बालमन के भी स्वप्न है, वे भी कल्पना लोक में विचरण करते है उनके भी मन मे लालसा के साथ जिज्ञासा होती है। बच्चों के बचपन को पुस्तकों, ग्रीष्म कालीन,शीतकालीन शिविरों में झोंका जा रहा है। छुट्टियां भी कम होती जा रही है। प्रातःकाल घूमना, दौड़ लगाना, खेलकूद आदि तो जैसे जड़वत होते जा रहे है। उनकी जगह मोबाइल फोन दूरदर्शन आदि ने ले ली है। वीडियो गेम से खेल की कमी को पूरा किया जा रहा है। इससे एक तेजतर्रार व मजबूत नस्ल की अपेक्षा नही की जा सकती। कमजोर बच्चे भले पढ़ने – लिखने में आगे हो जाये लेकिन उनमें सामान्य ज्ञान का अभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। पहले हम पढ़ाई के साथ पट्टी पहाड़े में पाव, अद्दा, पौन आदि भी सीखते थे। लेकिन आज के बच्चों को यह सब समझ नही आता। आज बच्चों को कोई सामान लाने का कहा जाए तो वह आना कानी शुरू कर देते है या बहाना बना लेते है। जबकि पहले अगर पड़ोसी भी कोई काम या सामान मंगवाता था तो हम जैसे दौड़कर चले जाते थे। सामान लाकर दे देते थे। उस समय पड़ोसियों का भी बच्चों पर प्रेम झल कता था। सब एक दूसरे के सम्पर्क में रहते थे। एक दूसरे को मदद सहयोग किया करते थे। महिलाओं की महफ़िल भी सजा करती थी, और गांवों में तो चौपाल भी जमती थी। बुजुर्गों से कोई घटना या कहानियों के माध्यम से बच्चे कुछ न कुछ ग्रहण करते थे। पुराने किस्से चौपाल पर शेयर किए जाते थे। इससे बच्चों का सामान्य ज्ञान तो विकसित होता ही था साथ ही जीवन जीने की बातें भी बच्चे बातों- बातों में सीख जाते थे।
आजकल पड़ोसी को पड़ोसी ही नही पहचानता, महिलाओं की महफ़िल या चौपाल का नामभी गुमनामी में चला गया हैं। कहां का खेल और किसका सामान लाकर देना। अब ये सब बातें इस युग मे नगण्य हो गई है।
मैं आप सबको कुछ वर्षों पीछे लिए चलता हूँ जहां मस्ती थी, मुस्कान थी
याद करें हम ४५ वर्ष पूर्व के वह दिन जब हम छोटे-छोटे बच्चों का समूह रात्रि में छुपाछई खेला करते थे लड़के-लड़कियां सभी, मोहल्ले के सारे बच्चे भी। वा पूरन काका की बसूड़ि, नाथबा की सावित्री ने धँसो, ख़लीपा बा को शिवो, दोली भुवाजी की मोटी, बसंती मास्टर को असोक्यो, नत्थू जीजा को मुन्नों, मुल्लू काका को गिद्दु , गफूर काका को आसिको ने सुनारन मां को मोहन, रहीम काकी, अफरोज भुवा, मैना काकी एलया भुवा कुसुम बेन। यही रिश्ते बच्चों में भी चलते थे। सुबह स्कूल जाते समय बासी रोटी की गोल घड़ी करके गिलास भर के चाय से गटक्के चले जाते थे १२ बजे घर आकर रूखी -सुखी जो भी रोटी सब्जी मिलती थी खा लेते थे। नी तो मिर्ची में नमक मिलाकर थोड़ा सा मीठा तेल डालकर उस चटनी से ही रोटी खा लेते थे। आज यह वृतांत ४५ साल पहले का सत्यता पर आधारित है। पहले लोगों के पास पैसा नही होता था। बहुत गरीबी में दिन गुजरते थे। उस समय का नाश्ता सेंव-परमल होता था उसके लिए भी बच्चे तरसते थे। हरे धनिये की चटनी,आलू चूल्हे में भारकर उसमें लसन पीस कर लाल मिर्च व नमक डालकर दूसरी चटनी बनाते थे। बैंगन का भुर्ता, का उपयोग उस समय किया जाता था। एक समय दाल तो एक समय सब्जी ही बनती थी। चने की आलनी भाजी इसमे केवल खड़ी मिर्ची, इमली, ज्वार का आटा नमक डालकर उसका उपयोग गर्मी के समय करते थे। कच्ची केरी के आम्लये काटकर सुखा लिए जाते थे उसकी प्याज के साथ शब्जी बनाते थे वह भी टेस्टी लगती थी।थूली, चावल कड़ी व आलू-बैंगन की सब्जी भाणे भरते थे तब बनाये जाते थे। जिन्हें पकवान माना जाता था।
रोटी बचने पर सुखा ली जाती थी उसका राबड़ा बनाया जाता था, गुड़ डाल कर। उस समय मे गेहूं की बजाय ज्वार या मक्का की रोटी ही खाने को मिलती थी। गेहूं की रोटी तो यदा-कदा। उसी में बच्चे खुश हो जाते थे। दशहरा पर्व पर नए कपड़े पहनकर गली-मोहल्ले में ३ – ४ चक्कर लगाकर बार-बार कभी अपने कपड़ों की तरफ देखते थे तो कभी लोगों की तरफ। यानी हमने नए कपड़े पहने है ये बताना चाहते थे।
खेलों में दड़ीमार, घोड़ी बनना, अंठी खेलना, अंग-बंग -चौक-चंग, नक्का मुठ, चोर-सिपाही, ठीकरी जमाना, भंवरी घुमाना, गुल्ली-डंडा खेल चला करते थे। तीन लोगों की सुटकी भी दबे पांव हम देखने जाते थे दद्दा यानि हरीसिंग बा, नाना काका हम्माल, और अंजुमन का आटा मांगने वाले पठान बाबा एक छोटी सी बिना छत वाली खोली में बैठकर चिलम भर उसमें एक काली गोली रखकर पीते-पीते धुंआ छोड़ते हुए जैसे ही सुट्ट करते थे तो वह गोली चिलम से उछलकर वापस चिलम में बैठ जाती थी। ऐसा तीनो लोग बारी-बारी सुटकी लगाते थे, चूंकि हम जितने भी दोस्त होते थे सभी को सुटकी देखने का शौक रहता था, ऐसे में आवाज होने पर दादा गाली …….. देते हुए जैसे ही उठते वैसे ही हम भाग जाते थे। तो खूब मस्ती भरा जीवन होता था उस वक्त। बाबू महाराज के खेत पर आम के कुछ पेड़ बनेडिया रोड पर थे उस पर चढ़कर गुलाम डाला खेलने जाते थे। पेड़ के तने में खोह भी होती थी जिसमे मिट्ठू के बच्चे रहते थे उन्हें पकड़ कर ले आते और हां गुलाम डाला खेलते वक्त कभी-कभी पेड़ से नीचे भी गिर जाते थे तो किसी का हाथ या किसी का पैर भाग जाता था यानि टूट जाता था तो जमादार बा या रऊफ बाबा बांस की चिपट व लेप का उपयोग कर पट्टा बांध देते थे। कई दिनों तक गले मे पट्टा लगाकर हाथ का वजन ढोते थे।
अब आते है हम छोटी किराए की साइकिल के बारे में बात करें– मोहन दादा सोनी, निराला पेलवान और नहार भिया की साइकिल की दुकान से किराए पर ले जाते थे। घाटी पर से बार-बार उतारकर चलाते व सीखते भी थे। फिर दोस्तों के सामने शान से तनकर गाड़ी चलाते, कभी-कभी घाटी से गाड़ी उतारते समय गड़ी फिसलकर गिरा देती हाथ की कोहनियों या पैर के घुटनों में रगड़ लगकर खून निकल आता था तो रगड़ वाली जगह पर धूल लगा कर चल देते थे या माचिस की डिब्बी के मसाले की चिकती लगा लेते थे, यही हमारा उस समय का इलाज था। फिर समय तो मालूम नही होता था। काफी देर तक साइकिल चलाने के बाद दुकानदार के सामने से इस सोच के साथ कि समय हो जायगा तो नहार भिया बुला लेगा, तीन-चार बार गाड़ी निकालने पर नहार भिया आवाज देकर बकते थे, ए समय हो गया रे तेरा। बस साईकिल जमा और वापस घर। थककर चूर। बकरी के दूध की चाय पीकर फिर तरोताज़ा। तो ऐसी मस्ती भरी जिंदगी जीते थे उस वक्त।
फिर पढ़ाई बुड्ढे माड़साब अब्बा जी के यहां– चलो लिखो इमला… क्यों रे इब्बन सीधा नी बैठेगा सु.. र…। लाव बरु और दवात दोनों लाइन पर लिखना बड़े-बड़े गोल अक्षर। जितनी गलती उतने रूल….
एक बरगद का पेड़ था, उसके नीचे लोग हमेशा बैठे रहते थे। वे हमेशा तंदुरुस्त रहते थे।
सांस की बीमारी वाला भी वहां ठीक हो जाता है… असोक्या के मन मे हमेशा कुछ न कुछ चलता ही रहता था। इमला जल्दी लिखकर हरबंसो (बंसो) से कहता -“ए बंसो एक गीत सुनाऊँ, तो वह जानती थी उसे एक गीत ही सुनाता था तो वो कहती ए उषा तेरे भाई को समझा ले नही तो सर से कह दूंगी। बहन के कहने के कुछ समय बाद गीत चालू कर देता था-“आओ बच्चों तुम्हे दिखाऊँ दाड़ी है सरदार की, इस दाड़ी में जुएं भरे है गिनती डेड़ हजार की अ………
बुड्ढे माड़साब-“सुवर के बच्चे इधर आ”, और दो रूल मजा ला देते……थोड़ी देर बाद मनोरमा-मनोरमा कहां गई थी, कुत्ते की झोपड़ी में सो रही थी, कुत्ते ने लातमारी रो रही थी…….तू नी मानेगा -“चल मुर्गा बन जा सुवर कही का. …दो रूल के बाद मुर्गा…..ऐसे मजे आते थे। नियमित स्कूल जाना,पढ़ना, व्यायाम, खेल कूद, फिर वार्षिकोत्सव, साहित्यिक गतिवि धियों में गोस्वामी तुलसी दास जी की जयंती-रत्ना वली वाला कड़ा प्रसंग, फिर प्रकार की अनेकों जयन्तियां मनाना। सांस्कृतिक आयो जन के तहत नृत्य नाटक, बहुरूपिया (फैंसी ड्रेस) के आयोजन, क्रीड़ा के अंतर्गत दौड़, निम्बू चम्मच रेस, स्लो सायकिल रेस, थैला दौड़, तीन टांगदौड़, चेयररेस, कबड्डी, खो-खो आदि प्रतियोगिताओं के बाद पुरस्कार पाकर बहुत खुश होते। दादाजी बडी शान से पोते की तारीफ साथियों के बीच करके गर्व से सीना फूलाने लग जाते थे। दादी भी बहुत खुश होती। २, ३ पैसे घर पर इनाम में मिलते। बड़ा आनंद आता था। फिर पूरी तरह भीड़ जाते थे पढ़ाई में। रिजल्ट में सर बताते थे कि जा तू पास। खुब मस्ती से दौड़कर दोस्तो को बताते मैं पास हो गया देख। कोई मजाक में कहता तू तो फैल है, देख ये लिखा ….तो जवाब देते बेटा… पास हो गया हूँ। सनस साब और गन्धी साब ने बताया है। कहते हुए अन्य दोस्तों के रिजल्ट देखने के बाद कुछ बातें फिर सीधे बहुत खुश होकर दादी व मम्मी के पास …….उस समय शासकीय स्कूल ही हुआ करते थे इक्का-दुक्का कोई अशास कीय विद्यालय होते थे, लेकिन आज गाजरघास की तरह उग आए है गली-गली में स्कूल।
उस समय सरकारी स्कूलों में पढ़े हुए विद्यार्थी आज आईएएस, आईपीएस, और कईं बड़े पदों के साथ छोटे पदों पर भी बैठे हुए है। उस समय की गतिविधियां, पढ़ाई, खेलकूद, जीवन जीने की कला, सामान्य ज्ञान, प्रेम, स्नेह, आपसी मेल-मिलाप, अड़ोसी-पड़ोसी से सम्बन्ध सारी बातें आज से ४५ वर्ष पूर्व जो हुआ करती थी वो आज के इस इलेक्ट्रॉनिक युग मे कहाँ ! पहले बच्चे माता-पिता के इशारे, संकेत समझ लिया करते थे। आजकल बच्चों के इशारे पर माता-पिता …….