सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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“बीजी, देखो मेरा करनू घर लौट रहा है पूरे बीस साल बाद। मैंने एक ही नजर में पहचान लिया। जरा भी नहीं बदला है। सुलेखा-सुचित्रा, तुम भी देखो। “खुशी से उछलती कूदती अखबार हाथ में लिए सावित्री अंदर भागी।
“सवि पुत्तर, कौन करनू? तू किसके लौटने की खुशी में पागल हो रही है। यहां तो कोई करनू नहीं है। “बीजी ने आश्चर्य से पूछा।
“देखो, वहीं करनू जो बीस साल पहले गुम हो गया था। “कहते हुए सावित्री ने अखबार बीजी के सामने फैला दिया और अंगुली से इशारा कर करनू का चित्र दिखाने लगी। उसकी आंखों में उमड़ी खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी या कि बाहर आने को मचल रही थी। उसने बीजी के सामने से अखबार उठाया और करनू के चित्र को पागलों की तरह चूमने लगी।
ये सब देख कर बीजी के दिल में घंटियां सी बजने लगीं। वे फौरन समझ गई कि सावित्री क्या कहना चाह रही है। करनू के मिलने के कारण अपनी स्थिति भी भूल गयी है। अचानक जब किसी को ऐसी ही खुशी हासिल होती है तो वह अपने आप को भूल जाता है। सावित्री भी आज और कल में भेद करना भूल गयी है। तभी बच्चों की तरह फूली नहीं समा रही है। जैसे कोई खोया खिलौना मिल गया हो।
उन्होंने तुरंत अपना हाथ सावित्री के मुंह पर रख दिया। और नजर घुमाकर चारों ओर देखा कि कोई उनकी बातें तो नहीं सुन रहा। सावित्री की आवाज कहां तक पहुंची होगी। गनीमत है कि मंजीत और रंजीत शाम ही वकील से बात करने शहर चले गए थे और सुचित्रा कालेज गई है। बाईं अभी आई नहीं है।
सावित्री के मुंह से हाथ हटाकर बीजी ने मुंह पर अंगुली रख सावित्री को चुप रहने का इशारा किया और बलवंत उठकर घर का मुख्य द्वार बंद कर आईं। तब कहीं सावित्री को ध्यान आया कि करनू के आने की खबर पढ़कर वह तो यह भी भूल गयी कि ये बीस साल पुरानी बात है।जब वह अठारह साल की थी और आज अपनी ससुराल में तीन जवान होते बच्चों की मां है। उसका घर परिवार है, बच्चे हैं, सास ससुर हैं।दिल की गहराइयों में छिपा करनू यानि करमजीत सिंह अचानक ओठों पर आ गया। अखबार में छपी तस्वीर को पहचानने में पल भर भी न लगा। यदि सुलेखा सुचित्रा घर होतीं तो करनू का क्या कहकर परिचय देती? हाय कैसी दीवानी हो गई वह।
मंजीत यदि घर पर होते तो अपने साथ अखबार ले जाते। जैसे रोज ले जाते हैं।घर नहीं थे तभी बाहर बरामदे में पड़े अखबार को वहीं मूढ़े पर बैठकर पलटने लगी। पहले ही पृष्ठ पर करमजीत सिंह की फोटो छपी है। बीस साल बाद पाकिस्तानी जेल से रिहा हुआ है। जिसे चोरी छिपे सीमा पार करते हुए पाकिस्तानी सैनिकों ने जासूसी के जुर्म में पकड़कर जेल में ठूंस दिया था।
पन्द्रह अगस्त को भारत ने कुछ पाक कैदियों को रिहा किया था और बदले में पाकिस्तान ने भी कुछ भारतीय कैदियों को छोड़ा था।
पाकिस्तान और भारत की सीमा पर दोनों मुल्कों के कैदियों को अदला बदली के बाद उन्हें अपने अपने घर भेजना था। भारतीय कैदियों में करमजीत सिंह भी था। अखबार पढ़कर बीजी ने एक तरफ रख दिया और सावित्री के सिर पर हाथ रखकर बोलीं- “सच सच बता सवि कि तू करमजीत को कैसे जानती है?”
सावित्री को काटो तो खून नहीं। आज अनजाने में यह करता कर बैठी? बीस साल तक जिसका नाम जुबान पर नहीं आया, आज अचानक उसी करनू का चित्र देखकर अपने जज्वातों पर काबू न रख सकी। उसकी सिसकियां बंध गई।
“मुझे माफ़ कर दो बीजी, मैं पागल हो गई थी।”
“तू डर मत पुत्तर, मेरे रहते तेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तू करनू को बहुत प्यार करती थी न। साथ -साथ जीने मरने की कसमें खांई थीं। फिर एक दिन बिना किसी को बताए सबको छोड़कर चला गया। मां बाप ने बहुत खोजा पर मिला नहीं। बेटी, तेरे मां बाप ने भी तुझे समझाया कि करनू को भूलने में ही तेरी भलाई है। उनकी आज्ञा मानकर तूने उसकी यादों को दिल में दफन कर लिया। इन बीस सालों में एक बार भी तू उसका नाम अपनी जुबान पर नहीं लायी। तूने बलवंत को घर की जिम्मेदारियों में झोंक दिया। मैं ठीक कह रही हूं सवि।”
सावित्री आश्चर्य से बीजी की बातें सुन रही थी।
“आप ठीक कह रही है बीजी। पर ये सब आपको कैसे मालूम?”
“दुनिया देखी है मैंने। तेरे चेहरे की खुशी और इन आंसुओं ने सब चुगली कर दी कि तूने करनू को टूटकर प्यार किया था। अपने पहले प्यार को कोई भुला नहीं पाता। प्यार में औरत एक साथ दो दो जीवन जिएं जाती है।”
“हां बीजी, पर अब क्या करुं? आप क्या सजा देंगी नहीं जानती, लेकिन सच आपसे छुपाया नहीं है।”
“अपनी सजा तू आप चुनेगी। बीस साल की तेरी गृहस्थी या दो साल का बीस साल पुराना प्रेम?”
कुछ पल असमंजस रहा। बीजी ने यह क्या कह दिया। प्यार मैनें किया और उस प्यार की सजा भी मैं ही चुंनू। बीस साल का वियोग क्या कम बड़ी सजा है। कभी सोचा भी न था कि ऐसे पल भी जीवन में आएंगे। बीजी ने दोराहे पर खड़ा कर दिया। उसने निर्णय लेने में देर नहीं लगाई। सावित्री ने आंसू पोंछ कर कहा-
“मैं कमजोर पड़ गई थी बीजी।अपनी बसी बसाई गृहस्थी को दो साल के अल्हड़ प्रेम पर कैसे न्यौछावर कर दूं? अब तो यही मेरा स्वर्ग है”.
“शाबाश पुत्तर, तुझसे मुझे ये ही उम्मीद थी। अब तू अठारह साल की अल्हड़ किशोरी नहीं रही। अड़तीस साल की भरी पूरी मान मर्यादा वाली गृहस्थिन है। तेरे साथ तेरे पति और बच्चों का भविष्य जुड़ा है। पत्नी का सम्मान देने में मंजीत ने कभी कोई कमी नहीं की। हम सबने तुझे सिर आंखों पर रखा।
प्यार करना बुरा नहीं है। लेकिन प्यार की खातिर बसा बसाया घर उजाड़ने में बुराई है। हो सकता है इतने सालों में तेरा करनू ही तुझे भूल गया हो। अब इस उम्र में करनू के साथ जाकर जग हंसाई और कुल कलंक के अलावा क्या मिलेगा। फिर भी मैं तुझे कुछ देना चाहती हूं। तूने सच छुपाया नहीं। तेरे चेहरे पर दुख की रेखाएं हैं। तूने आजतक इस घर को वह सब दिया जिसकी इस घर को अपेक्षाएं थीं। पर अपने लिए कभी कुछ नहीं मांगा। आज बता तुझे क्या चाहिए मैं दूंगी।”
अविश्वास से सावित्री ने सास की ओर देखा। एक ममतामयी मां वहां विराजमान लगी। कुछ कहने के लिए सावित्री के होंठ फड़फड़ाए मगर आवाज निकल न सकी।
“अपनी मां पर विश्वास कर बोल बेटी।”
“बस आप मुझे क्षमा कर दें बीजी”
“क्षमा तो मैं तुझे कर चुकी। कुछ और चाहिए तो बता।”
“मां, बस एक बार करनू को देखना चाहती हूं। दुबारा कभी उसका नाम नहीं लूंगी। “जमीन देखते और हिचकते हुए कहा सावित्री ने।
“केवल दूर से देखेगी। बोलेगी नहीं। मुंह पर पर्दा डालेगी।”
“मुझे मंजूर है बीजी”। फिर थोड़ी शंका हुई- “पर मंजीत रंजीत बीजी….”
“ये उनकी चिंता छोड़। करनू कल शाम अपने गांव पहुंचेगा। दिल्ली से गांव का रास्ता कोई पिचहत्तर किलोमीटर है। बीच में कोट का पुल है। हम वहीं मिलेंगे।”
सावित्री ने हैरत से बीजी की ओर देखा।
“तू चिन्ता मत कर मैं सारी व्यवस्था कर लूंगी”- बीजी ने तसल्ली दी।
बीजी ने फोन उठाया। टैक्सी स्टैंड के लिए नम्बर डायल किया और अगले दिन ठीक दो बजे के लिए टैक्सी बुक कर ली। घर में एलान कर दिया कि सास बहू लोंग ड्राइव पर जाएंगी। और कोई भी उन्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा। घर में किसकी हिम्मत कि कोई बीजी से पूछता कि लौंग ड्राइव पर जाने की क्या जरुरत पड़ गई। पहले तो कभी नहीं गई। मंजीत ने टोका जरुर-
“बीजी टैक्सी बुक कराने की करता जरुरत थी। घर की गाड़ी ही ले जातीं।
“बात तो तेरी ठीक है पर मैनू सोचा कि कहीं हमारे कारण तुम्हें आने जाने में परेशानी न हो। अब बुक करा ही ली है तो उसी से चले जाएंगे”। सुलेखा सुचित्रा ने हांक लगाई- “हम दोनों भी आपकी लौंग ड्राइव पर चलेंगी। बड़ा मज़ा आएगा।”
बीजी ने बरज दिया- “तुम दोनो को सुनाई नहीं दिया, मैंने क्या कहा था?”
“हां सबने सुना और समझा है। सास-बहू में जरुर कोई खिचड़ी पक रही है। छोड़ो भी बच्चियों, तुम दोनों को मैं घुमाकर लाऊंगा। “मंजीत ने हंसकर कहा- “फिल्म लगी है वीर-जारा”. मंजीत के इतना कहते ही दोनों बेटियां खुश हो गई।
अगले दिन बीजी और सावित्री दोनों गाड़ी में बैठकर चल दीं। सावित्री को पूरी रात नींद नहीं आई। दिल धड़कता रहा। आंखें लगीं तो करनू के साथ अमराइयों में घूमती रही या बैचेनी से करवटें बदलती रही। मंजीत ने पूछा भी- “सावित्री कोई परेशानी है। नींद नहीं आ रही क्या?”
“बस योंहि जरा सिर दुख रहा था”- सावित्री ने बहाना बनाया। और मंजीत काफी समय तक उसका सिर सहलाता रहा। मंजीत का प्यार महसूस कर अंदर तक भीगती रही और आंखें बंद किए पड़ी रही। सुबह से उसकी बदहाल तबियत और बैचेनी बीजी लक्ष्य कर रही थीं। टोंक भी चुकी थीं- “सावित्री पुत्तर स्वंय को संभाल”।
सावित्री बीजी के साथ करनू को देखने जा रही है और मन ही मन डर भी रही है कि स्वंय को संभाल भी पाएंगी या नहीं। यदि नहीं संभाल पाती तो बीस साल की बसी बसाई गृहस्थी को ग्रहण लग जाएगा। उसे यहां आना नहीं चाहिए। मन हुआ बीजी से लौट चलने के लिए कहे।यदि किसी ने देख लिया और पहचान लिया तो….। उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा और एक जा रहा था। हाथ-पांव ठंडे हुए जा रहे थे। अपने आशिक से मिलने सास के साथ जा रही है। ऐसी भी सास होती हैं भला।
“इतना क्यों घबरा रही है सवि। मैं हूं न तेरे साथ”। बीजी ने हिम्मत बंधाई।
सावित्री ने अपना चेहरा दुपट्टे से ढक लिया। चेहरा तो ढक गया पर अतीत की परतें उधड़ने लगीं।
करमजीत को गांव में सब करनू कहकर पुकारते। गांव का दुलारा था वह। किसी का कोई भी काम होता करनू झट कर देता। शहर पढ़ने जाता तो लौटते समय किसी न किसी का सामान अवश्य लाता। अपने घर में भी करनू की गुहार मची रहती। वह करनू से अपने लिए बिंदी लिपस्टिक, महावर और गिलेट के जेवर मंगवाती रहती। करनू हंसकर कहता-
“हमेशा सजी धजी गुड़िया बनी रहती है। कभी कोई मतलब का काम भी किया कर। जमाना तेजी से बदल रहा है।”
“जमाना तेजी से बदल रहा है तो क्या साथ श्रृंगार छोड़ दूं या शहर में मेरा सामान मिलना बंद हो गया है। “सावित्री सवाल दर सवाल ठोक देती।”
“इस अक्ल का थोड़ा सदुपयोग किया कर। हमेशा ऊपर ऊपर जुबान चलाती रहती है। थोड़ा पढ़ लिख लेती जो जीवन में काम आता। “करनू सिर पर चपत लगाकर कहता।
“मुझे कौन पढ़ाएगा?”
“क्या लड़कियों का स्कूल गांव में नहीं है?”
“वहां छोटी छोटी लड़कियां पढ़ती है। और मैं इतनी बड़ी? मुझे स्कूल जाते शर्म आएगी” चुटीले के फुंदने से खेलती सावित्री कहती।
“तुझे वहां जाते शर्म आएगी, मुझसे पढ़ने में नहीं आएगी।” -करनू चोटी खींचते हुए कहता।
“नहीं, तुझसे शर्म कैसी?”
अगले दिन करनू शहर गया तो सावित्री के लिए ककहरे की किताब, स्लेट, कॉपी और पेंसिल ले आया। इस प्रकार सावित्री की पढ़ाई का श्रीगणेश हुआ। पढ़ाई करता आरंभ हुई दोनों इस बहाने एकांत में एक दूसरे के दिल में उतरते चले गए। या तो करनू पढ़ाई के बहाने सावित्री के घर जमा रहता था सावित्री करनू के यहां। दोनों को लेकर गांव में खुसुर फुसुर होने लगी। तब जाकर दोनों परिवारों की आंखें खुली।
आंखें क्या खुलीं, दोनों परिवारों ने बच्चों की खुशी को अपनी खुशी बना लिया। अब करनू और सावित्री के दिन सौन चिरैया से उड़ने लगे।तभी एक दिन करनू ने सावित्री से कहा- “सब्बो, मैं कुछ दिन के लिए परदेश जा रहा हूं। खूब पैसा कमाकर लौटूंगा। किसी से कहना नहीं।मेरा इंतजार करना।”
“करनू, तूने अम्मा बाबा से पूछा? अपने घर बताया?”
“इसमें बताने की क्या बात है? बताऊंगा तो कोई जाने देगा? तू समझती है मुझे इसी से कह रहा हूं।”
सुनकर सावित्री का दिल धक से रह गया। “घर बोल कर जाता तो किसी को चिंता न रहती। करनू कितने दिन लगेंगे? तू मुझे चिठ्ठी लिखेगा?”
“तू चिन्ता न कर। जल्दी ही लौट आऊंगा। इंतजार करेगी न?”
“करुंगी, पर तू परदेश जाकर क्या करेगा? यहीं कोई काम धंधा कर लें। अपने खेत संभाल। मैं भी तेरा साथ दूंगी।” -कहते कहते रो पड़ी सावित्री।
“यहां क्या काम है, देख नहीं रही। पैसा पास होगा तो हम यहां नहीं शहर में घर लेकर ठाट से रहेगें। “लाख रोकना चाहा सावित्री ने पर करनू अपनी बात पर दृढ़ रहा। एक दिन अचानक सबको छोड़कर चला गया।
एक साल तक सावित्री ने खूब इंतजार किया। आखिर थक हार कर मां-बाप की बात माननी पड़ी। मुंह पर ताले जड़ लिए। पर आंखें दरवाजे पर लगी रहतीं। मां-बाप ने डोली में बिठा मंजीत के साथ विदा कर दिया।
मायके जाती तो आंखों में एक ही सवाल तैरता-करनू आया क्या? मां उसकी बैचेनी समझती। एक दिन पास बैठाकर समझाया उसे-“बेटी, करनू तेरा कल था। मंजीत तेरा आज है। पलकों पर बिठाकर रखता है। तुझे कोई दुख नहीं देता। तू कल में जीना छोड़, नहीं तो मंजीत के साथ न्याय नहीं कर पाएगी। तू एक भले घर की बहू है। याद रखना, भूल से भी करनू का नाम तेरी जुबान पर नहीं आना चाहिए। वरना तेरा जीवन तो नरक होगा ही हम भी कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। तेरी एक गलती दोनों परिवारों को तबाह कर देगी। करनू के सपने आंखों में बंद कर लें। पता नहीं जीता भी है या….।”
“मां ऐसे कुबोल न बोल। वह जैसा भी है, जहां भी है बस ठीक रहे। तेरी सौगंध मां, आगे से कभी उसका नाम जुबान पर नहीं लाऊंगी। पर तू भी एक वायदा कर कि कभी बद्दुआ नहीं देगी।”
मां ने सावित्री के सिर पर हाथ रखा और दुपट्टे के कोर से आंखें पोंछ ती उठ गई। वे क्या बेटी का दर्द समझती नहीं। यदि जाता नहीं तो सावित्री का गठबंधन उसी के साथ होता। वह तो अच्छा ही रहा कि विवाह से पहले ही चला गया। यदि बाद में जाता तो सावित्री पुत्तर कब तक निहोरे करती। भगवान जो करता है ठीक ही करता है। शहर में रहने के सपने दिखा बलवंत ही ओझल हो गया। ऐसे कौन से परदेश चला गया, मां-बाप ढूंढ ढूंढ कर पगला गए।
सावित्री ने मां की बात मान ली। करनू की याद सीने में दफन कर ली। अब अचानक बीस साल से सीने में दफन चिंगारी हवा पाते ही शोला बन भड़क उठी। वह तो बीजी ने संभाल लिया वरना सब भस्म हो जाता।
ठीक तीन बजे गाड़ी कोट के पुल पर खड़ी हो गई। करमजीत के रिश्तेदार भी आगवानी के लिए खड़े थे। बीजी ने दो फूल मालाएं ख़रीदीं। एक स्वंय ले ली, दूसरी सावित्री को पकड़ा दी। जैसे ही गाड़ी आती दिखाई दी बीजी ने आगे बढ़कर हाथ हिलाकर गाड़ी रुकवाई।
‘करमजीत जिन्दाबाद’ के नारे लगने लगे। करमजीत गाड़ी से बाहर आया। बीजी सावित्री का हाथ कसकर थामे रही।
बीजी ने अपने हाथ की माला करमजीत के गले में डाली। करमजीत ने झुककर बीजी के पांव छुए। बीजी ने अशीषा- “रब लम्बी उम्र दे पुत्तर। तुझे देखकर आंखें जुड़ा गई। सुखी रह।”
सावित्री के हाथ कांपे और फूल माला करमजीत के पैरों मे गिर पड़ी। एक तरह से सावित्री ने अपने स्नेह सुमन करमजीत के पैरों में चढ़ा दिए। करमजीत ने उसे उठाकर अपने हाथ में लपेट लिया।
लोग करमजीत को फूलों से लादने लगे। गांव व का खोया बेटा लौटा था और बीजी सावित्री को सहारा दिए गाड़ी में बैठीं थीं। गांव की सीमा पर आकर बीजी ने बरजा- “खुद को संभाल पुत्तर, रोनी सूरत बनाकर घर में घुसेगी तो घरवालों के सवालों के जवाब देने पड़ेंगे। गये थे लौंग ड्राइव पर लेकिन शक्ल से लग रहा है कि मातम मनाकर लौट रहे हैं।जो गुज़र गया उसे भूल जा। तूने आज मेरे घाव भी हरे कर दिए।”
सावित्री हैरानी से बीजी का चेहरा देखने लगी। उसने पल्लू से बीजी के आंसू पोंछे- “अब हम नहीं रोएंगे बीजी”- और सास बहू दोनों ने मुस्कराकर एक दूसरे की ओर देखा.……।
परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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