डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
वाराणसी, काशी
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वह जन्म भूमि मेरी, वह मातृ भूमि मेरी।
वह धर्मभूमि मेरी, वह कर्मभूमि मेरी।
वह युद्धि भूमि मेरी, वह बुद्धभूमि मेरी।
वह मातृ भूमि मेरी, वह जन्मभूमि मेरी।
पंडित सोहन लाल द्विवेदी की यह पंक्तियाँ भारत की संस्कृति व सभ्यता इस तथ्य को उदघाटित कर रही हैं कि तथागत भगवान बुद्ध भारतीय संस्कृति के अधिक निकट हैं। भारतीय संस्कृति और मानव कल्याण के उत्थान के लिए बुद्ध की अहिंसा और सत्य का अतुलनीय योगदान है। सम्पूर्ण विश्व मे सबसे पहले शांति और अहिंसा का पाठ हमारे महान राष्ट्र भारत ने ही पढ़ाया था। अखिल विश्व का सबसे प्राचीन सभ्यता वाला देश, जिसने अपनी सभ्यता व संस्कृति के प्रकाश से सारे जगत को आलोकित किया था। “यूनान मिश्र रोमा मिट गए जहां से, कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी।” भारत की सुदीर्घ उदात्त विचारों की श्रृंखला का जयघोष करती है।सत्य, अहिंसा, त्याग, सदभावना, सहिष्णुता, विश्व बंधुत्व की भावना से सरोबार इस श्रमण गौतम बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ऐसे समय में हुआ जबकि रूढ़ियों, कर्मकांडो, पाखंडों व धार्मिक उन्माद या कट्टरता का चहुँ ओर बोलबाला था, शोषित व दलित वर्ग पर अत्याचार हो रहे थे। ऐसे में बुद्ध का उदय एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी, जिन्होंने प्राचीन व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह के नायक के रूप में परंपरागत रूप से चली आ रही धर्म के पुजारियों की अपरिमित शक्ति, अनाचार और अत्याचार से त्रस्त जनमानस को मुक्ति दिलाई। मेवाड़ विश्विद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ अशोक कुमार गदिया ने कहा है कि महात्मा बुद्ध के समय ढाई हजार साल पहले समाज में विद्रूपताएं थी, अनाचार था, अधर्म था, अतिवाद पर अंकुश नहीं था। ऐसे में बुद्ध ने समाज मे संतुलन पैदा करने का काम किया। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है, मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। दो अतियों का त्यागकर मध्य मार्ग पर चलने का तरीका बौद्ध धर्म ने सिखाया है।
बुद्ध व्यक्ति को प्रकृति की ओर ले जाना चाहते थे। उनके जीवन की दो बड़ी अद्भुत घटनाएं है, प्रथमतः उनका जन्म शाल वृक्ष के नीचे हुआ, संबोधि की प्राप्ति पीपल यानि कि बोधिवृक्ष के नीचे तथा उनका महापरिनिर्वाण भी दो शाल वृक्षों के नीचे हुआ। द्वितीयतः उनका जन्म वैशाख पूर्णिमा को हुआ, संबोधि की प्राप्ति भी वैशाख पूर्णिमा को हुई और प्रकृति का ऐसा करिश्मा की महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण भी पावन वैशाख पूर्णिमा को ही हुआ। उनके जीवन मे वैशाख पूर्णिमा का यह त्रिवेणी संगम अद्भुत है, यह प्रकाश का पर्व है, जब लाखों जीवन बुद्ध के ज्ञान से प्रकाशित हुए। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व मे करोड़ों लोग वैशाख पूर्णिमा या बुद्ध पूर्णिमा को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, भारत सहित नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाईलैंड, श्रीलंका, कंबोडिया, जापान, म्यामांर, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों में समारोह पूर्वक बड़े आदर व सम्मान के साथ मनाया जाता है। उनका व्यक्तित्व बहुत ही अनूठा था, वे प्रज्ञा के सूर्य थे तो उनमें चंद्रमा की शीतलता और सुंदरता थी, वे दया, करुणा और प्रेम के महासागर थे।प्रकृति प्रेमी बुद्ध सभी प्राणियों के जीने के अधिकार के प्रबल पक्षधर थे। एक बार एक केकड़े को कष्ट पहुंचा रहे बच्चों को किसी भी प्राणी को हानि न पहुंचाने का उपदेश दिया।
महात्मा बुद्ध ने समस्त मानवजाति को मार्गदर्शन प्रदान किया। लेकिन स्वयं को सर्वज्ञ नही मानते थे। वैचारिक स्वतंत्रता के हिमायती थे। उन्होंने कर्मफलवाद को प्रधानता दी। ज्ञानमार्ग की अपेक्षा जनमानस को कर्म मार्ग की ओर प्रेरित कर उनमें संतुष्टि की भावना विकसित करने का महती कार्य किया। वह संसार को परिवर्तनशील मानते थे और सदाचरण को मुक्ति के मार्ग के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि शाश्वत उत्पत्ति होते रहने से संसार मे संचरण का कार्य जारी रहता है। तथागत का विश्वास सम्यक दृष्टि, सम्यक वचन, सम्यक संकल्प, सम्यक कर्म, सम्यक प्रयत्न, सम्यक आजीविका, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि के प्रति था।उनके अनुसार जन्म, मरण, शोक, रुदन, खिन्नता, संयोग, वियोग, इच्छा, तृष्णा आदि सभी दुःख उत्पन्न होने के कारण हैं। इन सभी के विरोध से ही दुःख का उन्मूलन संभव है। एक के विनाश के बाद ही दूसरे की उत्पत्ति की संभावना को समुत्पाद की संज्ञा दी।
महात्मा बुद्ध के सरल, सच्चे और सीधे कल्याणकारी उपदेश जनमानस के अन्तर्मन को गहराई तक स्पर्श करते थे।महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने उनके उपदेशों को कंठस्थ कर लिख लिया था, जिसे त्रिपिटक कहा जाता है। बौद्ध धर्म को समझने के लिए ‘धम्मपद’ का ज्ञान मनुष्य को तिमिर से ज्योति की ओर ले जाने के लिए प्रज्जवलित दीपक के सदृश है। त्रिपिटक का मुख्य संदेश यह है कि वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है, अपितु समता ईश्वरीय आज्ञा है। जाति के नाम पर छोटे बड़े का भेदभाव करना पाप है। भगवान बुद्ध का मानना था कि चार आर्य सत्य हैं-पहला दुःख, दूसरा दुःख का कारण, तीसरा दुःख से मुक्ति और चौथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है और यह सभी दुखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण का अर्थ है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शांत हो जाना।
इक्कसवीं सदी का मानव समाज आज एक नवीन वैज्ञानिक युग मे प्रवेश कर रहा है, किन्तु विगत कुछ महीनों में दुनिया के दो सौ से भी अधिक देश और एक बहुत बड़ा जनमानस कोविड-१९ की गिरफ्त में है और जन धन की क्षति हो रही है। ऐसे में हमे आज बुद्ध कर उपदेशों की अधिक आवश्यकता है। प्रगतिशील धर्म का उद्देश्य प्राचीन विश्वासों के महत्व को कम करना नही है बल्कि उन्हें पूर्ण करना है। आज समाज को विखंडित करने वाले विचारों की विविधता पर जोर नहीं बल्कि उन्हें एक इंसानियत के मिलान बिन्दु पर लाना है। आज हमें भगवान बुद्ध की शिक्षाओं उनमें निहित आधारभूत सत्य को वर्तमान युग की आवश्यकताओं , समस्याओं, जटिलताओं,प्राकृतिक संतुलनों व क्षमताओं के अनुरूप अपनाना है या दुहराना है। महात्मा बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन हमें सीख देता है कि कैसे एक साधारण गृहस्थ मनुष्य भी अहिंसा, त्याग,सत्य, समता, ममता और परोपकार की भावना से मानव कल्याण की उत्कृष्ट से उत्कृष्टतर अवस्था को प्राप्त कर सकता है। भगवान बुद्ध भारत की पुण्य धरा की महान और मौलिक देन हैं, हमें गर्व है कि उन्होंने पूरे विश्व की मानवता को अपने दिव्य ज्ञान से प्रकाशित किया।
बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।।
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परिचय :- डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
निवासी : वाराणसी, काशी
शिक्षा : एम ए; पी एच डी (मनोविज्ञान)
सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग श्री अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी जी कॉलेज
लेखन व प्रकाशन : कुछ आलेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित,आकाशवाणी से भी वार्ता प्रसारित।
शोध प्रबंध, भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद दिल्ली के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित। शोध पत्र का समय समय पर प्रकाशन, एवम पुस्तकों में पाठ लेखन सहित ३ पुस्तकें प्रकाशित।
पर्यावरण में विशेषकर वृक्षारोपण में रुचि।
गाँधी पीस फाउंडेशन, नेपाल से ‘पर्यावरण योद्धा सम्मान’ प्राप्त।
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