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गांव

अभिषेक श्रीवास्तव
जबलपुर म.प्र.

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गर्मी के मौसम में दोपहर के २.३० बज रहे थे, धूप सर पर थी, गांव के आंगन में नीम का पेड़ था, जिसके झड़ने वाले पत्तों से घर के छप्पर आधे से ढंक गए थे, और बीच बीच में गर्म लू चलने के कारण कुछ पत्ते लुढकते हुए, नीचे घर के आंगन में गिर जाते थे, तो कुछ पेड़ से टूटकर छप्पर पर गिरते थे। घर की दहलान पर चारपाई डाले बांई करवट लिए सुरेश सो रहा था, बीच-बीच में दो चार मख्खी, भन-भन की आवाज उसके कानों में सुना जाती थी, जिससे उसकी नींद टूटती और वह दाहिने हाथ से मख्खीयों को भगाकर फिर से सो जाता था। ऐसा ही कुछ समय से चलते हुए उसकी माॅं जो कि दहलान में चारपाई से कुछ दूर बैठे देख रही थी और हाथों में पीतल की बड़ी थाल में गेंहू लिए उसमे से कंकड अलग करती जा रही थी जब उससे न रहा गया तो उसने खिसिया के आवाज लगाई, ‘२ घंटे से सो रहा है उठ और खेत जाकर बाबा को रोटी देकर आ, खेत सुधारने गए हैं, आज मै न जाने वाली, जे गेंहू भी तो साफ करने हैं। कल से शहर से आया है, क्या शहर में भी ऐेसे ही पडा़ रहता था। खेत सुधर जायेगा तो इस बार फसल भी लगाने के लिए तेरे बाबा कह रहे थे। दूसरे के खेत में कब तक काम करेंगे, इसलिए तालाब के बगल वाली जमीन सिकवीं (किराये) पर ली है।

असल में कल ही सुरेश शहर से बी.ए. की पढ़ाई पूरी करके आया है, बी.ए. की पढ़ाई करते-करते सुरेश को शहर की चकाचोेैध अच्छी लगने लगी थी, उसे गांव में कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, गांव आने के पहले ही उसने मन बना लिया था, कि चाहे जो भी हो, इस बार हिम्मत करके अम्मा-बाबा से कह ही देगा कि वह शहर में कोई भी छोटी नौकरी करके रहेगा, लेकिन गांव में नही रहेगा। सुरेश ने रात के खाने के समय ही हिम्मत करके साफ साफ कह दिया है कि ‘अम्मा, बाबा से कह दो कि हम शहर जाकर रहेंगे, हमें नई रहना इस गांव देहात में, शहर की रूखी सूखी रोटी भी गांव से भली।’ सुनकर अम्मा और बाबा कुछ समय के लिए जैसे पत्थर के हो गए हो, फिर खुद को संभाला और चुपचाप खाना पूरा किया।

माॅं ने फिर से आवाज लगाई सुरेश, खेत जाकर बाबा को खाना दे आ। इस बार सुरेश के कानों से होते हुए आवाज ने सुरेश के दिमाग में असर दिखाया, और वह उठ गया। ‘‘हा अम्मा दो खाना देकर आता हॅूं।’’ माॅं ने खाने का डिब्बा सुरेश के हाथों में पकड़ा दिया।

खेत में तेज धूप सिर पर है, धूप से कुछ राहत के लिए रामदीन सफेद गमछा सिर पर रखा हुआ कुदाली से खेत की मिट्टी ठीक कर रहा है। बनियान आधी पसीने से भीग चुकी है, और माथे का पसीना बहकर गालों से होते हुए ऐसा लग रहा है जैसे जमीन को सींचने को आतुर है। ‘‘रामदीन, ओ रामदीन’’ दूर खेत की मेंढ़ से आते हुए बिरजू ठाकुर ने आवाज लगाई। रामदीन के देखने से पहले ही सुरेश हाथ में खाने का डिब्बा लिए रामदीन को काम करते देख रहा था लेकिन बीच में पीपल का पेड़ होने के कारण सुरेश, रामदीन की नजरों से दूर था। रामदीन ने कुदाली को एक तरफ रखा, और बिरजू ठाकुर के सम्मान में दूर से ही दोनों हाथ जोड़ दिये। सुरेश अब भी पेड़ की ओट में खड़ा देख रहा था। ‘‘ रामदीन सुना है सुरेश शहर से आ गया है, अब तो लगता है तुम्हारे सारे सपने पूरे होने वाले हैं, इसी दिन के लिए तो तुमने बड़े ठाकुर के खेत में काम न करके, ये जमीन सिकवी पर ली थी, की पढ़ा लिखा बेटा तुम्हारे साथ मिलकर आधुनिक तरीके से खेती करेगा, और फसल को शहर में संपर्क होने के कारण, सीधे शहर में बेचेगा। सच में तुमने दूसरे के खेतों में काम करके और मेहनत करके जैसे पढ़ाया है, सुरेश बहुत ही किस्मत वाला है।’’
रामदीन ने सिर पर रखे गमझे को निकाला और पसीना पौछते हुए बोला, बिरजू भैया सुरेश तो तैयार है यह सब करने को लेकिन हम सोच रहे हैं कि कहां पढ़े-लिखे लड़के को यहां गांव में खेती करायें, शहर में ही कुछ काम ढूंढ ले, तो ज्यादा अच्छा है। हम और जानकी यहीं गांव में ही ठीक है, बाकी का जीवन भी आप लोगों के साथ काट ही लेंगे। खेती के लिए जो सामान खरीद लिए है, उसे भी वापिस करने की बात करने का मन बना रहे हैं, और दो लोगों के लिए बड़े ठाकुर के खेत में ही काम कर लें तो ज्यादा अच्छा है। हम दोनों के लिए कहां बेचारे लड़के को गांव में बांधे रहेंगे। पढ़ा लिखा है शहर में कुछ तो कर ली लेगा, और….।
‘लेकिन रामदीन…….’ बीच में ही बिरजू बोला, तुम तो कह रहे थे, कि शहर में थोड़े से पैसों के लिए सुरेश को नौकरी करने की जरूरत नहीं है, वो तो खुद अपने लिए काम करेगा, और लोगों को भी रोजगार देगा, और अब ….।
‘ताउ, पायलागू’ । सुरेश ने तेजी से आकर बिरजू के पैर छुए, तो बिरजू ने उसे दोनों हाथों से पकड़कर उठाया और गले लगा लिया। ‘‘अरे वाह बेटा शहर जाकर भी संस्कार नहीं भूले’’
‘‘बाबा-अम्मा के संस्कार हैं ताउ, कैसे भूल सकते हैं, और हां ताउ हम न जा रहे कहीं शहर-वहर यहीं बाबा के साथ मिलकर खेती करेंगे, और अम्मा के हाथ का खाना खायेंगे। बहुत से काम करने हैं अब तो हमें। ‘‘रामदीन तो मानों पत्थर में फिर से प्रान आ गए हों, अब उसके चेहरे पर से पानी पसीने के रूप में नहीं, खुशी के आंसुओं के रूप में बह रहा था।
दूर खड़े बरगद के पेड़ के पत्तों की खरखराहट तेज हो गई थी, धूप का असर भी धीरे धीरे कम हो रहा था। बिरजू मुस्कराते हुए मेढ़ पर से वापस लौट रहा था। सुरेष अपने बाबा को खाना खिलाने के लिए डिब्बा खोलकर खेत की मिट्टी दूसरे हाथ से समतल करते हुए रख रहा था, और बाबा गमछे को जमीन में बिछाते बिछाते सुरेश के चेहते को बड़े प्यार से निहारे जा रहे थे।

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परिचय :- अभिषेक श्रीवास्तव
पिता : डॉ. संत शरण श्रीवास्तव
निवासी : जबलपुर म.प्र.
पद : आंतरिक अंकेक्षक
संस्थान : शिक्षा मंडल मध्यप्रदेश शाखा जबलपुर
शिक्षा : एम.एस.सी. (सीएस), एम.कॉम., लेखा तकनीशियन, संगीत विशारद


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