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समय

मंजुषा कटलाना
झाबुआ (मध्य प्रदेश)
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पर लग गए हो जैसे,
हाथ से फिसली रेत हो जैसे।
बचपन से जवानी आ गई,
बीत गया कहा समय ये कैसे।
कल तक आंगन चिड़िया थी में,
बाबुल संग डोला करती थी।
कब बड़ी हो कर पराई हो गई,
घर से मेरी डोली उठ गई।
आम, इमली, फूलो की डाली,
तुलसी पौधा रोपी थी।
बड़े हो गए ये कब जाने,
बातें बीते कल की हो गई।
घड़ी की टिक-टिक रोज है कहती,
मेरे साथ बढ़ते चलो।
में तो यही रहूँगी कल भी,
जीवन अपना बिताये चलो।
बचपन की वो मेरी सखिया,
दर्पण पर इतराती थी।
बुढ़ापे में वही सखिया,
सफेदी अपनी छुपाती है।
समय का पहिया तेज है भागे,
यादें छोड़ जाता है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक का,
हिसाब छोड़ जाता है।।

परिचय :- मंजुषा कटलाना
निवासी : झाबुआ (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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