राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)
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संध्या देवी सुबह से समारोह की तैयारी में जुटी थी। आज उनके अनाथालय में वार्षिक सामरोह का आयोजन हो रहा था। हर साल की तरह इस बार भी उनके काम को सराहा जा रहा था। वह अनाथालय को अपना दूसरा घर समझती थी। सारी जिम्मेदारी उन्हीं की थी। उनकी मर्जी के बिना यहाँ पत्ता भी नहीं हिल सकता था। उनके प्रयासों से ही अनाथालय तरक्की कर रहा था।यहां पर हर तरह का प्रबंध था। चाहे महिलाओं की शिक्षा का सवाल हो या उनके स्वालम्बन का ही।
संध्या देवी एक-एक काम पर बारीकी से नजर रखती थी। उन्हें अब भी याद है, जब इस अनाथालय की शुरुआत हुई थी। उस समय यहां छोटी सी जगह थी, दो कच्चे कमरे थे।गाँव के बाहर ही उन्हें छोटी सी जगह दी गई थी। गाँव वाले उनके विरुद्ध थे। क्योंकि अनाथालय को लेकर बाजार काफी गर्म था कि अनाथालय में सेवा के नाम पर गलत काम होते हैं। कुछ लोगों का मानना था कि यहाँ पर लड़कियाँ सुरक्षित नहीं है।पिछले कुछ दिनों से अनाथालयों में कुछ अप्रिय घटना घट रही थी। इन घटनाओं ने पूरे समाज को बुरी तरह हिला कर रख दिया था। हर रोज अखबारों के पन्ने इस तरह भरे पड़े थे कि लोग सड़कों प्रदर्शन कर रहे थे।
पर यह भी सच था कि आज भी कुछ अनाथालय सही दिशा में काम कर रहे थे। चाहे वह बाल-सुधार केंद्र हो या वृद्धाश्रम। इस समय एक नए अनाथालय को खोलने का निर्णय लेना, कांटों की सेज पर लेटने जैसा था। संध्या देवी का मन समाज-सेवा में रमता था। पहले भी वह एक निःशुल्क विद्यालय चला रही थी। वह रात दिन मेहनत करती थी। उनका विद्यालय विद्यार्थियों से भरा पड़ा था। उनके सहयोगी भी काम को पूजा समझते थे। उन्होंने विद्यालय को पूरी संभाल लिया था। विद्यालय की तरफ से संध्या देवी निश्चित हो गई थी।
इसलिए अब वह नई राह पर निकल पड़ी थी। उन्होंने अनाथालय खोलने का निर्णय लिया था। उनका विरोध सिर्फ गाँव में ही नहीं हो रहा था। उनके अपने परिवार में भी हो रहा था। उनके पति नहीं चाहते थे कि वह इन झमेलों में पड़े। सभी कुछ तो था उनके पास। पति बड़े पद पर थे। घर में सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं थी। उनके साथ उनका बेटा विशाल था। उसे मम्मी द्वारा उठाया गया कदम बहुत सराहनीय लगा था। वह मम्मी से कहता था, आप जरूर एक नया कीर्तिमान स्थापित करोगी इस दिशा में। विशाल का इस प्रकार उत्साहवर्धन करना उन्हें पसंद था। और वह नए जोश से भर जाती थी। विशाल अभी दसवीं कक्षा में ही पड़ रहा था। वह संध्या जी का इकलौता बेटा था।वह उसकी बातों से हमेशा प्रभावित रहती थी।
पिछले वार्षिक समारोह में भी उनके काम की भूरी-भूरी प्रशंसा हुई थी। मुख्य अतिथि ने सहयोग के लिए एक लाख का चेक भी दिया था।अनाथालय में हर तरह तथा हर उम्र की महिलाएं थी। कुछ तो मानसिक रोगी भी थी। अनाथालय पिछले दस वर्षों से काफी प्रगति कर रहा था। इसका सारा श्रेय उन्हीं को जाता था। वह कमाल की लीडर थी। अब गाँव के लोग भी सहयोग करने लगे थे। अनाथालय अब एक बड़ी संस्था में बदल रहा था। चारों तरफ हरे भरे पेड़ पौधे लहरा रहे थे। फूलों की सुंदर क्यारियों सजी हुई थी। लाल, पीले, नीले फूल अनाथालय की शोभा बढ़ा रहे थे। सारा मैदान हरी घास से भरा पड़ा था। घास की कटाई बड़े ही सलीके की गई थी। प्रकृति की सुंदरता को देखकर मन मोहित हो जाता था।अनाथालय की सभी लड़कियों के लिए बागवानी संध्या जी ने अनिवार्य कर दी थी। छोटी, बड़ी सभी लड़कियाँ बागवानी का पूरा ध्यान रखती थी। संध्या जी अक्सर कहती थी हमारा जीवन भी एक बाग की तरह है। हमें उसमें सुधार करते रहना चाहिए।
अनाथालय में कुछ लड़कियाँ पुलिस द्वारा पकड़कर लाई गई थी। ताकि उनके जीवन में सुधार किया जा सके। अनाथालय में थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। संध्या देवी के सहयोग से अनाथालय में सिलाई-कढ़ाई तथा कंप्यूटर की शिक्षा का प्रबंध भी किया गया था। वह मानती थी कि इनका व्यस्त रहना बेहद जरूरी है। पिछले दिनों एक ऐसी लड़की अनाथालय में लाई गई, जो गूँगी-बहरी थी। पुलिस के अनुसार उसका शारीरिक शोषण हुआ था। वह कई बार आत्महत्या का प्रयास कर चुकी थी। संध्या जी ने जब उसे देखा तो वह हैरान रह गई।
इतनी सुंदरता किसी मूरत की तरह हष्ट-पुष्ट बदन, लहराते बाल। पर यह बोल-सुन नहीं सकती थी। भगवान किसी को पूर्ण नहीं बनाता। काश यह बोल-सुन सकती। इसे न्याय जरूर मिल जाता। पुलिस ने यह भी बताया, इसका दूर का रिश्तेदार इसे बेचने वाला था, किसी बुढ्ढे के हाथ।जिसका यह चाह कर भी विरोध नहीं कर सकती थी। वह तो समय रहते हमें सूचना प्राप्त हो गई थी। हमने इसे रिश्तेदारों के हाथ से छुड़वा लिया। मैडम, आप ही इसे सहारा दे सकती हैं।
आपके सहयोग से इसका कुछ भला हो जाएगा। आप ही कहती हैं ना, नर सेवा ही, नारायण सेवा है, यही सच्ची मानव-सेवा है। इसका भाग्य बहुत अच्छा हैं, जो इसे इस अनाथालय में रहने का अवसर प्राप्त हो रहा है। संध्या जी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। धीरे-धीरे इस लड़की की स्थिति में सुधार होने लगा। संध्या जी ने ही उसे नया नाम दिया, लिली। वह लगती भी किसी फूल की तरह ही थी। बिल्कुल छुई-मुई नाजुक सी।
लिली को फूलों से विशेष प्यार था। वह उनकी देखभाल बहुत अच्छी तरह करती थी। जैसे ही सुबह मैं अपने ऑफिस के कमरे में पहुँचती। मेरी मेज पर लाल, पीले फूलों के गुलदस्ते सजे मिलते। उनकी खुशबू से सारा कमरा महक रहा होता। लिली हाथ जोड़कर मुझें नमस्ते करती। वह आदर भाव से झुक जाती। मैं उसे देखकर आत्मविभोर हो उठती। मन ही मन उसे खूब सारे आशीर्वाद दे डालती। आज समारोह आरंभ हो चुका था।
सारा अनाथालय फूलों की सुगंध से महक रहा था। मुख्य-अतिथि शहर के जाने-माने समाज सेवक द्वारका प्रसाद जी थे। वह सामाजिक कार्यों में हमेशा आगे रहते हैं। जब मैंने उन से मुख्य अतिथि बनने की प्रार्थना की थी तो वह मान नहीं रहे थे। उनका कहना था, संध्या जी किसी नेता या अभिनेता को मुख्य अतिथि के रूप में चुने। इससे अनाथालय को बहुत लाभ होगा। पर मैंने साफ इनकार कर दिया था। उन्होंने सोचकर बताने के लिए कहा था। साथ ही यह भी पूछा, इस बार आपका कोई विशेष प्रोग्राम है। हाँ, द्वारका प्रसाद जी हम पांच कन्याओं का विवाह भी करवा रहे हैं। इस तरह का आयोजन हमने पहली बार किया है। वह हैरान थे तो कन्यादान कौन करेगा? ये मेरी बेटियाँ है, मैं ही इनका कन्यादान करूँगी। यह सुनकर उन्होंने तुरंत हाँ कर दी थी।
सनातन रीति-रिवाज से सभी कन्याओं का विवाह संपन्न हुआ। द्वारका प्रसाद में ही कन्यादान किया। साथ ही पांचों लड़कियों को पचास-पचास हजार का चेक भी दिया। उनके भावी-भविष्य के लिए। सभी लड़कियाँ भावुक हो गई थी। मुझसे गले लग कर खूब रो रही थी। और कह रही थी, मैडम अगर हमारे अपने माता-पिता भी होते तो शायद हमारे लिए इतना ना करते। मैंने उन्हें चुप करवाया तथा माहौल को हल्का करने के लिए कहा रोना बंद करो। वरना मेकअप खराब हो जाएगा। सभी हँस पड़ी। सारा माहौल खुशहाल हो उठा था।
लिली यह सब बड़े गौर से देख रही थी। उसकी आँखो से खुशी के आँसू झलक रहे थे। मैं उसका दर्द समझ रही थी। मैंने काफी कोशिश की थी कि उसके लिए भी कोई योग्य लड़का मिल जाए। पर मैं अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकी थी। मेरा मन लिली को लेकर बहुत उदास था। जाते समय द्वारका प्रसाद ने मेरी की खूब प्रशंसा की। मेरा बेटा विशाल अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था। वह नौकरी की तलाश में जुट गया। जब भी उसे समय मिलता, वह अनाथालय चला आता था। खूब निरीक्षण करता तथा साथ ही कुछ सलाह भी दे जाता। उसकी सलाह को मैं मान भी लेती थी। वह अक्सर मूक निगाहों से लिली को देखता रहता था। मम्मी लिली बहुत सुंदर है। इसकी आँखे बहुत मोटी-मोटी है। यह तो आंखों से ही सब कुछ कह देती हैं। अच्छा बेटा, मैं हँस कर कह देती। अब तुम बड़े हो गए। वह शरमा जाता। लिली भी उसे देखकर लाल हो जाती थी। वह कुछ बोल नहीं सकती थी। पर उसकी आँखे सब कुछ व्यक्त कर देती थी।
मैं लगातार उसके लिए लड़का तलाश रही थी। पर सफलता नहीं मिल रही थी। मैं अक्सर अनाथालय की दूसरी लड़कियों से उसके विषय में अपनी चिंता व्यक्त करती थी। सभी कहती थी, मैडम आप चिंता ना करें। इसे सबसे अच्छा घर बार मिलेगा। हम सब देखते रह जाएगे। मैडम लिली का रूप-सौंदर्य देखकर इसे कोई भी अपना लेगा। आप तो व्यर्थ ही चिंता कर रही हैं। देखना अगले वर्ष समारोह में इसकी शादी अवश्य हो जाएगी। हम इसे खूब सजाएंगे। घोड़े पर चढ़कर इसका राजकुमार आएगा और इसे हवा में उड़ा कर ले जाएगा।
लिली के लिए एक-दो रिश्ते आए भी पर मुझें पसंद नहीं थे। एक लड़का चपरासी था। वह भी बोल-सुन नहीं सकता था। सभी ने सलाह भी दी थी मुझें, मैडम इस लड़के से रिश्ता पक्का कर दो। पर मेरा मन ही नहीं मान रहा था। ये कैसा विवाह होगा? दोनों की दुनिया बिल्कुल शांत। नहीं, नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती। तभी उस लड़के की माँ ने कहा था, इसे बोलने वाला कौन स्वीकार करेगा? क्या आप अपने बेटे के लिए इसे स्वीकार कर….। मैं चुप रही, यह बात मुझें अंदर ही अंदर कचोट रही थी।
मैं खुद से कह रही थी, संध्या देवी क्या तुम्हारे पास कोई जवाब है, इन सवालों का? सच ही तो कह रही थी वह औरत। जब लिली गूँगी-बहरी है तो उसका मेल भी उसी जैसा से होना चाहिए। मान लो किसी स्वस्थ लड़के से इसका मेल हो गया तो, कहीं वह उसे छोड़ ना दें। ऐसे लोगों सिर्फ सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं। लोग इन पर दया कर सकते हैं। या अपने मतलब के लिए इनका इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
जल्दी से इसकी शादी करके छुटकारा पा लूँ। क्यों इस लड़की के लिए अपने आपको दोष दे रही हूँ। वह खुद को ही धिक्कारने लगी। मैं कैसे छुटकारा प्राप्त कर सकती हूँ? नहीं, नहीं मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकती। जरूर कोई राजकुमार आएगा इसके लिए।
विशाल को बड़ी कंपनी में जॉब मिल गई थी। समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है? ऐसा लगता है जैसे कल ही बात हो। मैं बहुत खुश थी, बेटे की सफलता पर हर माँ का सीना गर्व से फूल जाता है। आज मैं फूली नहीं समा रही थी। बस विशाल के लिए एक सुंदर सी लड़की मिल जाए।उसने मन ही मन विचार किया। विशाल के लिए लड़की की तलाश शुरू कर देती हूँ। अगले वार्षिक समारोह में शादी कर दूंगी।
माँ आप परेशान क्यों रहती हो? आप एक सफल औरत हो, सफल बेटे की माँ, सफल पत्नी। सभी कुछ तो है हमारे पास। बेटा, मेरी दो चिन्ता है! क्या माँ कहो ना? लिली की शादी हो जाए, अच्छा दूसरी चिंता माँ। तुम्हारे लिए एक सुंदर लडक़ी मिल जाए।
पति पहली बार बीच में बोले, संध्या देवी यह भी कोई चिंता की बात है। एक सलाह दूँ, तुम विशाल की शादी लिली से क्यों नहीं कर देती? यह आप क्या कह रहे हैं? यह नहीं हो सकता। आप उसके बारे में जानते ही क्या है? वह गूंगी-बहरी है और वह चुप ही गई। यह नहीं हो सकता, कभी नहीं। क्या मेरा बेटा गूंगा-बहरा है?
वाह-वाह, मम्मी आप तो कहती थी लिली जिस के घर जाएगी। वह घर खुशियों से भर जाएगा। फिर क्या वह हमारा घर नहीं हो सकता। तुम क्या कह रहे हो? हाँ, माँ मुझें और पापा को लिली बहुत पसंद है। मम्मी सच्ची सेवा तो यही है कि है हम लिली को अपना ले। आप ही तो कहती हैं नर सेवा, नारायण सेवा, यही ही सच्ची समाज-सेवा।
आज वार्षिक समारोह में विशाल और लिली की शादी हो रही थी। सारा अनाथालय उसका कन्यादान कर रहा है। फूल पौधे एक-एक कली मन्द-मन्द मुस्कुरा रही है। सभी संध्या देवी की प्रशंसा कर रहे हैं। विशाल और लिली हाथ जोड़कर सभी का अभिवादन कर रहे थे। विशाल बोला मम्मी यही है सच्ची समाज सेवा। हाँ मेरे बच्चों यही है, सच्ची समाज सेवा। उसने दोनों को बाहों में भर लिया।
परिचय : राकेश कुमार तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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