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बेघरों की बेबसी व कोरोना की त्रासदी

नरपत परिहार ‘विद्रोही’
उसरवास (राजस्थान)

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नन्हा मुन्ना पापा से कहता है।
अपना आशियाना किधर हैं?
पापा हौसला दे कहता, बेटा
ये आ गया उधर.. उधर हैं।

शीघ्र दो कदम बढा़ता उधर हैं।
फिर पुछता पापा, शायद कहता है!
भूख लगी है पापा,
अब ओर कितना दूर हैं?
पर पापा निःशब्द हैं,
कैसे कहे? कि अभी कोसो दूर है।

सोचता हूँ कब उसकी
भूख शांत होगी?
इन मासूमों को
प्यास भी लगी होगी।
कैसे बसेरा होगा?
घनघोर अँधियारी रातें भी होगी।

यूँ चलते कब?
आशियाने की दूरी पार होगी ।
वो क्या जाने?
ये कोरोना त्रासदी हैं।
हम भारत देश की आबादी हैं
या इस देश के मिट्टी की गरीबी हैं।

चलता डगर-डगर पर
कोई नहीं कहता,
ये अपना करीबी हैं।
तब विद्रोही कहता हैं,
क्या ये भारत देश की मज़बूरी थीं ?

जो सत्तर सालों से
पडी़ दीवारों के परिधानों में।
साहित्य-शास्त्रों में,
विश्वगुरु के परिवेशों में।
राजनीतिक खिलाडि़यों
की फुटबाॅल बनीं।
सडी़-गली गंगा-यमुनों के मैदानों में ।।

सुना हैं भारत
धन-कुबेरों का देश हैं
साधु-संत व
ऋषि-मुनियों का परिवेश हैं।

तो फिर इस गरीबी का
क्या गणवेश है?
क्यों इतनी कारुणिक
उदासीनता दिखाता अपना देश हैं।
हे! कुदरत ऐसा हमारा क्या कसूर हैं ?
जो इस तरह बेघर करने को मज़बूर हैं।
कुछ तो रहम कर, हम भारत देश के बाशिन्दे हैं।।

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परिचय :- नरपत परिहार ‘विद्रोही’
निवासी : उसरवास, तहसील खमनौर, राजसमन्द, राजस्थान


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