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Tag: श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी

चित्रकार
कविता

चित्रकार

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** अद्भुत से हर रंगों से, उसने खूब सजाया है, भर तूलिका में सुंदर रंग, प्रकृति को संवारा है हर गुण अवगुण को लेकर, यह संसार निखारा है। अलग-अलग हैं नाम और रूप, भिन्न-भिन्न परिभाषाएं, चौरासी लाख योनियों में जीवन को भटकाया है देह दृष्टि के कारण ही यह जीवन अनमोल बनाया है, मानव जीवन सबसे सुंदर यह अहसास कराया है। फिर भी हम नादानी में अपने नासमझी कर जाते हैं, अपनी करनी के ही कारण जीवन भर पछताते हैं, कर सेवा हर जीवों की परम आत्मा को पाना है, स्वर्ग यही है नर्क यही है, कर्मो से अपनाना है। एक निरंतर सबके अंदर बाकी सब मिट जाना है, रह सदैव प्रभु चरणों में यह "जीवन, "सुंदर चित्र" बनाना है। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक...
पिताजी
कविता

पिताजी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** सूरज की पहली किरण उगने के पहले, पूजा की घंटियों से जगाते वो "पिताजी थे" सम्पूर्ण वातावरण राम, कृष्ण मय करते, वो "पिताजी थे" जीवों को बचाने में खुद को आहत करते वो "पिताजी थे" ऊंची उड़ान भरते, आंखों मे भविष्य के सपने लिए हमे ना गिरने की चिंता, ना गिर के टूटने का डर, क्योंकि, "पिताजी थे" सपनों को सच करने का हौसला, आसमान की ऊंचाइयों को निर्द्वंद छूने की ललक जगाते, "वो पिताजी थे" जिंदगी की राहें कभी विकट बनी, कभी ठोकर खाई, पांवों को सहलाते "वो पिताजी थे" स्तब्ध हुए, जड़ बन गया शरीर, टूट के बिखरे एक दिन, "वो पिताजी" ही थे कहां से लाते हम, वो हिम्मत वो हौसला उनको समेटने की ताकत? हम दिशा विहीन, किंकर्तव्य विमूढ़ कैसे समेट पाते, "वो पिताजी" ही थे संतान का वियोग, अपनों के ...
तिनका-तिनका जिंदगी…
कविता

तिनका-तिनका जिंदगी…

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** सिमटती रही मरुस्थल जैसी धारा पर मिट्टी के, रेत में लिपटे हुए इस शरीर में सारी खुशियां सारे दर्द मट मैले हो गए पर जिंदगी है तो जहां भी है मन रमता भी है उचटता भी तो है कभी सीलन सी हवाओं में, एक तिनका कहीं पकड़ आता, कभी गुम हो जाता किसी तूफान में तलाशती हूं, फिर भी अपनी सौगातों में कुछ बचे हुए अवशेष, लकीरें बन मिल जाते हैं सहेज लेती हूं इन टुकड़ों को नहीं देख सकती यूं ही व्यर्थ होते एक भी तिनका बेशकीमती हैं .... ये जिंदगी है तिनका-तिनका !! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की...
दीप जलाएं
कविता

दीप जलाएं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** इस दीवाली दीप जलाएं चहुं दिशा प्रकाश फैलाएं तिमिर को नतमस्तक कर, उल्लास का दिया जलाएं, सृष्टि संग मिलकर, सद्भावना का गीत गाएं। सशक्त भावना निहित हो कामना विकास की, चमक उठे वसुंधरा, चमक उठे ये गगन। प्रसन्न जीव जन हों, लगे सुकर्म में सभी, शुद्ध चित्त का निर्माण हो, अथाह स्नेह परिपूर्ण हो, ना छल कपट बढ़े कहीं ना, लोभ भय का वास हो, निराश मन, हताश जन में प्रेम का प्रसार हो। जगत जहां निहाल हो ये सुखमई गीत गाएं, आई दीपावली खुशी मनाएं, हम सब मिलकर दीप जलाएं।। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश) विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक...
ये चांद भी
कविता

ये चांद भी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** ये चांद भी बहुत खूब है ना पर्दा ना घूँघट ना चेहरे की चिंता ना चमक की फिकर कभी करवा चौथ में चमकता, इठलाता कभी ईद में अपनी सुंदरता बिखेरता कभी खुले आसमान की गोद में गर्व से मुस्कुराता कभी ग्रहण में छुप जाता कभी बादलों से अठखेलियां करता सदियों से सुंदरता की परिभाषा बनता वो आज भी निर्मल है, उज्जवल है, मासूम सा है भूल से अगर कही धरती पर आया होता, ना जाने कितने विवादों में फंसता बहुत पहले ही टूट कर बिखर गया होता अदालतों के चक्कर लगा रहा होता वर्ण और जाति के चक्कर में फंस के रह जाता सामाजिक विकृतियों में उलझ कर, बूढ़ा, लाचार झुर्रियों भरा चेहरा बन गया होता शुक्र है वो जमीं पर नहीं है तभी तो सुरक्षित है कविताओं, कहानियों और दादी नानी की लोरियो में ईश्वर रूपी वरदान है इंसान पर "ये चां...
स्याही
कविता

स्याही

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** रंग है तेरा स्याह, पर अद्भुत है तेरी सुंदरता खुद को खुद से सजाती हुई कभी हंसती, कभी रुलाती कभी गुदगुदाती भी है।। हर पल हर काल की साक्षी बनी है तू वर्णित किया है दुनिया का इतिहास, दिया वेद पुराण, महाग्रंथो का ज्ञान।। राम रहीम गुरुनानक ईसा, हर रूप का परिचय कराती कालांतर से तुम।। वीरों की गाथा, रचनाकार की रचना को जीवित किया है, पन्नों पर तुमने।। लोरियां कहानियां, गीत-गजल, को सुंदरता से उकेरती सी, जीवन के नौ रूप नौ रंगों को कारीगरी से उभरती हो तुम।। हर पोथी हर ग्रंथ को दिया है अकल्पनीय रूप तुमने।। ना हो सके अनुभूति जिन भावनाओं की, उनसे भी साक्षात्कार करती हो तुम।। ना मिटा सके कोई अस्तित्व तेरा, "इतना सुंदर अविष्कार हो तुम"!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी प...
तुम हो अपरिभाषित
कविता, भजन

तुम हो अपरिभाषित

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** कारागार में जन्म लिया, गोकुल का ललना बनकर, देवकी मां की गोद मिली, यशोदा मां का मिला दुलार, वासुदेव के तनय बने तुम, नंद के गोपाल कैसे लिखूं!! क्या लिखूं!! तुम तो हो अपरिभाषित, चाहे मैं जितना लिखूं ।। हे नंद के लाल ।। गोपियों के प्रिय बने, राधा के प्रियतम , रुक्मिणी के श्री हो, सत्यभामा के श्रीतम, राक्षसों का वध किया, संसार को निर्मल किया, हर जन जन को मोहित किया, अपना सबकुछ त्याग दिया, कैसे लिखूं !! कितना लिखूं!! तुम रहोगे अपरिभाषित चाहे मैं जितना लिखूं ।। हे नंद के लाल ।। आत्म तत्व के चिंतन तुम, परमेश्वर परमात्मा तुम स्थिर चित्त योगी तुम्हीं, परमार्थ का अर्थ तुम्हीं। नभ जल अग्नि वायु, बनकर प्राण तुम्हीं बन जाते हो, पंचतत्व में विलीन हो, अजर अमर कहलाते हो, क्या लिखूं, कितना लिखूं त...
प्रकृति की गोद
कविता

प्रकृति की गोद

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** फिर से उठ कर धारा को हरियाली से सराबोर करते हैं, आओ चलो प्रकृति की गोद में लौट चलते हैं । इन्हीं से सीखा है जीवन का सार मानव ने पर्वत से ऊंचाई, सागर से गहराई, चांद से शीतलता, सूरज से चमक वायु है प्राण, अग्नि तपाकर सोना बनाती है अग्नि धारा, जल, वायु, जीवन का रहस्य समझते हैं पेड़ों पौधों में भरी हैं खुशगवार जिंदगी को हवा से मिलकर मधुर संगीत सुनाती हैं झरनों नदियों की कल-कल से सुहाने स्वर उभरते हैं, आओ फिर से समंदर की मस्ती भरी लहरों पर चलते हैं बारिश की बूंदों से भी, ऊंचे उठकर धारा पर वापस आना भी सीखते हैं। कैसे कैद कर सकता है कोई प्रकृति की इन मजबूत दीवारों को !! हे मनुष्य मत करो प्रकृति पर प्रहार, मत ध्वस्त करो, ये पर्वत, ये धारा, ये जीव, इनका जीवन मत क्रूर बनो इतना कि हर जीवन सम...
खुशी
कविता

खुशी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दिनों बाद दरवाजे पर दस्तक हुई किसी के आने की, देखा दरवाजे पर खुशी खड़ी है, एक कोना पकड़े हुए, पूछा बड़े दिन बाद आना हुआ, क्या शहर बदल दिया या कहीं दूर निकल गईं मुस्कुरा कर बोली, आती हूं पर शायद मकान का नंबर बदल गया बोला उस से बड़ी मगरूर रहती हो, कुछ तो सीखो अपनी बहन से, वो तो यूं ही चली आती है, परेशानी बनकर रहती भी है, रुकती भी है, साथ रहने का वादा भी करती है जवाब मिला, आती तो हूं मैं भी, रुकती हूं थोड़ा ठिठकती हूं, आहट पर कोई सुनता भी नही, दूर निकल जाती हूं, ये सोचते हुए, शायद तुम्हे मेरी जरूरत नहीं मैं तो रुकती हूं बच्चों की किलकारियों में उनके गीतों में, कभी रुकती हूं दोस्तों की मुस्कुराहटों में कभी बारिश की रिमझिम में, सरसराती ठंडी हवाओं में बांटती हूं खुद को छोटे-छोटे पलों और एहसा...
मेरी वसीयत
कविता

मेरी वसीयत

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** आज मैने मेरी वसीयत लिखी है मेरी वसीयत में कुछ डायरियां, कुछ कलम और मेरे जीवन भर के संस्कार लिखे हैं। वसीयत में मेरी इन्ही संस्कारों का बंटवारा किया है, मैंने प्यार, और खुशियों को जीवों में बांटा है। वसीयत का अर्थ एक है, भले ही पन्ने अनेक हैं, किसी में खुशी तो किसी में थोड़ा दर्द भी बांटा है। किसी पन्ने पर अपनेपन की परिभाषा तो किसी कागज पर मन की व्यथा मेरी वसीयत ही मेरी धरोहर है। इसे रिश्तों में ना बांट कर मासूम "जीवों" के नाम लिखी है, सुना है वसीयत के लिए लोग लड़ते झगड़ते हैं। मेरी वसीयत मासूम जीवों की तरह ही पाक साफ, और निर्मल है, ना झगड़े की जगह ना कुछ खोने का डर। मेरी वसीयत जीवों को जीव से प्यार के बंधन में बांधती है, परिभाषित करती है इस सत्य को कि खाली हाथ आए ...
समय है… गुजर जाएगा
कविता

समय है… गुजर जाएगा

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** मुश्किल वक्त है, गुजर जाएगा फिर से नया सबेरा जगमगाएगा। संयम, धीरज, मानवता की अहमियत समझ हे "मन" विकट, विषम, परिस्थितियां है बहुत ना घबरा "तू",खुद पर भरोसा रख बढ़ चल कर्म के रास्तों पर, आगे बढ़, हर मानवता को जुट कर दे हाथ, ना विचलित हो न डर धीरज की परिभाषा को सार्थक कर आंसू की एक बूंद भी हाहाकार मचा दे समंदर में हिम्मत हौसला हो साथ तो न टिक पाएगा कोई तूफान समंदर में अब से समझ ऐ नादान तू जीवनभर के लिए ना खुद को समय से बलवान समझ ना कर अब नादानियां, प्रकृति के विरुद्ध ना ही आंसू का कोई कण दे उन मासूम जीवों की आंखों में हर जीव के खून का हर कतरा, नासूर बना है आज पूरी दुनिया का, सुना था जिंदगियां बदलती हैं समय के साथ पर अब समझ आया बदलता हुआ समय भी जिंदगियां उजाड़ सकता है पल में अमन, चैन, सैयंम, धीरज ...
मेरे बटुए भर सपने
कविता

मेरे बटुए भर सपने

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** जीवन के कुछ पल मैं जीवन से ही चुराती गई उन्हें अपने बटुए में सहेजती रही ये सोच कर की कभी समय मिले तो उनको सुकून से खर्च करूंगी। बस यही सोच कर, समय और हालत के साथ आगे बढ़ती रही वक्त के साथ बटुए की सियान कमजोर पड़ती रही और मैं समय समय पर उन्हें यूं ही सिलती रही, फिसलते रहे मेरे सपने और समय समय की खुशियां मैं समाचार पत्र की तरह उन्हें सहेजती रही बरसों से सहेजे बटुए को मैने एक दिन जो खोला पूरी जगह तो सूनी और कोरी पड़ी थी वो समय के पल तो कहि थे ही नही जिनको मैं वर्षों से सहेजती आई थी कहां गई वो मेरी संपत्ति जो पाई पाई मैं जोड़ती रही थी? सोचते हुए आईने पर नजर पड़ी, सिर पर सफेद बालों की सफेदी चमक रही थी चेहरे पर इतनी सिलवटें? आईने ने खुद को पहचानने से इंकार कर दिया, पीछे घूम के देखा, कही...
सब ठीक है
कविता

सब ठीक है

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** सब ठीक है, सब अच्छा है थकी हुई हूं पर हारी नहीं हो अभी तक, "थकान" का अर्थ आज जा के समझ आया मीलों चले हैं, मगर थकान" अब जा के हुई है शायद जिंदगी की परिभाषा में ये नया शब्द उभर कर आया है कोई पूछे, थकान क्यूं है? कैसे परिभाषित करूं इस शब्द को!!! कभी कठोर शब्दों की बारिश भी तो थका देती है। बारिश की बूंदें जितना सुकून देती हैं, "थकान" की बूंदें उतनी ही विरक्ति भर देती हैं तपती धूप में कोसों चलता है ये जीवन दर बदर की भटकन को साथ लिए। मगर तब भी न जाने क्यूं "थकान" महसूस नही होती जिंदगी की परिभाषा भी अजीब उलझने पैदा करती है, कभी जन्नत तो कभी थका सा महसूस करती हैं कभी तमाशा बन जाती है तो कभी तमाशबीन की तरह दूर खड़े हो कर खिलखिलाती है उम्र, हालात, समय, बदल जाते हैं, अच्छाइयां इंसान की कमजोरी बन ज...
वो ख़त
कविता

वो ख़त

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** डायरी के पन्नों को पलटते, हमें याद आ गए वो तुम्हारे ख़त कितने महके से हुआ करते थे, वो ख़त, खुशी का खाजाना हुआ करते थे, गहरी नींद से जगा दिया करते थे वो ख़त। जागती आंखों में सुहाने सपने संजोया करते थे वो ख़त!! दिल के हालात और जज़्बात से रूबरू किया करते थे वो ख़त समय की इस दौड़ में ना जाने कहां गुम हो गए वो ख़त, ना वो सपने रहे, ना मीठी नींद भरे सुकून के वो ख़त दूर तक फैली खामोशी, हमसे सवाल करती है कभी-कभी तो बातें हज़ार करती है, कि.. चलो पुराने खतों को फिर से ढूंढते हैं, उन्ही शब्दों को नई पहचान देते हैं, सपने तो अब भी छुपे होंगे उन पन्नों में, कुछ अधूरे, कुछ पूरे, क्या पता फिर से चल पड़ें वो सिलसिलेवार, "वो ख़त"!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म...
नदी
कविता

नदी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** मेरी परिभाषा या परिचय की आवश्यकता नहीं मेरी भी भावनाएं हैं, मै महसूस भी करती हूं मगर आज ये सब अस्तित्व विहीन सा लगता है। बिना रुके बिना थके अविरल चलती रहती हूं पर्वतों, कठोर रास्तों से टकराती, दर्द से कराहती नहीं इठलाती बलखाती सागर से मिलती हूं। जीवन का स्त्रोत हूं, जीने का आधार भी हूं, में। किसी धर्म जाति के बंधन से परे हूं कोई सीमा मुझे बांध नहीं सकती, पूरी दुनियां में अलग नाम अलग रूप हैं मेरे, मुझमें सुख दुख की अनुभूति भी है, गहरी चोट खाती, आहत हूं आज, मगर चुप हूं!!!!!! क्यों कि प्रकृति की देन हूं, जो प्रकृति मेरी 'मां"है। मां ने मुझे हिसाब लेना नहीं सिखाया किन्तु आज मैं संकट में हूं। मैं दुखी हूं !! मेरे आंचल में ही इंसान का अस्तित्व सिमटता है, मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन, उसके सपने, सभी ...
मौत के कारोबारी
कविता

मौत के कारोबारी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** समाज में भरे हैं ये मौत के कारोबारी आतंक का कफन ओढ़े हुए, सुदूर तक हर तरफ गोली और बारूद से सजते हैं नित नए बाजार इनके कौड़ियों के मोल बिक रही इंसानों की जिंदगी अपने ही अपनों के खून के प्यासे हो रहे। इस आतंक" का ना कोई धर्म है ना कोई जाति, ना ही है कोई भगवान या खुदा इनका, ईमान की बातों से ना ही रहा इनका सरोकार। घरों के चिराग बुझ गए इनकी हैवानियत से, सिंदूर धुल गया हर ओर पानी से सिसकियां भी दबी सी सुनाई देती हैं तिनका तिनका पूछ रहा है ये सवाल.... ये इंसान हैं या मौत के कारोबारी ???? परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उ.प्र.) विशेष : साहित्यिक पुस्त...
मासूमियत
कविता

मासूमियत

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** (बेटी को समर्पित) हमने देखी है मासूमियत एक सच की तरह, वो मासूम सी है, स्निग्ध चांदनी सी धवल भी, शक्ल पर नूर सा बिखरा है उसके शुद्ध, शांत और सौम्य सी है। कभी नन्ही, चंचल, अल्हड़पन से घिरी हुई से, कभी कठोर, अटल, अडिग सी आसमान की ऊंचाई को नापती हुई दिखती है, कभी गंभीर, समुंदर की गहराई छुपाए हुए चुपचाप सी उमंग की लहरें भी बेतहाशा दौड़ पड़ती हैं ठोकर भी खाती हैं, वापस भी आती हैं, गिर के उठती भी हैं, सपने कल्पना बनकर आंखों में सजते भी हैं आंख खुली तो वो हकीकत बनकर टूटते भी हैं। फिर भी उसकी मासूमियत जिंदा है उसमे, कल भी थी, आज भी है, मासूम सी ही रहेगी खुद में।। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी....
उतरन
कविता

उतरन

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** स्वयं में गूढ़ अर्थ समेटे हुई है उतरन इसकी उतरन उसकी उतरन, कभी पोशाकों की उतरन कभी विचारों की उतरन। कभी एक अक्स सी उतरती हुई उतरन कभी किसी और के साए में उतरती हुई उतरन सांसों की उतरन, धड़कन की उतरन बोझ से उतरी उतरन। कभी जो समझ सको उतरन की परिभाषा को मरीचिका भी है, वीथिका भी है, गुणों का भंडार है उतरन। गीता की उतरन, रामायण की उतरन, बाइबिल की उतरन, कुरान की उतरन राम से लेकर रहीम मोहम्मद की उतरन पासको यदि कहीं ये उतरन, तो समेट लेना संजो लेना क्योंकि, जिंदगी का सही सार है उतरन।। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उ.प्र.) विशेष : साहित्यि...
परिंदे
कविता

परिंदे

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** उड़ने दो मासूम परिंदो को खुले आसमां में फैलाने दो अपने पंख इन्हें विशाल गगन में इनके कर्म से है बुलंदी इस जहान की ईश्वर भी सिर झुकाए इनके दर पर फड़फड़ाने दो इनके पंख स्वछंद हवाओं में छू लेने दो आकाश की बुलंदियों को इन्हीं से है रोशन हर घर का अंधेरा मत तोड़ो इनकी ऊंचाइयों की डोर मत मसलों इन्हें, मत दफन करो, सुरों के सारे संगीत बसते हैं इनकी चहचहाट में शून्य रह जाएगा ये जहान इनके बगैर क्योंकि,ये "बेटियां" हैं, जिनसे है रोशन जहां सारा। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार) निवासी : लखनऊ (उ.प्र.) विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों ...
सृष्टि
कविता

सृष्टि

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** भोर की नरम घांस पर, पानी की बूंदों जैसी पत्तों पर पलक बिछाए ओस जैसी हूं मैं पेड़ों की छाया में सिमटी हुई सुकून जैसी बादलों में नन्हीं सी धुंधली किरन हूं मैं। पर्वतों को बर्फ के चादर में समेटे जैसी, ठंडी हवाओं की सरसराहट हूं मैं। स्वछंद परिंदों की उड़ान जैसी खेतों में लहराती उमंग हूं मैं। लरजती, इठलाती, खुशी और उल्लास से सराबोर नदी जैसी, सागर की गहरी सहेली हूं मैं। अब तो पेड़ों कि छाओं को ढूंढती, बिन बादलों के गुम सी होती जा रही हूं मैं। सिकुड़ती, सिमटती, उदास सी पहुंच से दूर निकलती जा रही हूं मैं। संभाल लो मुझे, गले से लगा लो, इंद्रधनुषी रंगों से आंगन भर दो मेरा क्योंकि पूरी कायनात की "सृष्टि" हूं ना "मैं" परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुला...
सपने
कविता

सपने

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** बिखरी हैं ज़मीन पर यादों की सारी कतरनें, कुछ ख्वाब रखे थे जाने कहाँ गुम हो गये। तिनका तिनका समेटते रहे इस जहाँ से हम, सपनों के वो खजाने अब कहाँ गुम हो गये। बीते कल में खुद को ढूंढता अपना वज़ूद इस अंधाधुंध भीड़ में कहीं गुम हो गया है। जब तब तनहाई के साये चीखते हैं मुझ पे एक परछाईं सिसकती है बेजुबान सी ढूंढते रह जाते हैं भीड़ में हम भी चेहरे काश कुछ चेहरे अपनापन तो जतलाते। सब सोचता समझता रहा है वज़ूद ये कल भी था और आज भी है। मगर ये हकीकत तो सबको पता है हंसी में भी छिपे रोग छल जाते हैं। यहाँ रोज ही अपने सपने बिखरते, इस जहाँ से चलो हम निकल जाते हैं। . परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी...
मैं भी तो माँ हूँ
कविता

मैं भी तो माँ हूँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** कभी कभी पूजी जाती हूँ, पर्व त्यौहारों में सजाई जाती हूँ। इधर उधर बेमन से घुमाई जाती हूँ, लोग मनोरंजन का साधन समझते है, शांत चित्त मैं सब कुछ करती जाती हूँ। मेरे भी अहसास हैं, सुख के, दुख दर्द के मेरा भी परिवार बसता है। इन सुन्दर कल कल करती नदियों के किनारे हरियाली से भरा मेरा घर जो बहुत सुन्दर था, अब वो उजड़ने लगा है । मेरा तो किसी से बैर नहीं फिर भी हम ना जाने क्यों सताये जाते हैं? आज मैं तड़प रही हूँ, मेरा परिवार भी दुखी है। कभी भूख , कभी बेइंतहा दर्द की मार से कभी मानव के राक्षसी अत्याचार से। इन सबकी अनदेखी से ही मेरे वंशजों की मौत हो रही है। मेरे बच्चे को 'मेरी कोख में ही' मार दिया। दर्द से छटपटाती,कराहती, चीत्कारती भटक रही हूँ इधर उधर मैं। कहाँ हैं वो लोग जो मेरी पूजा करते थे? कहाँ हैं...