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विद्वता वाग्मिता एवं विनम्रता की त्रिवेणी : साहित्यकार आचार्य श्यामनंदन शास्त्री

डॉ. पंकजवासिनी
पटना (बिहार)

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विद्या ददाति विनयम् की साक्षात् साकार प्रतिमा, सर्जक मेधा एवं साहित्य- साधना के प्रतीक! हिंदी, संस्कृत एवं मगही के अधीती विद्वान, अप्रतिम ज्ञानगर्भित-शिष्यवत्सल प्राध्यापक, काव्यशास्त्र के प्रकांड विद्वान, गंभीर चिंतक, प्रखर वक्ता, सिद्धहस्त लेखक, उत्कृष्ट कवि, लघुकथा के पुरोधा तथा जरूरतमंदों के सहारा, एक सच्चे समाजसेवी एवं प्रगतिशील व्यक्तित्व के धनी मानवता के पैरोकार आचार्य श्यामनंदन शास्त्री अपने कर्म-वाणी-लेखनी और आचार-विचार-व्यवहार से स्वयं को आजीवन मांँ सरस्वती के सच्चे उपासक पुत्र सिद्ध करते रहे।

अपने जीवन के अंतिम दिन (यानी प्रयाण-दिवस २५ अगस्त, २००४) तक इस सरस्वती-साधक ने १२ घंटों के प्रतिदिन के स्वाध्याय एवं लेखन के अकाट्य नियम में कोई परिवर्तन नहीं किया!! किशोरावस्था तक ही किशोर वय श्यामनंदन के स्वाध्याय का यह आलम था कि इनके पिता को एक चिकित्सक ने आगाह किया था कि आप अपने बेटे को पढ़ने से रोकिए वर्ना किताबें पकड़े-पकड़े इसकी उंँगलियां टेढ़ी हो जाएंँगी। अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं असाधारण स्वाध्याय क्षमता के कारण २६ नवंबर, १९३९ ईस्वी को बिहार की राजधानी पटना के सुदूर पूर्व में स्थित पटना सिटी के मालसलामी थाना क्षेत्र के अंतर्गत चुटकिया बाज़ार मुहल्ले के एक अति साधारण परिवार में पिता श्री राम गति साह एवं माता श्रीमती कुलवंत देवी की बगिया में जन्मे बालक श्यामनंदन किशोर वय से ही कविता लेख एवं कहानी रचने लगे! और विद्यार्थी जीवन से ही अनेक छोटे बड़े पुरस्कार अपनी रचनाओं पर वे प्राप्त करने लगे। गुरुकुल महाविद्यालय, बैद्यनाथ धाम के इस छात्र की अजस्र स्रोतस्विनी प्रतिभा एवं मेधाविता का यह आलम था कि महाविद्यालय परिसर में होने वाली किसी भी साहित्यिक विधा की भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करना मानो इनका जन्मसिद्ध अधिकार हो गया। कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित हिंदी की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका विशाल भारत में १९५५ में आठवीं कक्षा में अध्ययनरत ब्रहमचारी श्यामनंदन का जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर विद्वता पूर्ण लेख छपा तो साहित्य जगत में तहलका मच गया। साथ ही प्रकांड एवं वरिष्ठ विद्वान साहित्यकारों की मजबूत किलेबंदी में किशोर श्यामनंदन की बाल पंडित के रूप में सेंधमारी हुई। १९५७ ईस्वी से ही इन्हें एक अच्छे कवि एवं लेखक का दर्जा प्राप्त हो गया था। आगरा से प्रकाशित मासिक पत्रिका नवीन में आयोजित अनेक कहानी प्रतियोगिताओं में क्रमशः प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्थान प्राप्ति के फलस्वरूप ये पुरस्कारों से सम्मानित होते रहे।

१९५५ ईस्वी से ही किशोर श्यामनंदन की साहित्यिक यात्रा शुरू हो गई और हिंदी संस्कृत के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ विविध विधाओं में छपने लगीं। राजस्थान से प्रकाशित भारती मासिक पत्रिका में इनकी संस्कृत कविताएंँ लगातार प्रकाशित होने लगीं। उधर दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका आजकल में संस्कृत साहित्य की वर्तमान गतिविधि नामक आलेख धारावाहिक के रूप में प्रकाशित होता रहा। १९५५ से १९५७ ईस्वी की अवधि में ही इनका एक विद्वत्तापूर्ण लेख प्राकृतिक सौंदर्य के चितेरे सुकवि: सुमित्रानंदन पंत मासिक पत्रिका विशाल भारत में तथा हैदराबाद से प्रकाशित मासिक पत्र अजंता में इनका सारगर्भित आलेख मध्ययुगीन काव्य में भारतीय श्रृंगार साधना छपा और चर्चित रहा!!! साथ ही इसी अवधि में पंजाब से निकलने वाली जागृति नामक पत्रिका में संस्कृत साहित्य के शीर्षस्थ महाकवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम् का इनके द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद शकुंतला की पहचान के नाम से लगातार ७ अंकों में प्रकाशित हुआ, जिसकी ख्याति वृहद रूप से हुई और दूर-दूर से किशोर श्यामनंदन के पास प्रशंसा पत्र आने लगे। महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् पर भी पर भी इन्होंने शोधपूर्ण कार्य किया। इस तरह इन ज्ञानगरिष्ठ, सारगर्भित एवं विद्वतापूर्ण प्रकाशित आलेखों एवं रचनाओं के कारण साहित्यकारों तथा विद्वज्जनों के बीच किशोरवय ब्रह्मचारी श्यामनंदन की एक विशिष्ट पहचान बनी और बड़े-बड़े प्रतिष्ठित विद्वानों के बीच वे बाल पंडित कहे जाने लगे!!! उन्हें बाल पंडित की उपाधि हिंदी साहित्य के उद्भव विद्वान एवं नकेनवाद के प्रवर्तकों में से एक आचार्य नलिनी लोचन शर्मा ने बड़े प्यार से दी थी।

होनहार वीरवान के होत चिकने पात कहावत को अक्षरशः साकार करने वाले इस अद्भुत बालक के जीवन में बाधाएँ, अभाव एवं संघर्ष सदा रहे। गुरुकुल विद्यालय में ही अपनी बदहाल आर्थिक स्थिति के कारण अपनी पढ़ाई जारी रखने में इन्होंने जब असमर्थता दिखलाई तो विद्यालय प्रशासन ने यह कहते हुए उनकी फीस (शिक्षा पूरी होने तक) माफ कर दी कि यदि तुम जैसा मेधावी और प्रतिभसंपन्न विद्यार्थी (विद्यालय में) पढ़ाई नहीं कर पाए तो फिर औरों के शिक्षा प्राप्त करने का क्या औचित्य रह जाएगा!?! वहांँ के बाद बिहार के प्रख्यात पटना महाविद्यालय में भी उन्होंने अपनी शिक्षा समाज के दानी प्रवृत्ति के लोगों से चंदा पाकर पूरी की। अपना गहन स्वाध्याय इन्हें ईटों की कुर्सी टेबल बनाकर करना पड़ा। उन्होंने स्नातक में अध्ययनरत रहते हुए जो नोट्स उस बनाया वही नोट्स काव्य शास्त्र की रुपरेखा पुस्तक के रूप में सर्वसमक्ष आया। बाद में, जिसकी सहायता से विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक स्नातकोत्तर (एम. ए.) के विद्यार्थियों को पढ़ाया करते थे। स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षा में इन्होंने पटना विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर स्वर्ण पदक हासिल किया। १९६३ ईस्वी में इन्होंने १३६ अंकों के बड़े अंतर से विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को पीछे छोड़ कर पुराने सारे कीर्ति मानों को ध्वस्त कर दिया।

ब्रहमचारी श्याम नंदन ने विद्यारत्न, विशारद, साहित्यरत्न, साहित्यालंकार, विद्यासागर आदि दर्जनों डिग्रियाँ एवं उपाधियांँ हासिल कीं। संघ लोक सेवा आयोग के एलायड सर्विस से लेकर पटना महाविद्यालय के व्याख्याता के रूप में एक साथ उनका चयन छः जगहों (पदों के लिए) पर हुआ, जिनमें अपने व्यक्तित्व के अनुरूप उन्होंने पटना विश्वविद्यालय अंतर्गत पटना महाविद्यालय में व्याख्याता पद स्वीकार किया।धीरे-धीरे वे विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय हो गए और शिक्षक-समुदाय एवं विद्वानों के बीच कहीं श्रद्धा तो कहीं ईर्ष्या के पात्र बन गए।

प्रसिद्धि की राह पर चलते हुए कर्मवीर योद्धा आचार्य श्यामनंदन शास्त्री समाज, साहित्य एवं शिक्षा के कई संस्थानों से पदेन संबद्ध होते चले गए। साथ ही अपने अनवरत स्वाध्याय के बल पर उन्होंने ४ दर्जन छोटी-बड़ी, मौलिक-अनुदित रचनाओं का प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित हिंदी, संस्कृत, मगही भाषाओं में ३०० से अधिक रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। उन्होंने प्रभात, मराल, संदेश, स्नेही- संसार, प्रगतिशील समाज, आर्यसंकल्प , बंधु आदि कई मासिक पत्रिकाओं का कुशल संपादन कर युगचेता पत्रकार के कर्तव्यों का प्रतिबद्धता के साथ कर्तव्य निर्वहन करते हुए समाज का मार्गदर्शन किया ताकि जागरूक पीढ़ी का निर्माण हो सके।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में राष्ट्र-निर्माण हेतु क्षिप्रता से बढ़ते समाज के कदमों की छाप और युग की धड़कन को पहचानते हुए उन्होंने लघुकथा विधा में अपनी सधी हुई लेखनी चलाई। जिस विधा ने विधिवत गति पकड़कर विकास पाना आरंभ किया सातवें दशक से आरंभ हुए पुनरुत्थान काल से…. इस काल के आरंभिक दौर में जिन कुछ साहित्यकारों ने “लघुकथा विधा को आधार” प्रदान किया था उनमें एक नाम प्रोफ़ेसर श्यामनंदन शास्त्री का भी का बड़े सम्मान एवं गर्व के साथ लिया जा सकता है। उनका लघुकथा संग्रह: पाषाण और पंछी होशियारपुर की एक संस्था द्वारा सातवें दशक के बिल्कुल शुरुआती वर्ष में ही प्रकाशित हो चुका था। फलतः सातवें दशक में जब लघुकथा विधा एक गति के साथ विकास पाने लगी तो उन लघुकथाओं पर प्रोफ़ेसर श्यामनंदन शास्त्री की लघु कथाओं का स्पष्ट प्रभाव था।

उनकी अन्य महत्वपूर्ण कृतियाँ “काव्यांग – विवेचन” तथा “काव्यशास्त्र की रूपरेखा” को पढ़ने के बाद काव्यशास्त्री राजशेखर एवं भर्तृहरि की अनुपस्थिति नहीं कचोटती!! कारण काव्यशास्त्र उनका प्रिय विषय रहा। यावज्जीवघीते व्याकरणम्की उक्ति को चरितार्थ करते हुए आचार्य श्यामनंदन शास्त्री ने आधुनिक संस्कृत व्याकरण और रचना तथा वृहद संस्कृत व्याकरण और रचना का प्रणयन कर व्याकरण जैसे रुक्ष विषय पर भी अपने गहन दखल (दक्षता) को प्रमाणित किया। इसी तरह उन्होंने श्रमसाध्य एवं समयसाध्य अपनी बहुमूल्य कृति संस्कृत साहित्य का इतिहास के रूप में एक प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ की रचना कर संस्कृत भाषा और साहित्य की दीर्घ परंपरा से न केवल पाठकों का परिचय कराया है बल्कि शोधार्थियों को एक दिशा भी दी है।

साथ ही उन्होंने वैदिक साहित्य का इतिहास, हिंदी साहित्य का इतिहास, चंद्रगुप्त मीमांसा नामक समालोचना-पुस्तक, *महाकवि कालिदास की प्रख्यात कृतियों “मेघदूतम्” एवं “अभिज्ञान शाकुंतलम्” का हिन्दी अनुवाद “मेघदूत” एवं “शकुंतला की पहचान” महाकवि भास के नाटक स्वप्नवासवदत्तम् का हिंदी अनुवाद “वासवदत्ता जब स्वप्न में आई”* किया। और *मध्यावधि – चुनाव की चेतावनी* नामक निबंध संग्रह की रचना की। इस प्रकार एक ओर जहाँ उन्होंने गंभीर और बुद्धिजीवी पाठकों को ध्यान में रखकर शोध एवं अनुसंधान मूलक विषयों पर साधिकार लेखनी चलाते हुए अपनी विद्वता की अमिट छाप छोड़ी। वहीं दूसरी ओर *व्याकरण प्रवेश*, *व्याकरण पराग*, *सरस संस्कृतम्*(भाग ० से ३) *स्वस्तिका* भाग-४ *सुबोध हिंदी व्याकरण और रचना*, *प्रमाणिक हिंदी व्याकरण* आदि अनेक पुस्तकों का सृजन *बाल वर्ग को ध्यान में रखकर* किया।

आचार्य श्यामनंदन शास्त्री के व्यक्तित्व का एक अत्यंत *प्रभावशाली पक्ष था…. उनका वक्ता रूप! जैसे मांँ सरस्वती उनकी जिह्वा पर विराजती हों!!* उनमें ईर्ष्येय विद्वता के साथ अप्रतिम वाग्मिता का अद्भुत वरेण्य संगम था!! *भाषा, साहित्य, काव्यशास्त्र एवं समकालीन सामाजिक संदर्भों के विविध विषयों पर वे साधिकार घंटो सारगर्भित वक्तव्य दे सकते थे*। और श्रोतागण विद्यार्थीगण चमत्कृत होकर आत्म विभोर अवस्था में उनका व्याख्यान,भाषण, प्रवचन आदि ससम्मान एवं निष्ठापूर्वक सुनते थे और वे धारा प्रवाह बोलते हुए अपने ज्ञान की गंगा में विद्यार्थियों एवं प्रबुद्ध सामाजिकों को घंटों डुबकी लगवाते थे। दिल्ली कोलकात्ता, मुंबई, चेन्नई, मदुरै, हैदराबाद, उदयपुर, अजमेर, लखनऊ, *म्यांमार, काठमांडू, मॉरिशस, सूरीनाम (दक्षिण अफ्रीका* : सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में) आदि *राष्ट्रीय – अंतराष्ट्रीय* स्थानों में आयोजित अनेक अधिवेशनों एवं सम्मेलनों में अत्यंत प्रभावशाली एवं यशस्वी भाषण दे कर उन्होंने श्रोताओं को सम्मोहित तो किया ही, *अपनी विद्वता की अमिट छाप छोड़ते हुए विद्वानों एवं बुद्धिजीवियों के बीच अत्यधिक /ईर्ष्येय ख्याति अर्जित* की! प्रतिष्ठा पाई!!

प्रोफ़ेसर शास्त्री *आजीवन आर्यसमाज से जुड़े रहे और आर्यसमाज एवं स्वामी दयानंद सरस्वती के मूल्यों, सिद्धांतों एवं आदर्शों के राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर की पहचान रखने वाले संवाहक एवं प्रखर वक्ता* बने!! *नेपाल, मॉरिशस के आर्य समाज सम्मेलन में उनके ज्ञानगर्भित भाषण एवं व्यक्तित्व की खूब चर्चा* हुई…!…. भूरी – भूरी प्रशंसा हुई!! फिर *बिहार सरकार की ओर से उन्हें जून, २००३ में ७ वें विश्व हिंदी सम्मेलन, सूरीनाम भेजा गया: जहां “भारतीय संस्कृति और हिंदी” पर अपना ओजस्वी भाषण देकर *विश्व भर से आए विद्वान एवं बुद्धिजीवियों के मानस पर अपना सिक्का जमाते* हुए *सूरीनाम के आर्यसमाज की सभा में भी प्रवचन के लिए ससम्मान आमंत्रित* किए गए और अपनी *सारगर्भित ओजस्वी वक्तृता द्वारा बिहार से एक आर्य विद्वान एवं संगठन कर्ता के रूप में बनी अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि को और पुख्ता किया।*

*साहित्य की नई पौध को आचार्य श्यामनंदन शास्त्री ने अपनी स्नेहिल रचनात्मक देखभाल से सींचा, अपना प्रतिबद्ध एवं समर्पित मार्गदर्शन देकर पल्लवित – पुष्पित किया, प्रेरणा और प्रोत्साहन का खाद – पानी देकर हजारों लोगों को लेखन से जोड़ा और सैंकड़ों अनगढ़ पत्थरों को तराश कर साहित्य और समाज में महादेव की भांँति स्थापित कर प्रबुद्ध लोगों की कोटि में शामिल* कर दिया…. यह उनकी विरल विशेषता थी! आचार्य-सुलभ प्रतिबद्ध तपस्या थी!! और राष्ट्र एवं मानवता के प्रति अपने हिस्से का कर्तव्य भी!!! *आज समाज के सैंकड़ों कवि, लेखक उनकी ही देन हैं!! उनके संपर्क में आने वाले उनके *”वज्रादपि कठोराणि, मृदुलानि कुसुमादपि”* व्यक्तित्व से भली-भांति परिचित थे!!

जात-पात, ऊंँच-नीच, आडंबर – कुरीतियों से दूर एक *बेहतर समाज के निर्माण एवं मानवता के कल्याण का सुंदर सपना आंँखों में आँजे वे महामानव एवं कर्मवीर योद्धा जीवन के अंतिम दिन तक कर्मरत रहे* …..! जब तक कि *२५ अगस्त, २००४* को अपरान्ह ३:०० बजे अचानक हृदय-गति रुक जाने से उनकी *पंचभूत काया कालकवलित* न हो गई! पर उनकी यशःकाया अक्षुण्ण है! अक्षत रहेगी….!!!

परिचय : डॉ. पंकजवासिनी
सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय
निवासी : पटना (बिहार)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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