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Tag: श्रीमती पिंकी तिवारी

पानी की पुकार
कविता

पानी की पुकार

********** रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी पृथ्वी का सबसे अमूल्य संसाधन हूँ मैं, केवल जल नहीं, जीवन का रसायन हूँ मैं। सूक्ष्म जीव हो या हो स्थूल शरीर, रक्त के रूप में होता हूँ, मैं ही नीर। हिम बनकर पर्वत पर छा जाता हूँ, गहरे भूतल में, सागर मैं बन जाता हूँ। झरने से बहता हूँ, मिलता हूँ नदियों से, जीवन बनकर बह रहा हूँ, पृथ्वी पर सदियों से। बहता हूँ मैं, क्योंकि बहना है प्रकृति मेरी, लेकिन मुझको व्यर्थ बहाना, ये मानव है विकृति तेरी। पृथ्वी की हरियाली ही मेरे प्राणों का आधार है, लेकिन मेरे प्राणों पर ही मनुष्य, किया तूने प्रहार है। केवल जल नहीं, रक्त हूँ मैं पृथ्वी का, जब रक्त ही बह जाएगा, तो शरीर रहेगा किस अर्थ का? समय रहते अपनी भूल को सुधार लो, मुझको बचाकर, जीवन आने वाली पीढ़ियों का संवार लो। . लेखिका परिचय - श्रीमती पिंकी तिवारी शिक्षा :- एम् ए (अंग्रेजी साहित्य), मेडिकल ट्र...
आईना
लघुकथा

आईना

======================================== रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी "भैया प्लीज़ रुक जा ना| मैं अकेला मम्मी-पापा को कैसे सम्हालूँगा? मेरी इंजीनियरिंग का भी आखिरी साल है| प्लीज भैया| "बेरंग चेहरा, आंसुओं को बहने से रोकती हुई ऑंखें, और सूखा कंठ - ऐसी ही स्थिति हो गई थी अखिल की| बहुत डरता था अपने बड़े भाई निखिल से, पर आज जैसे-तैसे हिम्मत करके भैया और भाभी को रोकने की नाकाम कोशिश कर रहा था| पर निखिल और नमिता अपना मन बना चुके थे| उन्हें तो केवल अपने होने वाले बच्चे का भविष्य दिख रहा था| इसीलिये सीधे ना कहते हुए, गलतफहमियों की इमारतें खड़ी करके अलग होने का रास्ता चुन लिया था दोनो ने| निखिल बहुत सुविधाओं में पला था वहीं अखिल जन्म से ही अभावों का चेहरा देख चुका था| इसीलिए अंतर था दोनों की सोच और नीयत में| 'अब तक मैंने सम्हाला, अब तू देख अक्खी ' कहते हुई निखिल ने अपने कदम बढ़ा...
फ़र्ज़
लघुकथा

फ़र्ज़

========================================================= रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी करीब बारह वर्ष की थी गुड़िया।  दादाजी के सभी पोते और पोतियों में सबसे लाड़ली थी वो। "चलो गुड़िया, आज "बड़े-घर" जाना है हमको, बड़ी दादी के पास। उनकी तबियत ठीक नहीं है। "ऐसा कहते हुए दादाजी ने गुड़िया को लाल कपडे में लिपटी हुई एक किताब थमा दी और कहा "इसका एक पाठ बड़ी दादी को पढ़ कर सुनाना है तुम्हें, अब चलो।" "बड़े-घर" में एक चारपाई पर बड़ी दादी लेटी हुई थीं। गाँव के डाक्साब (डॉक्टर) भी बैठे थे। पूरा परिवार बड़ी दादी के पास इकठ्ठा हो चुका था। दादाजी के इशारा करते ही गुड़िया ने किताब खोली और दादाजी के कहे अनुसार उसका अट्ठारहवाँ पाठ पढ़ना शुरू कर दिया। पाठ पूरा होते ही बड़ी दादी ने अपना कंपकपाता हाथ गुड़िया के सिर पर फेरा और आशीर्वचन देते हुए चिर-निद्रा में सो गयी। ये वृतांत गुड़िया के कोमल मन पर गहराई से अं...