ढूँढ रही हैं आँखें किस को
शिवदत्त डोंगरे
पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
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ढूँढ रही हैं आँखें किस को
क्या खोया कुछ खबर नहीं है.
भटकन-तड़पन-बेचैनी है
सब है लेकिन सबर नहीं है।
क्या ऐसा था गुमा दिया जो
जिसको ढूँढ रही हैं आँखें
ग़लत दिशा में हो बाहर की
बाहर कोई डगर नहीं है।
खुद में ही खुद मंजिल अपनी
खुद में ही खुद रस्ता अपना
जो खोया खुद में खोया है
किसी शहर किसी नगर नहीं है।
कैसी तुम को बेचैनी है
पहले खुद में खुद पहचानों
कैसी भी आफ़त हो खुद में
आखिर खुद से जबर नहीं है।
ग़ाफ़िल-सा दौड़े खुद में ही
खुद का कोई होश नहीं है
ज़रा सुकूँ भी पा नहीं पाओ
जो गर खुद में ठहर नहीं है।
कुछ न कुछ तो खोया लगता
कुछ न कुछ असआर ग़लत हैं
या तो ये फिर ग़ज़ल नहीं है
या फिर इसमें बहर नहीं है।
क्या चाहा क्या पा जाओगे
क्या मर्ज़ी का जी जाओगे?
मरे-मरे जीना पड़ता है
यहाँ हौसल...