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एक वो भी था ज़माना

प्रीति जैन
इंदौर (मध्यप्रदेश)

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वो पाकीज़ा बचपन था
कितना सुहाना।
कागज़ की कश्ती चलाना,
बारिश में भीग जाना।
मिट्टी के खिलौनों संग भी,
आनंद की अनुभूति पाना।
फिर दौर कुछ बदला,
कुछ भी ना आज संभला।
शिक्षा तो है पा ली,
न संस्कारों के नामोनिशां।
मां बाप और गुरु के आगे
बच्चों ने खोली ज़ुबां।
क्या मोड़ ले रहा बचपन,
हुआ करता जो सुहाना‌।
एक आज का ज़माना,
एक वो भी था ज़माना।

ना घर अलग-अलग थे,
एक छत के नीचे ठिकाना।
सुख दुख थे एक सबके,
गुलज़ार था आशियाना।
बुज़ुर्गों के साए में,
ना हम राह कभी भटकते।
अपने पराए सभी,
थे दिलों में आकर बसते।
अपनों के आंसू, मुस्कुराहट से
बचा न कोई वास्ता।
मतलब में जी रहा इंसान,
भटक गया है रास्ता।
आज खून भी अपना,
हो रहा क्युं बेगाना।
एक आज का ज़माना,
एक वो भी था ज़माना।

घर की बहू बेटी,
होती थी घर की लाज।
रहती थी मर्यादा में,
ना सुनी थी ऊंची आवाज़।
दो कुल की मर्यादा को,
गुणों से थी संवारती।
खुद पर आए आंच भी,
परिवार को वो बचाती।
आज ये हालात, बहू को
चाहिए पति की जायदाद।
हाल बहन का, हक भाई से
मांग, करे मायके में वाद।
क्या हाल हुआ समाज का,
चाहे बहू बेटी अदालत में घसीटना।
एक आज का ज़माना,
एक वो भी था ज़माना।

शिक्षा के संग संग,
सींचित करो संस्कारों को।
खुशहाली हो हर घर में,
बचा लो अमूल्य धरोहरों को।
मन से जुड़े रिश्ते नाते,
ना यूं टूटकर बिखरेंगे।
प्रेम के सुवास से, सौंधी
खुशबू से जीवन महकेंगे।
पीकर गम सीखो मुस्कुराना,
और मन के गुबार छिपाना।
जीवन सुख दुख का दरिया,
पार किया उसने सीखा
जिसने बह जाना।
फिर लौट सकता है वो ज़माना,
जो चाहे चंचल मन को बदलाना।
एक आज का ज़माना,
एक वो भी था ज़माना।

परिचय :- प्रीति धीरज जैन
निवासी : इंदौर (मध्यप्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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