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कसक

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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अन्जान डगर थी स्याह था अन्धेरा,
यह कदम लड़खडा़ते बढ़ते चले गये।
लगती रही ठोकरे पाव घायल हो गये,
अन्जानी तलाश मे खोते चले गये।
मृगमरीचिका के जैसे बजे ख्वाव अक्सर,
बढ़े जो कदम तो खोते चले गये।
सजी न कोई महफ़िल बजे न साथ कोई,
बिन साथ के ही मदहोश होते चले गये।
पग में बंधे न नूपुर ने गीत गुनगुनाया ,
अनजाने में पांव यूं ही थिरकते चले गये।
मिलन की ललक थी अतृप्त सी तृषा थी,
मिट न सकी तृषा, हम मिटते चले गये

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परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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