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चाय की चुस्की

राजेश गुप्ता
तिबड़ी रोड, गुरदासपुर

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  चाय के प्यालों की भाप ने सम्पूर्ण कमरे में एक अलग ही तरह का वातावरण निर्मित कर दिया है। कमरे के चारों तरफ मध्यवर्गीय चाय की महक आ रही है।दोस्तों की महफिल सजी है।
“छोटे-छोटे शहरों में बसे लोगों की एक अजीब-सी दास्तान है, रहते तो ये छोटे शहरों में हैं परन्तु सपने इनके बहुत बड़े-बड़े होते हैं ”एक दोस्त ने कहा।
“छोटे शहरों में रह कर बड़े-बड़े काम कर जाना कोई आसान बात नहीं होती “फिर दूसरे दोस्त ने बात आगे बढ़ाई।
“बड़े-बड़े सपनों वाले छोटे शहरों के नागरिक साधनों और संपर्कों की कमी के कारण पिछड़ जाते हैं, चाहे वो शिक्षा हो, कारोबार हो या फिर कला का कोई भी क्षेत्र, वे प्राय: योग्य होने के बावजूद भी पिछड़ जाते हैं भूमंडलीकरण के इस विस्तारवादी दौर में हर कोई उन्नति करना चाहता है “पहले दोस्त ने फिर कहा।
“कला के पक्ष से देखें तो प्रत्त्येक कलाकार एक बड़ा दायरा चाहता है जिस में उसे ज्यादा से ज्यादा लोग जाने, उस की कला का लोहा माने, उस की कदर करें, उसका आदर करें सत्कार करें “दूसरा दोस्त फिर बोला।
“कारोबार हो तो हर कारोबारी चाहता है कि वह अच्छे और उत्तम ढंग से अपना काम करे, बहुत सारा धन अर्जित करे पर वह कहीं न कहीं अपने ग्राहकों को पूर्णता सन्तुष्ट करने में सफल नहीं हो पाता।”
“यह बात तो ठीक है“ एक दोस्त की बात सुनकर दूसरे एक दोस्त ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा।
“छोटे शहरों में ग्राहक अक्सर व्यापारिक दॄष्टि से सन्तुष्ट नहीं हो पाता। वहीं कारोबारी लोग भी बहुत तरह की समस्याओं से जूझते रहते हैं।“
“अच्छा“ एक दोस्त ने हामी भरते हुए कहा और चाय का कप खाली कर सामने पड़े मेज पर रख दिया पर चर्चा अभी भी जारी थी। सब दोस्त एक दूसरे की बात का समर्थन कर रहे थे।
“बड़े शहरों में कारोबार ज्यादा होने के कारण व्यापारिक संस्थान बड़ी कंपनियों के पेट भरने में सक्षम होते हैं। वहीं दूसरी ओर छोटे शहरों में काम कम होने के कारण कारोबारी कंपनियों के पेट भरने में अक्षम ही रह जाते हैं, जिस कारण वे लोग शोषण का शिकार हो जाते हैं क्योंकि कंपनियाँ तो अक्सर व्यापारिक दृष्टिकोण से ही बात करती हैं। उनको तो अधिक से अधिक काम की आवश्यकता होती है। छोटे शहरों के कारोबारी लोग काम कम होने के कारण उनके तय टारगेट को पूरा नहीं कर पाते, हालाँकि कम्पनियाँ छोटे-बड़े शहरों की जानकारी तो रखतीं हैं परन्तु जब बात बिक्री की आती है तो वह अपनी पॉलिसी में लचीलापन कम ही लेकर आती हैं।“
“हूँ“ उनमें से किसी दोस्त ने फिर हामी भरी, बात अभी भी जारी थी।
“बिक्री के मामले में वे अक्सर छोटे-बड़े शहरों को एक ही नज़र से देखती हैं। अक्सर कम्पनियाँ छूट यानि रीबेटस बड़ी ख़रीद पर ही देती हैं, जिस कारण छोटे शहर कम बिक्री के कारण इस दौड़ में पिछड़ जाते हैं क्योंकि वे कम्पनियों के द्वारा दिये हुए टारगेट पूरा नहीं कर पाते। इसी कारण वे लोग कई तरह के रीबेटों से वंचित रह जाते हैं। यह ही बनता है उनके पिछड़ने का मुख्य कारण “वार्ता अभी भी जारी थी।
“हूँ“ कमरे के दूसरे कोने से आवाज़ आई।
“इसी कारण छोटे शहरों के कारोबारी बड़े शहरों के पिछलग्गू बन जाते हैं और उन लोगों से सामान खरीदने के लिये मज़बूर हो जाते हैं क्योंकि बड़े शहरों के कारोबारी छोटे शहरों के कारोबारियों से ज्यादा बिक्री करते हैं। इसी कारण बड़े शहरों के कारोबारी कंपनियों से ज्यादा लाभ यानि रीबेट्स लेने में सफल हो जाते हैं जिसके कारण वे छोटे शहरों के कारोबारियों को अपने पीछे लगा लेते हैं क्योंकि छोटे शहरों के कारोबारियों को जो सामान कंपनी से दस रुपये में मिलता है वही बड़े शहर का व्यापारी उसे आठ या नौ रूपए में दे देता है। इसी कारण छोटे शहर का कारोबारी बड़े शहर के कारोबारी के पीछे लगने को मज़बूर हो जाता है इसलिये वे ज्यादा उन्नति नहीं कर पाते।“
“बात तो ठीक है और पते की भी“ उनमें से किसी ने कहा।
“परन्तु इस बात का हल क्या है” फिर एक आवाज़ आई ।
“हल तो यही है कि कंपनियों को छोटे-बड़े शहरों के अंतर को समझना चाहिए जिस से छोटे शहर भी अपनी स्वाभाविक उन्नति की ओर अग्रसर हो सके। उनको शहरों की आबादी के अनुसार ही लक्ष्य तय करने चाहिए ताकि उनको भी बड़े शहरों के बराबर लाभ मिले और वो भी तेज़ गति से उन्नति करें ताकि उनको किसी भी मंदी का सामना न करना पड़े।”
“बात तो बिल्कुल ठीक है “एक साथ कई दोस्त बोले।
“बहुत गंभीर विषय है श्रीमान” पहले वाला दोस्त फिर बोला।
चाय अब तक खत्म हो चुकी थी। चाय का दूसरा दौर फिर शुरू होने को था क्योंकि रसोई से चाय बनने की महक आ रही है। उन दोस्तों में से एक जाकर चाय ले भी आया है। चाय में पड़ी हरी इलायची की सुगन्ध ने संपूर्ण कमरे के भीतर एक दिलकश महक बिखेर दी है।कमरे के भीतर चाय पीने की सर्र–सर्र की आवाजें आ रही हैं।
“बात तो ठीक है, इसी तरह शिक्षा में भी ले लो, छोटे शहरों के विद्यार्थी शिक्षा के नाम पर शोषण का शिकार हो रहे हैं” उनमें से एक दोस्त बोला उसकी बात अभी जारी थी।
“छोटे शहरों के बच्चे शिक्षा तो अच्छे ढँग से हासिल करते हैं परन्तु जब कभी यही बच्चे किसी उच्चस्तर की परीक्षा में भाग लेते हैं तो ये तय लक्ष्य को छू नहीं पाते हैं। शिक्षा और पुस्तकें तो एक ही होती हैं परन्तु प्रतियोगिताओं में छोटे शहरों के मेधावी छात्र भी पीछे रह जाते हैं। बड़े शहरों में कई कोचिंग सेन्टर खुले हुए हैं जो लोगों से मोटी रकमें वसूल कर प्रतियोगिताओं की तैयारी करवाते हैं पर इतना खर्च उठाना हरेक के बस की बात नहीं होती है।”
“कोटा, दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे बड़े-बड़े शहरों में इनके शिक्षा-संस्थान चलते हैं जिन्हें कोचिंग-सेन्टर के नामों से जाना जाता है जोकि अभिभावकों से ढेरों धन वसूल कर बच्चों को प्रतियोगिताओं की तैयारी करवा रहे हैं। उनके विधार्थियों का पास होने का अनुपात उन मुकाबलों में भी ज्यादा है जैसा कि वे लोग प्रचार माध्यमों से प्रचार करते हैं “एक और दोस्त ने कहा।
“लेकिन छोटे शहरों के बहुत कम बच्चे ही उन तक पहुंच पाते हैं क्योंकि बहुत सारी बातें इसमें अपनी-अपनी भूमिका अदा करती हैं, जिस कारण छोटे शहरों की पहुंच उन शहरों तक कम हो जाती है क्योंकि छोटे शहरों के लोग बड़े शहरों की चकाचौंध से, उनकी बिंदास जीवन-शैली से घबराते हैं, उन को उस माहौल में अपने बच्चों के बिगड़ने का भय होता है, उन का नशे में लिप्त होने का भय सताता है। इन्हीं कुछ बातों के कारण छोटे शहरों के लोग अपने बच्चों को बाहर भेजने से डरते हैं”फिर पहला दोस्त बोला।
“सही है, उन शहरों का महंगा होना भी एक कारण है, हर कोई इस खर्च को सहन नहीं कर सकता परन्तु यह सोचने वाली बात है कि शिक्षा और किताबें तो वही हैं लेकिन कंपीटीशनों का तानाबाना ही इस तरह से बुना जाता है कि बड़े शहरों के बच्चे उसे पास कर लेते हैं लेकिन छोटे शहरों के बच्चे पिछड़ जाते हैं कुछ एक को छोड़ कर “फिर दूसरे दोस्त ने कहा।
“सरकार शिक्षा के इस अन्तर को समझती क्यों नहीं है, क्यों नहीं वह छोटे और बड़े शहरों के अन्तर को खत्म करती है, क्यों नहीं वह सम्पूर्ण देश की शिक्षा-प्रणाली को एक जैसा करती, क्या वजह है कि सरकारी स्कूलों में बड़ी–बड़ी डिग्रियां लेकर और ढेरों वेतन लेने के बावजूद भी अच्छे नतीजे नहीं आते, कुछ एक को छोड़ कर “यह एक तीसरा ही दोस्त कह रहा था। बात अभी भी जारी थी।
“उधर दूसरी ओर प्राइवेट स्कूल कम शिक्षित लोगों को लेकर कम वेतन देकर भी अच्छे नतीजे दे रहे हैं”
“इस पर वाक्या ही सोचने की जरूरत है” चौथे दोस्त ने कहा। सब दोस्त इन बातों से सहमत लग रहे थे। पहले कभी-कभार वे लोग राजनीति पर बात करते-करते बहसने लगते थे, लेकिन इस बात पर सब लोग सहमत लग रहे थे।
“इसी अंतर के कारण कई बार छोटे शहरों के मेधावी बच्चे योग्य स्थान से वंचित रह जाते हैं, यह तो देश के विकास लिये भी अच्छा नहीं है, देश की जो सेवा वो बड़े स्तर पर कर सकते हैं वे नहीं कर पाते हैं “कमरे में से एक और दोस्त की आवाज़ आई।
“विद्या के स्तर को सुधारने के लिये और उसको सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिये, उच्चस्तर के प्रशासनिक कार्यकर्ताओं की खोज करनी होगी जोकि स्कूल और कालेजों को चला सकें और जिन का स्तर आईएएस के स्तर जैसा हो और जिन का उद्देश्य देश के भीतर सिर्फ और सिर्फ शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने का हो और देश में योग्य व्यक्तियों को आगे लाने का हो। सरकार को देश में ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिससे कि जब भी कोई विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर के निकले उसे तुरन्त नौकरी मिलनी चाहिए यह सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार को लोगों को मुफ्त सामान देना, सब्सिडी देना या फिर आरक्षण देने की बजाय उनको रोजगार देकर आत्मनिर्भर बनाना चाहिए न कि भिखारी या फिर किसी की दया के पातर “कमरे के दूसरे कोने से एक और दोस्त की आवाज़ आई।
कमरे का वातावरण एकदम उच्चस्तर का हो गया था। कमरे के भीतर यूँ प्रतीत हो रहा था जैसे देश को चलाने वाले लोग बैठें हो। लेकिन अफसोस उनके पास सिवाय सलाहों के कोई और अधिकार न था और शायद जिनके पास अधिकार है उनके पास इस तरह की सलाहों के लिए समय ही नहीं है। वो तो अपने ही ……..? दोस्तों की मीटिंग रोज की तरह आज फिर चाय के साथ खत्म हो गई है। सब अपने-अपने काम पर जाने के लिए तैयार है। कमरे के अंदर उन सब दोस्तों की उच्चस्तर की सलाह-मशवरे वैसे ही चाय के खाली कपों से आ रही दुर्गन्ध को सूँघ रही है और बाहर सड़क पर चुनाव-प्रचार की काँव-काँव ने शोर मचा रखा है। देश के लोग रोज सोच-विचार करते हैं और अपनी सलाह-मशवरे एक-दूसरे के साथ सांझा करके उनको अपने साथ ही लेकर सो जाते हैं और हर पाँच वर्ष बाद अपना वोट डालने का नैतिक-फर्ज़ भी अदा कर आते हैं। उनको यही अहसास करवाया जाता है कि उनकी इतनी ही जिम्मेदारी है।

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परिचय :-  राजेश गुप्ता  तिबड़ी रोड, गुरदासपुर


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