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हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा
कविता

हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा

श्रीमती श्यामा द्विवेदी वाराणसी (उ.प्र.) ******************** बड़े तपों से धरती पर आयी हो गंगा! हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? हमने तुमको किया है कलुषित, शुचिता भी कर बैठे दूषित। लज्जित हैं अपनी करनी पर, अब न करेंगे तुम्हें प्रदूषित। बिना तुम्हारे बहुत असंभव है ये जीवन, हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? गौमुख से सागर तक तुम बहती हो गंगा जीवन के पथ को निखार चलती हो गंगा। उद्धार सभी का करें तुम्हारी लहर लहर तन मन को भी शीतल करती हो गंगा। पर उपकार हमें सिखाती रही सदा, क्या हमें छोड़ के यूँ ही चली जाओगी गंगा? ऋषियों की माँ जान्हवी गंगा सागर तक धार प्रवाही गंगा। शिव के जटा जूट की गंगा, स्वर्गातीत भागीरथि गंगा। जीवन के संस्कार तुम्हीं से, पाप रहित व्यवहार तुम्हीं से तुम संस्कृति का भान हो गंगा हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा? अगर गयीं तो नहीं भरेगा कुंभ का मेला, बिना तुम्हारे संगम हो...