निःशब्द रात
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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निःशब्द रात
रात की चादर ओढ़
फिर आइ निःशब्द रात
निर्जन तिमिर भरी राह की रात
दुबके हुए चीखते चिल्लाते
निशाचरों की ये रात !!
ना जाने कहाँ गुम थे चांद सितारे
अंधेरा तैरता हुआ घने बादलों की तरह
फिर भी चल पडी तन्मयता से
ओढ़ कर सन्नाटे की चादर
यादो के दिए कि झिलमिल रोशनी
अम्बर पर टिमटिमाते
आंख फाड़े तारो की रात !
गुम हुए थे ये सारे रात के सहारे
कभी पालकी सजा चलते थे ये हरकारे
चाँद से मिलने के बहाने
सुख दुख को गले लगाने,
जाना है उसपार, जहां से
वापस आना है दुश्वार!
शनैः शनैः ढल रही है रात!!
क्षितिज पर भोर ने दस्तक दी
गहरी नींद से तब मैं भी जागी थी
आप बीती सुना थक गई है रात
गगन में सुनहरे सज रहे हैं तोरण द्वार
निःसतबध कर गुजर गई निःशब्द रात!!
परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्...