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Tag: संजय वर्मा “दॄष्टि”

एक और एक ग्यारह
कविता

एक और एक ग्यारह

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** एक और एक ग्यारह होते ये है गणित का मामला दो और दो चार होते ये है प्यार का मामला नौ और दो ग्यारह होते ये है भागने का मामला एक और दो बारह होते ये हे बजने का मामला एक और एक ग्यारह होते ये है एक पर एक का मामला तीन और पांच आठ होते ये है बड़बोलेपन का मामला दो और पांच साथ होते ये है साथ फेरों का मामला प्यार करने वाले साथ होते ये है दिलों का मामला ऊपर वाला के संग होते ये है भक्ति भाव का मामला सांसों के साथ जब होते ये है जिन्दा रहने का मामला . परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्त...
हमे बचालो
कविता

हमे बचालो

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** धरती पर पड़ी नववर्ष की पहली किरण ओस की बूंदो के आइने में अपना आकार देख कह रही - ओस बहन तुम बड़ी भाग्यवान हो जो कि मुझसे पहले धरती पर आ जाती हो तुम्हे तो घास बिछोने और पत्तो के झूले मिल जाते है । मै हूँ की प्रकृति /जीवों को जगाने का प्रयत्न करती रहती हूँ किंतु अब भय सताने लगा है फितरती इंसानो का जो पर्यावरण बिगाड़ने में लगे है और हमें भी बेटियों की तरह गर्भ में मारने लगे है आओ नव वर्ष की पहली किरण औंस की बूंद और बेटी हम तीनों मिलकर सूरज से गुहार करें हमे बचालो। . परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशि...
पतंग
कविता

पतंग

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** आकाश में उड़ती रंगबिरंगी पतंगे करती न कभी किसी से भेद भाव जब उड़ नहीं पाती किसी की पतंगे देते मौन हवाओं को अकारण भरा दोष मायूस होकर बदल देते दूसरी पतंग भरोसा कहा रह गया पतंग क्या चीज बस हवा के भरोसे जिंदगी हो इंसान की आकाश और जमींन के अंतराल को पतंग से अभिमान भरी निगाहों से नापता इंसान और खेलता होड़ के दाव पेज धागों से कटती डोर दुखता मन पतंग किससे कहे उलझे हुए जिंदगी के धागे सुलझने में उम्र बीत जाती निगाहे कमजोर हो जाती कटी पतंग लेती फिर से इम्तहान जो कट के आ जाती पास होंसला देने हवा और तुम से ही मै रहती जीवित उडाओं मुझे ? मै पतंग हूँ उड़ना जानती तुम्हारे कापते हाथों से नई उमंग के साथ तुमने मुझे आशाओं की डोर से बाँध रखा दुनिया को उचाईयों का अंतर बताने उड़ रही हूँ खुले आकाश में क्योकि एक पतंग जो हूँ जो कभी भी कट सकती तुम्हारे हौसला ...
अफवाएं
कविता

अफवाएं

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** हर साल दिसम्बर माह में धरती के ख़त्म होने अफवाह दूसरे देशो से उड़ाई जाती है। दिसंबर २०१२ पर तो फिल्म भी बन चुकी है। क्षुद्र ग्रह, पृथ्वी से टकराने की बाते ज्यादा उड़ाई जाती रही। ग्रह पृथ्वी की कक्षा आते ही जल जाते है। खगोलीय घटनाओं को पकड़ने वैज्ञानिक पहले से सतर्कता बरतते है। कुछ लोगो का काम ही अफवाएं फैलाना है। अफवाओं पर ध्यान न दे कर खगोलीय विधा रूचि लेवे तो ये ज्ञान -विज्ञानं में वृद्धि में करेगा ...।   अफवाएं भी उडती/उड़ाई जाती है जैसे जुगनुओं ने मिलकर जंगल मे आग लगाई तो कोई उठे कोहरे को उठी आग का धुंआ बता रहा तरुणा लिए शाखों पर उग रहे आमों के बोरों के बीच छुप कर बेठी कोयल जैसे पुकार कर कह रही हो बुझालों उडती अफवाओं की आग मेरी मिठास सी कुहू-कुहू पर ना जाओं ध्यान दो उडती अफवाओं पर सच तो ये है की अफवाओं से उम्मीदों के दीये नहीं...
दबी आवाजे
कविता

दबी आवाजे

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** आवाज कौन उठाए समस्याओं के दलदल भरे हर जगह रोटी कपडा मकान का पुराना रोना जिस रोने के गीत वर्षो से गा रहे गुहार की राग में भूखे रहकर उपवास की उपमा ऊपर वाला भी देखता तमाशे दुनिया की जद्दो-जहद जो उलझी मकड़ी के जाले में फंसी हो ऐसे होने लगी जीव की हालत जिसे नीचे वाला सुलझा न सका वो ऊपर वाले से वेदना के स्वर की अर्जी प्रार्थना के रूप में देता आया धरा पर कौन सुने गुहार जैसे श्मशान में मुर्दे  को ले जाकर उसकी गाथाएं भी श्मशान के दायरे में हो जाती ओझल भूल जाते इंसानी काया की तरह हर समस्या का निदान करना . परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में ...
आधुनिकता निगल गई
कविता

आधुनिकता निगल गई

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** इशारों की रंगत खो क्यूँ गई चूड़ियों की खनक और खांसी के इशारे को शायद मोबाईल खा गया घूँघट की ओट से निहारना ठंडी हवाओं से उड़ न जाए कपडा दाँतों में दबाना काजल का आँखियों में लगाना क्यूँ छूटता जा रहा व्यर्थ की भागदौड़ में श्रृंगार में गजरें, वेणी रास्ता भूले बालों का प्रिय का सीधा नाम बोलने की बातें कुछ खाने पीने के लिए बच्चों के हाथ भेजना साड़ी-उपहार छुपाकर देने की आदते ऑन लाइन शॉपिंग निगल गई हमारे पुराने ख्यालात में प्रेम मनुहार छुपा था नए ख्यालातों को दिखावा निगल गया बैठ कर खाने, पार्को में पिकनिक मनाने के समय को शायद इलेक्ट्रानिक बाजार निगल गया इंसान तो है मगर समय बदल गया या तो समय के साथ हम बदल गए सुख चैन अब कौन सी दुकान पर मिलता हमे जरा बताओं तो सही दिखावा और बेवजह की मृगतृष्णा सी दौड़ में हमारी आँखों से आंसू भाप बनकर चेहरे पर मुस्कान...
धरती का चाँद
कविता

धरती का चाँद

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** दूधिया चाँद की रौशनी में तेरा चेहरा दमकता नथनी का मोती बिखेरता किरणे आँखों का काजल देता काली बदली का अहसास मानो होने वाली प्यार की बरसात तुम्हारी कजरारी आँखों से काली बदली चाँद को ढँक देती दिल धड़कने लगता चेहरा छूप जाता चांदनी की परछाई उठाती चेहरे से घूँघट निहारते मेरे नैंन दो चाँदो को एक धरती एक आकाश में आकाश का चाँद हो जाता ओझल धरती का चाँद हमेशा रहता खिला क्योंकि धरती के चाँद को नहीं लगता कभी ग्रहण . परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक ", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्य...
हिंदी में कार्य ही, मातृभाषा की सही स्तुति होगी
आलेख

हिंदी में कार्य ही, मातृभाषा की सही स्तुति होगी

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** देवनागरी लिपि में ग्यारह स्वर और तैतीस व्यंजन से बनी होती है| हिंदी में वैज्ञानिक भाषा समाहित है।अंग्रेजी भाषा में ये खूबी देखने को नही मिलती।इसमें शब्दों के उच्चारण मुँह के अंगों से निकलते है।जैसे कंठ से निकलने वाले शब्द,तालू से,जीभ से जब जीभ तालू से लगती,जीभ के मूर्धा से,जीभ के दांतों से लगने पर,होठों के मिलने पर निकलने वाले शब्द ।अ, आ  आदि शब्दावली से निकलने वाले शब्द इसी प्रक्रिया से बनकर निकलते है।इसी कारण हमें अपनी भाषा पर गर्व है।आज भी कई स्थानों पर दुकानों के बोर्ड अंग्रेजी में टंगे होते है |हिंदी में लगाने से उनका स्टेट्स कम होता है ऐसा उनका मानना है |नौकरी व्यापार में भी यही हालत है |अंग्रेजी का होना आवश्यक |जबकि शासन हिंदी को शासकीय कार्य में प्राथमिकता देने हेतु हर साल कहता आया है|सोशल मिडिया पर हिंदी के भंडार है किंतु उसक...
“गणित ज्ञान को गाइये” में है सरलता
साहित्यिक

“गणित ज्ञान को गाइये” में है सरलता

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** डॉ  दशरथ मसानिया का संग्रह "गणित ज्ञान को गाइये" शिक्षा की हर बात  की गहरी पड़ताल की जाकर बेहतर तरीके से  अपनी  वैचारिक गणित की रोचकता को सरलता प्रदान की जाकर भावनाएं व्यक्त की है। वर्षो से साहित्य की पूजा करते आ रही डॉ दशरथ मसानिया ने ज्यादातर चालीसा के जरिए के ताने बानों को प्रेरणा स्वरुप ढाला है । समय-समय पर तमाम हो रहे परिवर्तनों पर प्रत्यक्ष गवाह बन के उभर रहे हो | गणित ज्ञान को गाइये की विशेषता है कि वो मन को छूता है और पठनीयता की आकर्षणता में बांधे रखता है | डॉ मसानिया के ह्रदय अनुभव ख़जाने में श्रेष्ठ विचार का भंडार समाहित है जो समय-समय पर हमे ज्ञानार्जन में वृद्धि कराता आया है ।इनको कई पुरस्कार एवं निजी चैनल पर इंटरव्यू शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर समझाइस की विधि के लिए प्राप्त हो चुके का प्रसारण समय समय पर जारी है। लेखन की शैली...
नजदीक
कविता

नजदीक

********** संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) यूँ लब थरथराने लगे तुम जो मेरे नजदीक आए महकती खुशबू जो महका गई तुम जो मेरे नजदीक आए नजरें ढूंढती रही हर दम तुम्हे तुम जो मेरे नजदीक आए प्रेम को बोल भी न बोल पाए तुम जो मेरे नजदीक आए इजहार तो हो न सका प्रेम का तुम जो मेरे नजदीक आए प्रेम के ढाई अक्षर हुए मौन तुम जो मेरे नजदीक आए कागज में अंकित शब्द खो से गए तुम जो मेरे नजदीक आए नींद भी अपना रास्ता भूल गई तुम जो मेरे नजदीक आए कोहरे में छुपा चेहरा जब देखा तुम जो मेरे नजदीक आए अंधेरों ने माँगा उजाला रौशनी देने तुम जो मेरे नजदीक आए प्रेम रोग की दवा देने तुम जो मेरे नजदीक आए . परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाच...
बाराती
कविता

बाराती

********** संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) पहाड़ो पर टेसू रंग बिखर जाते लगता पहाड़ ने बांध रखा हो सेहरा| घर के आँगन में टेसू का मन नहीं लगता उसे सदैव सुहाती पहाड़ की आबों हवा। मेहंदी की बागड़ से आती महक लगता कोई रचा रहा हो मेहंदी। पीली सरसों की बग़िया लगता जैसे शादी के लिए बगिया के हाथ कर दिए हो पीले। भवरें -कोयल गा रहे स्वागत गीत दिखता प्रकृति भी रचाती विवाह। उगते फूल आमों पर आती बहारें आमों की घनी छाँव तले जीव बना लेते शादी का पांडाल ये ही तो है असल में प्रकृति के बाराती। नदियां कल कल कर उन्हें लोक गीत सुनाती एक तरफ पगडंडियों से निकल रही इंसानों की बारात। सूरज मुस्काया धरती के कानों में धीमे से कहा- लो आ गई एक और बारात आमों के वृक्ष तले। . परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन ...
भ्रूण हत्या रोकें
कविता

भ्रूण हत्या रोकें

********** संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) होता था बिटियाँ से घर आँगन उजियारा मौत पंख लगा के आई कर गई सब जग अंधियारा मन ही मन बातें करते मन ढाँढस बंधाता ढूंढे कहाँ यादें उसकी कोई नही याद दिलाता लोग लिंग अनुपात बिगाड़ने मे लगे लड़की ढूंढने में वो दुनिया के चक्कर लगाने लगे क्रूर इंसान भ्रूण हत्या करने जब लगा रोकने हेतु कानून भी अब कुछ सोचने लगा बेटियों के न होने की बातें क्यों नही समझ पाते इसलिए तो भाइयो को हम हर घर में उदास पाते हक बेटी का भी होता क्यों करते भ्रूण हत्याए रोकेंगे मिलकर जब इसे तभी रोशन होगी रिश्तों की बगियाएं . परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचना...
रोटी
कविता

रोटी

********** संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) भूख में स्वाद जाने क्यों बढ़ जाता रोटी का झोली/कटोरदान से झांक रही रख रही रोटी भूखे खाली पेट में समाहित होने की त्वरित अभिलाषा ताकि प्रसाद के रूप में रोटी से तृप्त हो ऊपर वाले को कह सके धरा पर रहने वाला तेरा लख -लख शुक्रिया रोटी कैसी भी हो धर्मनिर्पेक्षता का प्रतिनिधित्व करती भाग -दौड़ भी रोटी के लिए करते फिर भी कटोरदान धरा पर रहने वालों को नेक  समझाइश देता कटोर दान में ऊपर-नीचे रखी रोटी मूक प्राणियों के लिए होती सदैव सुरक्षित दान के पक्ष के लिए रखी एक रोटी की हकदारी से भला उनका पेट कहाँ से भरता ? रोटी की चाहत रोटी को न मालूम रोटी न मिले तो भूखे इंसान की आँखें रोती यदि  रोटी मिल जाए ख़ुशी  के आंसू से वो गीली हो जाती बस इंसान को और क्या चाहिए ऊपर वाले से किन्तु रोटी की तलाश है अमर . परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा...
कहाँ खो गई गोधूलि
कविता

कहाँ खो गई गोधूलि

********** संजय वर्मा "दॄष्टि" शाम को उड़ती धूल में देखता आकाश की लालिमा सूरज की धुँधली छवि सूरज लेता शाम को सबसे अलविदा गाय के गले में बंधी घंटिया सूरज की करती हो शाम की आरती गोधूलि की धूल बन जाती गुलाल धरा से आकाश को कर देती गुलाबी नित्य ये पूजन चला करता वर्षा ऋतु  धूल और सूरज छिप जाते देव कर जाते शयन ये गाँव की कहानी शहरों में धूल कहाँ औऱ सूरज भी कहाँ सीमेंट की ऊंची बिल्डिंग सड़के डामर की कहाँ गाय के गले मे आरती की घँटी गोधूलि का महत्व गाँव मे होता शहरों में तो काऊ महज पढ़ाया जाता गाँव प्रकृति से सजा इसलिए तो सुंदर है सोचता हूँ गॉव जाकर प्रकृती को पुनःपहचानू। परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं मे...
रिश्तों की राह
कविता

रिश्तों की राह

********** संजय वर्मा "दॄष्टि" जिंदगी की राह कुछ ऐसी ही होती जब बेटी का विवाह हो नजदीक पिता की आँखे डबडबाई  रहती मानों आसुंओं का बाँध टूट रहा हो बचपन से पाला पोसा वो अब घर छोड़ कर जाना होता है ये नियम तो है ही किंतु त्यौहार और घर का सूनापन भर जाता आँसू बेटी के न होने पर परिवार का भूख उड़ जाती बहुत कठिन रिश्ता होता है मध्यांतर का पिता ही इस बात को समझता है फिक्र अपनी जगह सही मगर बिछोह उसकी नींद उडाता ख्वाब तो रास्ता ही भूल जाते दिल का टुकडा उस समय जिसकी कीमत नहीं वो बिछड़ जाता है ये विरहता कुछ सालों तक ही अपना अभिनय निभाती फिर भी बेटी तो बेटी है पिता की याद उसे और पिता को बिटियाँ की फिक्र सताती पिता के बीमार होने पर बेटी ही संदेशा देकर हाल पूछती फिर झूटी आवाज दोहराती मै ठीक हूँ तुम अपना ख्याल रखना ये संवेदना बूढ़े होने तक चलती है मायका मायका होता स्वतंत्र तितल...
बरसों बाद  बरसी खुशियाँ
कविता

बरसों बाद बरसी खुशियाँ

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर जिला धार (मध्य प्रदेश) ******************** बरसों बाद  बरसी खुशियाँ कश्मीर के आँगन में केशर की क्यारियों में मधुप मधुर राग सुनाए कश्मीर के आँगन में ह्रदय में चुभते थे कभी भय के शूल वीरान पथ पे रोती थी बर्फीली वादियां कश्मीर के आँगन में सत्तर वर्षो से झांकते मासूम चेहरे सूनी पड़ी झीलों में कश्मीर के आँगन में अविरल बहते आँसू पलायन की गाथा सुनाते थे कभी कश्मीर के आँगन में नई इबारत लिखी सुनहरे सपने हुए साकार खिलखिलाने लगी दूब अब कश्मीर के आँगन में जन्नत महकी केशर सी स्वप्न हुए साकार कश्मीर के आँगन में संजय वर्मा "दृष्टि"   परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - ...
हिंदी भाषा पर गर्व है
आलेख

हिंदी भाषा पर गर्व है

============================= रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" हिंदी में वैज्ञानिक भाषा समाहित है। अंग्रेजी भाषा ये खूबी देखने को नही मिलती। कंठ से निकलने वाले शब्द, तालू से, जीभ से जब जीभ तालू से लगती, जीभ के मूर्धा से, जीभ के दांतों से लगने पर, होठों के मिलने पर निकलने वाले शब्द। इन निकलने वाले शब्द इसी प्रक्रिया से निकलते है। इसी कारण हमें अपनी भाषा पर गर्व है। वर्तमान में अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में से निकालना यानि बड़ा ही दुष्कर कार्य है। सुधार का पक्ष देखे तो हिंदी व्याकरण और वर्तनी का भी बुरा हाल है। कोई कैसे भी लिखे , कौन सुधार करना चाहता है ? भाग दौड़ की दुनिया में शायद बहुत कम लोग ही होंगे जो इस और ध्यान देते होंगे। जाग्रति लाने की आवश्यकता है। जैसे कोई लिखता है कि "लड़की ससुराल में "सूखी "है। सही तो ये है की लड़की ससुराल में "सुखी "है। ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे। बच्चों को अपनी सृ...
चीखें
कविता

चीखें

============================= रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" सड़कों पर पड़े गड्डों को देखकर लगता मानों धरा की त्वचा पर  रिस रहा हो घावों से खून गड्डों में गिर जाते है कई इंसान फिर सन जाती सड़कें खून से और बन जाती ख़बरें हमेशा की तरह सुर्ख़ियों में सड़क अपने घाव ठीक करने का किस्से कहे ? वो इसलिए इंसानों को गिराती है गड्डों में ताकि इंसान अपने घाव को ठीक करने के साथ दिल से निकली बददुवाएं जो होती नहीं सड़कों के लिए होती है जिनका नाम होता है अनाम जो बेसुध पड़ा है कानों में रुई ठोंसें ताकि गिरते पड़ते लोगों की चीखें उन्हें सुनाई न दे   परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं क...
बिटियाएँ ओझल
कविता

बिटियाएँ ओझल

============================= रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" एक तारा टुटा आँसमा से धरती पर आते ही हो गया ओझल ये वेसा ही लगा जैसे गर्भ से संसार में आने के पहले हो जाती है बिटियाँ ओझल । तारा स्वत:टूटता इसमे किसी का दोष नहीं मगर गर्भ में कन्या भ्रूण तोड़ने पर इन्सान होता ही है दोषी । चाँद -तारों का कहना है कि भ्रूण हत्या होगी जब बंद तो बिटियाएँ भी धरती पर से हमें निहार पायेगी चाँद -तारों सा नाम पाकर संग जग को भी रोशन कर पायेगी । आकाश से टुटाता आया  तारा लाया था एक संदेशा - भ्रूण हत्या रोकने का उससे नहीं देखी गई ऊपर से ये क्रूरता । वो अपने साथी तारों को भी ये कह कर आया- तुम भी टूट कर  एक -एक करके मेरी तरह भ्रूण हत्या रोकने का संदेशा लेते आओ । कब तक नहीं रोकेगें क्रूर इन्सान भ्रूण हत्याए संदेशा पहुँचे या न पहुँचे पर रोकने हेतु ये हमारा आत्मदाह है ...
रूहें भटकती
कविता

रूहें भटकती

=============================================== रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" प्यार के हंसीं पल समय के साथ खिसक जाते जैसे रेत  मुठ्ठी से खिसकती निशा विस्मित नजरों  से देखते वो स्थान जो अब अपनी पहचान खो चुके दरख़्त उग आए इमारते  ऊँची हो गई खिड़कियां चिड़ा रही सड़कें हो गई  भूल भुलैया प्रेम- पत्र के कबूतर मर चुके आँखों से ख्वाब का पर्दा उम्र के मध्यांतर पर गिर गया कुछ गीत बचे वो जब भी  बजे दिलों के तार छेड़ गए प्यार के हंसी पल वापस रेत मुठ्ठी में भर गए दिल से ख्वाब हटते नहीं शायद रूहें भटकती इसलिए क्योंकि उन्होंने कभी प्यार का खुमार लिपटा  हो परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचा...
मददगार
कविता

मददगार

=============================================== रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" अस्वस्थता में पहचान होती ईश्वर और इंसान की कौन था मददगार श्मशान के क्षणिक वैराग्य ज्ञान की तरह भूल जाता इंसान मदद के अहसान को फर्ज के धुएँ में सांसे थमी आँखे पथराई रतजगा से आँखों में सूजन अपनों की राह निहारती आँखे झपक पड़ती हुई निढाल सी आवश्यकता का भान मन  बेभान भरोसे का  वजन करने की चाह में ईश्वर और इंसान बन जाते तराजू के पलवे गुहार का कांटा झुकता है किस और किसी को पता नहीं किंतु एक विश्वास थमी सांसों के लिए जो मांग रहा  दुआएँ पीड़ित  की सांसे चलने अपनों की आबो हवा में फिर से साथ जीने का नए  जीवन का अहसास एक आस के साथ खोजता मददगारों को वो ईश्वर हो या इंसान परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्य...
अमर
कविता

अमर

रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" वृक्ष के तले  चौपाल जहाँ बैठकर पायल की रुनझुन बहक जाता था दिल दिल जवां हो जाता था इश्क आज उसी वृक्ष तले चौपाल पर इश्क खोजते विकास के नए आयाम में खुद चुकी चौपाल वृक्ष नदारद धुंधलाई आँखों से घूम हुए का पता पूछते लोग कहते क्या पता? समय बदला घूम हुई पायल की रुनझुन इश्क हुआ घूम पास की टाल में लकड़ी का ढेर कटे  पेड़ की लकड़ी गूंगी हुई लकड़ी निहार रही लकड़ी के टाल से मौत आई उसी इश्क की लकड़ी से जलाया मुझे रूह तृप्त हुई हुआ स्वर्ग नसीब इश्क ऐसे हुआ अमर परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति...
गरज तो है
कविता

गरज तो है

रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि"   गरज तो है  वृक्षो के आसरे की  सौतन गर्मी धरती माँगे  बादलों से उधार  अमृत पानी नदी के पत्थर  तन ढाँकते जल पड़ा हो सूखा बहाती नदी  प्रदूषण को जब  पड़ा हो झोली क्रोधित नदी  ना सहन करती दूषित जल वेग के शस्त्र  बाढ़ के आगोश में  लाशों के ढ़ेर   परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ - मई -१९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक ", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास कनाडा -अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के ६५ रचनाकारों में लेखनीयता में सहभागिता भारत की और से सम्मान - २०१५ , अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्...
बाबुल का घर
कविता

बाबुल का घर

रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" ======================== निहारती रहती हूँ बाबुल का घर कितना प्यारा है मेरा बाबुल का घर आँगन ,सखी,गलियों के सहारे बाबुल का घर लोरी, गीत ,कहानियों से भरा बाबुल का घर | बज रही शहनाई रो रहा था बाबुल का घर रिश्तों के आंसू बता रहे ये था बाबुल का घर छूटा जा रहा था जेसे मुझसे बाबुल का घर लगने लगा जेसे मध्यांतर था बाबुल का घर | बाबुल से जिद्दी फरमाइशे करती थी बाबुल के घर हिचकियों का संकेत अब याद दिलाता बाबुल का घर सब आशियानों से कितना प्यारा मेरा बाबुल का घर रित की तरह तो जाना है एक दिन, छोड़ बाबुल का घर | परिचय :- नाम :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन ) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग ) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार...
गीतों चलन होता अमर 
आलेख

गीतों चलन होता अमर 

रचयिता : संजय वर्मा "दॄष्टि" ===================== गीत  की कल्पना, राग, संगीत के साथ गायन  की मधुरता  कानो  में मिश्री घोलती साथ ही साथ मन को प्रभावित भी करती है। गीतों का इतिहास भी काफी पुराना है। रागों के जरिए दीप का जलना, मेघ का बरसना आदि किवदंतियां प्रचलित रही है, वही गीतों  की राग, संगीत  जरिए  घराने भी बने है। गीतों का चलन तो आज भी बरक़रार है जिसके बिना फिल्में अधूरी सी लगती है। टी वी, रेडियों, सीडी, मोबाइल आइपॉड आदि अधूरे ही है। पहले गावं की चौपाल पर कंधे पर रेडियो टांगे लोग घूमते थे। घरों में महत्वपूर्ण स्थान होता का दर्जा प्राप्त था। कुछ घरों में टेबल पर या घर के आलीए में कपड़ा बिछाकर उस पर रेडियों फिर रेडियों के ऊपर भी कपड़ा ढकते थे जिस पर कशीदाकारी भी रहती थी। बिनाका -सिबाका गीत माला के श्रोता लोग दीवाने थे। रेडियों पर फरमाइश गीतों की दीवानगी होती जिससे कई प्रेमी - प्रे...