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पूरे जीवन में

रुचिता नीमा
इंदौर म.प्र.
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पूरे जीवन में एक इंसान ऐसा न मिला
जिसका कोई स्वार्थ न हो…

कितने रूप है तेरे स्वार्थ,
हर जगह बस चलता तेरा ही राज।।
कितना भी अच्छा हो रिश्ता,
कितना भी लगता हो सच्चा।।
लेकिन आ ही जाता बीच में,
निकाल कर नया रास्ता

अब कहाँ महसूस होती
रिश्तों में पहले सी गहराई,
ऐसा लगता अब तो मुझको
हो गई मैं खुद से भी पराई।।

जिधर देखो बस अनजाना है सब,
अपना होकर भी बेगाना है सब,
हर जगह बस तेरा चलता राज,
सब में निहित होता तेरा काज।।

कहाँ मिलते अब निःस्वार्थ के रिश्ते
बहुत मुश्किल से दिखते अब
परमार्थ के रिश्ते

अगर मिल जाये कभी कोई रिश्ता ऐसा,
तो समझना उसको ईश्वर के मिलन जैसा।।
खोना नहीं उसे बनकर अनजान
सहेजना उसे समझकर सबसे मूल्यवान।।
तभी समझना खुद को भाग्यवान।।

परिचय :-  रुचिता नीमा जन्म २ जुलाई १९८२ आप एक कुशल ग्रहणी हैं, कविता लेखन व सोशल वर्क में आपकी गहरी रूचि है आपने जूलॉजी में एम.एस.सी., मइक्रोबॉयोलॉजी में बी.एस.सी. व इग्नू से बी.एड. किया है आप इंदौर निवासी हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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