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हर श्वांश गरजे सम सिंह
कविता

हर श्वांश गरजे सम सिंह

सुरेश चंद्र भंडारी धार म.प्र. ******************** ओ भगवाधारी, है कहाँ तुम्हारी हुंकारें, हिंदुत्व कहाँ, हैं कहाँ गतुम्हारी तलवारें। सिहासन सौंपा था कि कुछ बदलाव मिले, अफसोस सदा, हमको घावों पर घाव मिले। विधर्मीयो से लड़ते हुवे गुर्राए झल्लाये थे, हिन्दू सलामत रहे, योगी मोदी चिल्लाए थे। हिन्दू हितेषी हो, सपना हमने दिन में देखा था, आज़म अखिलेश को सत्ता से बाहर निकाला था। शिव गणपति की यात्रा पर, नित नए हुड़दंग, हिन्दू इस सरकार में, रहता है हरदम तंग। आँखे बंद, विश्वाश हम उनका करने लगे, पुण्य धरा, प्रतिबंधित तिरंगा, अब तो जागे। दिन के उजाले में, कमलेश का संहार किया, भरोसा जितने में, अहो, कैसा उपहार दिया। हत्या नहीं, धब्बा है हमारी हिन्दू अस्मिता पर, जय श्रीराम, उद्घोष जड़वत, मौन आत्मा पर। दम्भ भरने वाले, स्वयंभू रक्षक, आज है मौन , तुम्हारे रहते, कलंकित कर्म, करने वाले है ये कौन । कहते है...
स्मृतिया
कविता

स्मृतिया

********** सुरेश चंद्र भंडारी धार म.प्र. आओ याद करे कुछ यादें खट्टी मीठी सी मनमौजी रीती इठलाती अलबेली जैसी।। जो तन मन जीवन अंतर्मन महकाती है, चुपके से कानो में कुछ कह जाती है।। यादें जब निकल चली गलियारों में, खिला हुआ बचपन चौतरफा राहो में। यादगार पल मिल जाते भावनाओ में, हकीकत गुजर जाती है उलाहनों में।। ये समय तो हरपल चलता रहता है उषा और संध्या में तो उगता ढलता है। मन भी तो पंख लगाकर उड़ जाता है, जो कुछ यूं ही पल दर पल छलता है।। वक्त जो बीत गया फिर नहीं आएगा, अतित तो स्मृतियों में ही रह जायेगा। मुड़कर देखोगे जब पीछे कह जायेगा। हाँ मन तो तब व्याकुल हो पछतायेगा।। हम स्मृतियों में यूँ क्यों खो जाते है, वर्तमान पर यूँ क्यों सिसक जाते है। भाग्य भरोसे यूँ क्यों स्वयं को भूल जाते है। प्रबल पुरुषार्थ पर यूँ क्यों रोते जाते है।। स्मृति के स्वर्णिम पल आंखे खोलो देखो, करो अंगीकार सुखद सलोने वर्त...