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सिस्‍टम

रामनारायण सुनगरिया
भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.)

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सत्रह साल बाद।
मोटे कॉंच के द्वार को पुश करता हुआ बैंक में प्रवेश करता हूँ, तो ऑंखें चौंधिया जाती हैं।
सारा नज़ारा ही अत्‍याधुनिक हो चुका है। सबके सब अलग-अलग पारदर्शी केबिन में अपने-अपने कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर नज़रें गढ़ाये तल्‍लीनता पूर्वक व्‍यस्‍त हैं। किसी को किसी से कोई वास्‍ता नहीं। ऐसा लगता है बैंक की सम्‍पूर्ण कार्यप्रणाली स्‍वचलित हो गई है। कोई-कोई काम मेन्‍युअल हो रहे हैं। वह भी पूर्ण शॉंतिपूर्वक।
मैंने प्रत्‍येक यंत्रवत् व्‍यक्ति को गौर से देखा—एक भी परिचित नहीं। सभी युवा एवं सुसम्‍पन्‍न लगते हैं। मेरी खौजी नज़रें एक केबिन पर चिपके चमचमाते नेम प्‍लेट पर पड़ी—हॉं यही है चीफ मैनेजर सभ्‍य, सौम्‍य व आत्‍मविश्‍वासी प्रतीत होता है।
मैंने अपनी एप्‍लीकेशन को खोलकर पुन: पड़ा कहीं कोई कुछ छूट तो नहीं गया। सारान्‍स बुदबुदाते हुये द्वार पुश करते ही ‘नमस्‍ते’ किया, मगर आश्‍चर्य हुआ कि वह सभ्‍य सौम्‍य व्‍यक्ति ने नमस्‍ते का उत्‍तर देने के बजाय मुझे घूरते रहना ज्‍यादा उचित समझा। शुक्र है बैठने का इशारा तो किया।

मैं बैठते ही एप्‍लीकेशन उसकी तरफ बढ़ा कर अपनी समस्‍या बताने लगा—मेरी एफ डी और….
‘’एप्‍लीकेशन देख लूँगा। विचार करके सूचित कर दूँगा।‘’ कहते हुये वह पुन: कम्‍प्‍यूटर स्‍क्रीन पर नज़रें तरेरकर व्‍यस्‍त हो गया। मैं सन्‍न! खामोश! पुतले की तरह लौटने लगा। मगर दिमाग में खलबली मची हुई थी। कई साल पहले के वे दृश्‍य सजीव हो उठे थे…..
…..अपनी कम्‍पनी के जी. एम. के केबिन से निकलकर जैसे ही ऑफिस के परिसर में हो रही चहल-पहल पर ध्‍यान गया। कुछ गौर करता, सोच पाता, उससे पहले ही दो-तीन सज्‍जन सम्‍मान से सामने सलाम ठोंकते खड़े हो गये। बहुत ही विनम्र भाषा में बताने लगे,
‘’मैं अमुक बैंक का….हूँ।‘’
‘’हमारी फलां बैंक है।‘’
‘’मैं सरकारी बैंक से आया हूँ।‘’
‘’सभी तो सरकारी बैंकें हैं।‘’
बोलकर मैं परिसर में देखकर आश्‍चर्य चकित था कि सभी बैंकों ने अपने-अपने स्‍टॉल लगाकर अधिकृत अधिकारियों को तैनात कर दिया है एवं ग्राहक को पकड़कर लाने के लिये इनको छोड़ रखा है। सबने एक साथ आक्रमण कर दिया। मैं घबरा गया।
सबने अपने-अपने ब्रोसर दिये और सर नवाकर विदा हो लिये। मैं ब्रोसरों को थामें मुख्‍य सड़क पर आ गया।
…..ट्राफिक के मिश्रित कोलाहल ने मुझे वर्तमान के यथार्थ का एहसास करा दिया।

* * *
समय के साथ सामूहिक साजिश का शिकार होने की परतें खुलने लगीं।
चारों ओर से नकारात्‍मक ख़बरें आने लगीं—मौसम की बेरूखी प्रगतिशील देश की विकासोन्‍मुखी योजनाओं के लिये लिया गया ऋण, सार्वजनिक कम्‍पनियों के जम्‍बो श्रमिक समूह इत्‍यादि-इत्‍यादि कारणों के कारण सम्‍भवत: देश आर्थिक संकट में घिर गया है। इससे मुक्ति पाने के उपाय तत्‍काल करने होंगें। इन्‍हीं हालातों के कारण सार्वजनिक संस्‍थानों के श्रमिकों को काम करने के लिये वालेन्टियर रिटायरमेन्‍ट स्‍क्रीन में गोल्‍डन सेक हेन्‍ड का ऑफर दिया गया, जिसमें एक मुश्‍त राशि के पैकेज का लालच दिया गया।
अधिकारियों की मीठी-मीठी समझाइश से प्रेरित होकर लोगों ने तत्‍कालीन बैंक ब्‍याज दरों के अनुसार केल्‍कुलेशन की और पाया कि अगर हमें मिलने वाले सारे बेनीफिटों को एम.आई.एस. में जमा कर दें, तो प्रत्‍येक माह में मिलने वाली राशि, वर्तमान में प्राप्‍त वेतन से काफी अधिक होगी। यानि वगैर नौकरी करे, घर बैठे ज्‍यादा वेतन? तो फिर क्‍या प्रॉबलम है?
जिनके दिमाग पर पत्‍थर पड़े थे, उन्‍होंने खुशी-खुशी सरकार का अथवा कम्‍पनी के ऑफर का लाभ उठाने के लिये आवेदन लगा दिये। अन्‍धा क्‍या चाहे दो ऑंखें कम्‍पनी ने तुरन्‍त आवेदन स्‍वीकार कर लिया।
वी.आर.एस. सेन्‍क्‍शन होने के बाद कर्मचारी व अधिकारियों के हाथ तो कट ही चुके थे। प्रबन्‍धन ने अपना रूख पूर्व श्रमिकों की ओर से बदल लिया। अब सहानुभूति की क्‍या जरूरत थी। प्रबन्‍धन की ओर से कुछ देनदारियॉं, कुछ-कुछ विवादों में फंसी हुई थी। जिसे निबटारे के बिना तत्‍काल भुगतान करना सम्‍भव नहीं था। इसके लिये कुछ माह-साल इन्‍तजार करना होगा।
इसी को ध्‍यान में रखकर कुछ कर्मचारियों ने कम्‍पनी से अस्‍थाई आवास आवन्‍टन की मॉंग की, शेष राशि प्राप्‍त होने तक।
कम्‍पनी ने अपनी शर्तों पर, जिस आवास में जो कर्मचारी कम्‍पनी के रोल में रहते हुये उसे जो आवास आवन्टित था उसी आवास का रेटेन्‍सन के आधार पर आवन्टित कर दिया। दो साल के समय-सीमा के लिये। जिसके बदले कम्‍पनी ने आवासानुसार एक लाख से डेढ़ लाख राशि की एफ.डी.आर. जमानत के तौर पर धरोहर के रूप में अपने पास रख ली, जिसे पूर्ण निबटारा होने पर वापस देने तथा समय-समय पर उसे नवीनीकृत करने का वादा भी किया।
समय सामान्‍य शान्ति पूर्वक गुजरने लगा। इन्‍तजार में। कुछ-कुछ माह के अन्‍तराल में एम.आई.एस. पर देय ब्‍याज दर कम होती गई। जिससे प्रत्‍येक माह में मिलने वाला वेतननुमा एमाउन्‍ट आधा हो गया। अब घर खर्च चलाना कठिन हो गया। आर्थिक संकट गहराने लगा।
मूल राशि से ही आपात कालीन खर्च, जैसे- दु:ख-बीमारी, नाते-रिशतेदारी, तीज-त्‍यौहार, बच्‍चों की एज्‍यूकेशन व शादी-विवाह, भविष्‍य के लिये बचत इत्‍यादि-इत्‍यादि पर खतरा मंडराने लगा। जिसके लिये चिन्‍ता होना स्‍वभाविक है।
उधर कम्‍पनी ने अपनी असम्‍वेदनशील कारगुजारियॉं जारी रखीं। तरह-तरह से सेवानिवृत कर्मचारियों को प्रताडि़त करना प्रारम्‍भ कर दिया। प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष धमकियॉं देना आम बात हो गई।
विवादों का अम्‍बार लग गया। सम्‍पूर्ण वातावरण तनावग्रस्‍त, जटिल से जटिल मकड़जाल में परिवर्तित हो गया।
कुछ जागरूक लोगों ने राहत पाने हेतु न्‍यायालय क शरण ली। जिसमें समय तो बहुत लगा, मगर सफलता मिली। फैसला कामगारों के हक में आया। लेकिन कम्‍पनी ने निर्धारित समय सीमा का दुरूपयोग करते हुये, सर्वोच्‍च न्‍यायालय में एस.एल.पी. दायर कर दी। पुन: वर्कर ठगा सा रह गया। और यातनाऍं भुगतने के लिये मजबूर हो गया।
निकट भविष्‍य में किसी भी प्रकार की कोई मदद ना मिलने की स्थिति को भॉंपकर निराश और उदास हो गये।
कोर्ट-कचहरी के चक्‍कर लगाते हुये कुछ विचारशील और उत्‍साही लोगों ने विभिन्‍न बैंकों में प्‍लेज्‍़ड की हुई एफ.डी.आर. पर समय-समय पर बैंक द्वारा निर्धारित ब्‍याज की राशि देने के आवेदन लगाये गये। उनके आगे गिड़गिड़ाये ताकि कुछ आर्थिक राहत मिले और धनाभाव में स्‍थगित आवश्‍यक मांगलिक कार्य तथा अन्‍य घर-परिवार के बहु प्रतिक्षित आयोजन सम्‍पन्‍न हो सकें।
आश्‍चर्य है, जिन बैंकों में हमने अपनी गाढ़ी कमाई के लाखों रूपये जमा किये, वे ही हमें पहचानने से ना-नुकुर करने लगे। कहते हैं,’’कम्‍पनी से लिखवा कर लाओ।‘’
कम्‍पनी तो जमा करने आई नहीं थी, हमने ही एफ.डी.आर. बनाकर कम्‍पनी के नाम प्‍लेज्‍ड करवाई थी। अब कम्‍पनी और बैंक दोनों सरकारी ऐजेन्सियाँ, वास्‍तविक जमाकर्ता को पेन्‍डुलम की भॉंति डोलने के लिये मजबूर कर रहे हैं। फुटबाल बन गया पूर्व कर्मचारी, कम्‍पनी किक्‍क मारे तो बैंक में, और बैंक किक्‍क मारे तो कम्‍पनी में। दोनों चैन की बन्‍शी बजा रहे हैं। बैंक, कर्मचारी का पैसा मल्टिपल कर रही है। और कम्‍पनी इसको हथियार बनाकर कर्मचारियों को धमका रही है। कर्मचारी दो पाटन के बीच में पिस रहा है। भटक रहा है। कटी पतंग की तरह लटका हुआ है।
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निरीह प्राणी की तरह चुपचाप बैंक मैनेजर के सामने खड़ा हो गया। उसे घूरते हुये।
उसने मेरी और लगभग क्रोधित नज़रों से देखा और चिल्‍लाया, ‘’कहा ना ओरिजनल इन्‍श्‍ट्रूमेन्‍ट लाओ।‘’
‘’अपने आवेदन में मैंने लिखा है कि ओरिजनल इन्‍श्‍ट्रूमेन्‍ट कहॉं है, क्‍यों नहीं ला सकता।‘’ मैं उसे एक सांस में बताता गया,’’और फिर मैं तो अपनी एफ.डी.आर. पर ब्‍याज रूप में बढ़ी राशि की ही मांग कर रहा हूँ। कम्‍पनी को प्‍लेज्‍ड राशि तो आपके पास ही जमा रहेगी।‘’
वह मुझे ऐसे टकटकी लगाकर देख रहा था, जैसे मैंने कोई अपराध कर दिया है। और वह मेरे लिये सजा तजबीज कर रहा हो।
शिथिल होते हुये बोला, ‘’ओरिजनल इन्‍श्‍ट्रूमेन्‍ट के बगैर मैं कुछ नहीं कर सकता।‘’ उसने रटा रटाया टेप पुन: बजा दिया।

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लोकतांत्रिक पद्धति में यही उद्धेश्‍य से बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण किया गया था कि जनता की बैंक, जनता के लिये, जनता द्वारा। मगर बैंकों की कार्यप्रणाली में सम्‍पूर्ण नियम, कानून शर्तें ऐसी लागू की गई कि सारी शक्ति एक तरफा अपने हाथ में रखी। ग्राहक उनकी कठपुतली बनकर रह गया। धन-राशि जमा करने के बाद उनकी शर्तों पर ही खाता संचालित होता है या हो सकता है।
यह जानकारी बैंक के कितने ग्राहकों को है कि अगर बैंक भारतीय रिजर्ब बैंक की गाइड लाईन का उल्‍लंघन करते हैं, तो ग्राहक केन्‍द्रीय बैंक के कस्‍टूमर सर्विसेज डिविजन का दरवाजा खटखटा सकता है।
निष्‍पक्ष और ईमानदार डील का अधिकार आप भाषा और डाक्‍यूमेन्‍ट्स के मामले में बैंक से पारदर्शिता और आसानी की उम्‍मीद कर सकते हैं।
कान्‍ट्रेक्‍ट्स पारदर्शी हों और आम जनता आसानी से समझ सके। मगर फिक्‍सड डिपॉजिट करते समय किसी भी प्रकार की शर्तों को नहीं समझाया गया। क्‍योंकि बैंक सरकारी संस्‍था है। इसलिये पूर्ण विश्‍वास सहित जहॉं बोले वहॉं हस्‍ताक्षर करते चले गये। और निश्‍चिन्‍त हो गये। जब जरूरत होगी तब राशि मिल जायेगी, क्‍योंकि अपने पैसे हैं। वास्‍तविकता अब मालूम हुई कि अपना ही जमा किया पैसा, अपने ही खाते से निकालने में कितनी मशक्‍कत की आवश्‍यकता है।
अब कहीं से कोई राहत भरा जबाब नहीं मिल रहा है कि किन कारणों से मुझे मेरे ही पैसों पर ब्‍याज की निर्धारित राशि क्‍यों नहीं मिल सकती?
बैंक की पारदर्शिता और विश्‍वसनीयता पर कैसे भरोसा करें?

* * * बैंक और ग्राहक के बीच उत्‍पन्‍न विवाद को सुलझाने के लिये सरकार ने बैंकिंग लोकपाल को नियुक्‍त किया है, लोकपाल सर्वोच्‍च न्‍यायालय के निवृत्‍तमान जज हैं।
लोकपाल महोदय को भी आवेदन किया गया। उनके कार्यालय से भी कुछ माह पैपर बैंक के नोडल अधिकारी अथवा हेड ऑफिस में मूवमेन्‍ट होते रहे, अन्‍त में लोकपाल कार्यालय से जबाब मिल गया कि बैंक अपने आन्‍तरिक दिशा निर्देशों के कारण आपका प्रकरण को बन्‍द किया जाता है। जबाब से असन्‍तुष्‍ट होने पर न्‍यायालय अथवा फोरम में जाने के अपने अधिकार का उपयोग कर सकते हैं।

जटिल सम्‍वेदन ही सिस्‍टम के शिकन्‍जे में तड़फड़ाते रहना ही नियति बन गई है।

इति

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परिचय :- रामनारायण सुनगरिया
जन्‍म : ०१/०८/१९५६
शिक्षा : अभियॉंत्रिकी स्‍नातक
साहित्यिक शिक्षा : लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से साहित्‍यालंकार की उपाधि। कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से
प्रकाशन : अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-समय पर प्रकाशित एवं चर्चित। साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली
प्रकाशनाधीन : विभिन्‍न विषयक कृति।
सम्‍प्रति : सेवानिवृति के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र लेखन।
निवासी : भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.)


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