखे। आज वे दिल्ली में खूब बड़े अफसर हैं, एक बड़ी कोठी भी बना ली है। घर में एक कार और दो बाइक हैं। पर उन्हें नाम का भी घमण्ड नहीं है। दिल्ली वाली चाची और उनके बच्चे भी चाचा जैसे सादा ढंग से रहने वाले लोग हैं अपने बचपन के कष्टों को याद करके शायद चाचा जगत-भानू के प्रति सहानुभूति रखते हैं। जगत-भानू तो चाचा के प्रति कुछ ज्यादा नहीं कर पाते। उनका घर टूटा-फूटा और खपरैल है, यहाँ ठहरने की जगह भी चाचा और उनके परिवार लायक नहीं है। फिर रसोई घर में राशन भी पूरा कहाँ रहता है कि स्वादिष्ट भोजन बन सके। इसलिये जगत-भानू दिल्ली वाले चाचा के पांव छूकर ही अपना पूरा आदर और सम्मान प्रकट कर देते हैं।
यकायक जगत ने भानू को टोका। दिल्ली वाले चाचा और चाची स्टेशन पर आ चुके थे। उनके साथ दूसरे चाचा लोग भी थे। जगत-भानू उठे और चाचा के पास जा पहुँचे। उन्हें स्टेशन पर मौजूद देख सबको बड़ा विस्मय हुआ। जगत बोला- ’’चाचा, इस डिब्बे मे मम्मी ने घूंघरी बनाके भेजी है, आपको बहुत पसंद है न। सफर में भूख लगे तो खा लेना।’’
चाचा ने मुस्कराते हुए उनके हाथ से डिब्बा लिया और झुकते हुए बोले- ’’तुम लोगों को चाचा से कितना प्यार है अब समझ में आया।’’
यह सुनकर वे दोनों पुलकित हो उठे। दिल्ली वाले चाचा ने जेब में हाथ डाला और सौ का एक नोट निकाला। वह नोट उन दोनों की तरफ बढ़ाते हुये वे बोले- ’’लो इन रूपयों से तुम मिठाई ले लेना।’’
’’नहीं चाचा हमें कुछ नहीं चाहिए, बस आपका प्यार और आर्शीवाद दीजिए, हमें’’दोनों ने एक स्वर मे उनसे कहा और फुर्ती से उनके पांव छूकर वहां से चल दिये।
उन्हे बहुत खुशी हो रही थी कि वे दिल्ली वाले चाचा की प्रिय चीज आखिर में दे ही आये।
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परिचय :- राजनारायण बोहरे
निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश
जन्म : २० सितम्बर १९५९ को मध्यप्रदेश के अशोकनगर में हुआ।
शिक्षा : लॉ तथा पत्रकरिता में स्नातक और हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर डिग्री।
पुस्तक : चार कथा सँग्रह इज्जत आबरू, गोस्टा तथा अन्य कहानियां हादसा, मेरी प्रियब कथाएँ।
उपन्यास : मुखबिर
अन्य : कुल ३ बाल उपन्यास एवं शताधिक समीक्षा लेख महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित
पुरस्कार : म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार साहित्य अकादेमी मप्र का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार एवं कहानी भय पर प्रधानमंत्री महोदय द्वारा १९९७ में पुरस्कृत।
सम्प्रति : जीएसटी में राज्य कर सहायक आयुक्त
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