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Tag: विवेक रंजन ‘विवेक’

समय रास्ता दिखायेगा
कविता

समय रास्ता दिखायेगा

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** समय रास्ता दिखायेगा साँझ ढलती है उसे ढलने दो, नियति छलती है तुम्हें छलने दो। बुझते दीपों और टूटे तारों को सुबह का ख्वाब समझकर दिलों सें पलने दो। चलने दो अपनी राह अपने सपनों को, काँटे बनेंगे फूल इक दिन दर्द खुद मिट जायेगा। ये समय ही नयी सुबह का रास्ता दिखायेगा। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताए...
उनको जगाइये
ग़ज़ल

उनको जगाइये

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** जन्नत का तसव्वुर ना अभी दिल में लाइये, दोज़ख में ही बस प्यार की शम्मा जलाइये। दिल में उमड़ते ज्वार कब रफ्तार पकड़ लें, तूफाँ मचल ना जाये सनम मान जाइये। वक़्त की गिरफ़्त में कैदी हों कब तलक, दिल को तो महका हुआ गुलशन बनाइये। रंजोगम के फैसले किस्मत पे छोड़िये, बस ज़िन्दगी है प्यार, यही प्यार पाइये। क़ाफ़िर तो है हर शख्स जो इंसान बना है, तनहा सी राहों में नये दीपक जलाइये। खोये हुए हैं लोग क्यों गुमनाम से ‘विवेक, ज़रा प्यार से पुकार कर उनको जगाइये। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न ...
विश्व से कर दो दूर कोरोना
कविता

विश्व से कर दो दूर कोरोना

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** विश्व से कर दो दूर कोरोना इतना घातक हुआ संक्रमण, चहुँदिश मानवता का क्रंदन। जन-जन तक अब पहुँच चुका, दूषित विष अणु का संवर्धन। मन बुद्धि संग हैं दंभ से घायल, वायु, पृथ्वी, आकाश, अनल, जल। हमने प्रकृति संग खूब किये छल, कब तक वह रह पाती निश्चल। सीना धरती का चीर ही डाला, बिना नियंत्रण खनिज निकाला। धवल गगन को करके काला, प्राणवायु में भर दी ज्वाला। लज्जा तज दी तोड़ दी माला, थाम लिया मदिरा का प्याला। सुरा-सुन्दरी, जीव निवाला, हमने जाने क्या-क्या कर डाला। सहनशक्ति की भी सीमा है, भले प्रकृति सबकी माँ है। यह विष अणु माँ की माया है, दयादात्रि बस प्रकृति माँ है। अंतर्मन से उद्बोध हुआ है, अब हमको भी बोध हुआ है। कभी न होगी हमसे गलती, हमें बहुत विक्षोभ हुआ है। आत्मग्लानि से भीग उठे हम, निर्दोषों की जान तो लो ना। क्षमा करो माँ ! क्षमा ...
अँधेरी कोठरी में
कविता

अँधेरी कोठरी में

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म .प्र.) ******************** अँधेरी कोठरी में सुकून दे सकते हैं, थोड़े से उजाले मगर उसमें भी फैलते दिख जाते हैं मकड़ियों के जाले। चींटी के संघर्ष का जज़्बा, अपने दिल में रहो सँभाले, ना जाने कब थके पैर के लगे बिलखने कातर छाले। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां...
उनके तो रूबरू
कविता

उनके तो रूबरू

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म .प्र.) ******************** उनके तो रूबरू जश्न चलते रहे, हम अंधेरों में करवट बदलते रहे। आसमाँ इस ज़मीं से कहाँ दूर था, हम खुद को खयालों से छलते रहे। झिलमिलाते हुए चाँद को देखकर, चाँदनी में पिघलकर बहलते रहे। रहबरों की ज़ुबानी सही मानकर, हम कई बार गिरकर संभलते रहे। हमें क्या पता था धुआँ उठ रहा, हम बेखुद से बेबस सुलगते रहे। बेखबर थे सफ़र में मंज़िल से मगर, रौशनी के लिये हम मचलते रहे। हसरतों के आईने यूँ ही देखो विवेक, मुस्तकबिल के जहाँ ख्वाब पलते रहे। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थान...
तभी है होली
कविता

तभी है होली

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म .प्र.) ******************** क्यों ना मन आज इक उड़ती पतंग हो, और उड़ाने की मेरी अपनी उमंग हो। अंग अंग पुलकित तरंग हो, वातावरण में घुली भंग हो। प्रेम, स्नेह अनुराग संग हो, दीवाने दिल मस्त मलंग हों। गाल हों गुलाल, अबीर मय, हर ओर कबीरे का ही रंग हो सब बैरी मिल करें ठिठोली, जीत मनाये मीठी बोली। भोली! याद करे हमजोली। अगर यूँ हो ली? तभी है होली। अगर यूँ हो ली? तभी है होली।। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर...
संग लिखा काँटों में पलना
कविता

संग लिखा काँटों में पलना

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म .प्र.) ******************** फूल तेरी तक़दीर भी क्या है, संग लिखा काँटों में पलना। चढ़ते हो देवों के सर पर, पड़ता शव के साथ भी चलना। हँसी खुशी के मेलों से भी, गले मिला करती तनहाई। तुम बनने जाते वरमाला, जहाँ कहीं बजती शहनाई। सजते हो सेहरे में लेकिन सेज पे तो पड़ता है कुचलना। फूल तेरी तक़दीर भी क्या है, संग लिखा काँटों में पलना। बिखराते हो रंग खुशी के, हाथ तुम्हारे क्या रह जाता। बासंती फागुन जाते ही, पतझड़ सा जीवन ढह जाता। महकाते तुम भी हो चाहते, काँटों वाली डगर बदलना। पर फूल तेरी तक़दीर यही, संग लिखा काँटों में पलना। . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ ह...
आरज़ू
कविता

आरज़ू

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म .प्र.) ******************** चुपचाप, भीगे भीगे से पल बहकने की कोशिश में भी सजते गये हैं राह में, और चाह ये कि सिलसिला आज़ाद नगमों, नज्मों का आबाद यूँ ही हुआ करे। आज, कल की फिक्र ना हो ज़िक्र अब बीते पलों का, आँधियों के बीच भी हर दीप रौशन हुआ करे। मातम, गमी सब दूर कर हो प्यार का मौसम कभी, आवाज़ मेरे दिल की थी कल और हमेशा रहेगी !! . परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय ए...