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Tag: राजेन्द्र लाहिरी

आश्वस्त हूं
कविता

आश्वस्त हूं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** फांसी ले लूं या दे दो मतलब एक ही है, मेरा आकलन क्या है न पूछो इरादा नेक ही है, शायद मैं अपनी जिम्मेदारी न निभा पाया, अपने जज़्बात किसी को न बता पाया, शायद नजरिये का फ़र्क अजूबा है, मेरे या उनके सोचने का तरीका दूजा है, मैं अपने घर की मजबूत दीवार लग रहा था, पर कोई तो था जिन्हें मैं बीमार लग रहा था, संभाल पाना सबको शायद मेरी औकात नहीं, या हो सकता है अब शायद यह सोचना न पड़े कि अब मुझमें उस तरह की जज्बात नहीं, अब तो अब मैं तब भी खरा सोना था, मेरी जद में हर कोना था, नकार दो मेरा वजूद पर मैं शाश्वत हूं, समझा जाएगा मुझे कभी मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरच...
मज़हब
कविता

मज़हब

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** रार मचा रखा जाता है करके बजबज, सभी को लगता है सबसे अच्छा है हमारा मज़हब, लोगों को उकसाया जाता है, लाठियां, तलवारें घुमाया जाता है, मुल्क़ का माहौल बिगाड़ अपना माहौल बनाया जाता है, भड़काता है, उकसाता है, अपनी उस्तादी दिखाता है पचपन, जिसमें पिस जाता है उमंगों से, रंगों से भरा निःस्वार्थ बचपन, लाभ ये ठेकेदार उठा ले जाते हैं देश भर में फैला के खचपच, सभी कहते हैं सबसे अच्छा है हमारा मज़हब, वे भूल जाते हैं कि जरूरतों, परिस्थितियों के हिसाब से तय होता है सबका मजहब, दुख का मज़हब खुशी होता है, घायल का मज़हब इलाज होता है, इंसान का मज़हब इंसानियत होता है, भूखे पेट का मज़हब रोटी होता है, खिलाड़ी का मज़हब खेल होता है, उच्चलशृंखता का मज़हब नकेल होता है, अब बताओ कहां है तुम्हारा मज़हब, बात करने आ जाते है...
ऐसा क्यों…?
कविता

ऐसा क्यों…?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** इतिहास में तुम ही तुम, हर अच्छी बात में तुम ही तुम, हर जगह बजती तेरी धुन, कल्पित गाथाओं में भी तुम, सबके माथाओं में भी तुम, शक्तिशाली भी तुम ही तुम, और बलशाली भी हो तुम, क्या तब और अब तुम ही तुम हो हमें पटल से क्यों कर दिए गुम, हुआ बहुत हमरा भी नाव, लो पढ़ लो भीमा कोरेगांव, पच्चीस हजार कैसे आ गए थे लोटने को पांच सौ के पांव, लिख डाले हो कर कर कुकर्म, देव खुद को कह रहा तेरा ग्रंथ, क्यों भूले हो पाखंड काटने आते रहे हमारे संत, सीरियलों और फिल्मों में भी सदपात्र बनाते रहे हो खुद को, खल चरित्र में दिखा दिखा झुठलाते रहे हमारे वजूद को, कब तक रहोगे पर्दे के पीछे दिखा बता कर लाखों झूठ, तब भी अब भी पल्लवित ही हैं समझते मत रहना हमको ठूंठ, शसक्त हो रहे हम भी अब ये कभी मत जाना भूल, सम की राह में नहीं चलोग...
क्या भर पायेगा सुराख
कविता

क्या भर पायेगा सुराख

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** पैदा होते ही कराया गया अहसास, कहीं न कहीं है बहुत बड़ा सुराख, उनके हर प्रमुख मौके पर नाचते हम, हमारे मौकों पर कहां से ले आते वे गम, छूने से, घूरने से, परछाई पड़ने से, वैचारिक लड़ाई लड़ने से, वे खड़े रहते हैं भृकुटि ताने, आंख मूंदकर सिर्फ उनकी मानें, गालियां हमें भी सिखाया जाता है हम खामोश रहते हैं, पर वे गाली दे जाते हैं हमें जाति के नाम पर, सदा चोट पहुंचाते हैं हमारे सम्मान पर, क्या हम या हमारी जाति सचमुच घृणा के लायक हैं? या खुद के अहम को संतुष्ट करने हमें मान लेते खलनायक है? कुएं में, घाट में, चक्की में, तरक्की में, विद्यालय में, औषधालय में, कहां नहीं अहसास कराया जाता है छोटे बड़े सुराख? जबकि हम आदी हैं प्रेम बांटने के, सुराख पाटने के। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी ...
बगावत भी जरूरी
कविता

बगावत भी जरूरी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जो बैठा है खाली पेट, बगावत वहां से उठ सकता है, किसान, विद्वान, नादान, अंजान, बेजुबान, सताए स्त्री पुरूष इंसान, मदमस्त सत्ताईयों के सुख चैन लूट सकता है, हाँ मालूम है की सत्ता हमारी हलक से निवाला खींच सकता है, लम्पटों, महामूर्खों, अंधभक्तों की फसल को वाहियात बातों में उलझा सींच सकता है, मत भूलिए की जिसके सीने में वतन के लिए लगावट है, वहीं कर सकता बगावत है, बगावत का, विरोध का डर न हो तो सत्ताधारी बेलगाम, मदमस्त हो जाता है, उनके लिए हर गैरजरूरी काम जरूरी हो जाता है, पर ये नहीं सोचता कि अंदर ही अंदर बहती लावा ज्वालामुखी बन कभी भी फूट सकता है, आसमान की ओर निहारता, लिया बैठा सूखा खेत, बगावत वहां से उठ सकता है, इन नामुरादों की दुनिया लूट सकता है। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी...
कशमकश का मंजर
कविता

कशमकश का मंजर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** प्रकृति का मस्त मंजर, न आंधी तूफान का डर न पास में समंदर, कुदरत का दिया खाना कुदरत का दिया पानी, स्वछंद जिंदगी की स्वछंद कहानी, नीला आकाश, जंगल की मिठास, मिलजुलकर रहना, जीवन का हर पल उजास, आम, अमरूद, पीपल, पलाश, प्रकृति का बिछौना फैले दूर तक घास, प्राकृतिक निवासी, जंगल के रहवासी, कुछ आक्रांताओं की नजरें अब शांत जंगलों पर पड़ी है, पर्यावरण को दुहने काली नीयत आज खड़ी है, जंगल को बचाने वो हर दम सजग खड़े, कशमकश देखिए बाहरी से तो लड़ लेंगे लेकिन अपनी सरकार से कैसे लड़ें। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी ...
नीयत
कविता

नीयत

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** संविधान दिवस आया तो जिम्मेदार लोग दो चार शब्द बोलेंगे, एक जगह कार्यक्रम होगा अतिथि को फूल मालाओं से तोलेंगे, ऐसे समारोहों में सत्तारूढ़ सिर्फ कार्यक्रम कराएंगे, संविधान के बारे में किसी को भी न कुछ सिखाएंगे न पढ़ाएंगे, हक़ अधिकार की बातें हमें खुद जानना होगा, एक एक अनुच्छेद छानना होगा, उनकी नीयत शुरू से खराब है, उनका अलग ख्वाब है, वो लोगों को अंधविश्वास और पाखंड के साये में हरदम रखना चाहते हैं, संविधान की शिक्षा न देकर पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता का सुख चखना चाहते हैं, गलती उनकी नहीं, पर संविधान की शिक्षा हम अपने लोगों को दे सकते हैं, पर क्या सही नीयत से हमने प्रयास किये हैं? कुछ लोग संविधान मिटाने की बात करते हैं, मिथकीय राज लाने की बात करते हैं, उन्हें बताना होगा कि संविधान मिटाना इतना आसान नहीं ह...
मर गया
कविता

मर गया

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** पैदा हुआ, उठा बैठा, खेला कूदा, पढ़ा लिखा, पढ़ाया कभी नहीं, परिवार बनाया, खाया पीया, खिलाया कभी नहीं, सोकर जगा, जगाया कभी नहीं, न बोला, न चीखा न चिल्लाया, न हक़ बचाने सामने आया, ताउम्र मृत रहा, बस बेनाम मौत मर गया। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डा...
वास्तविकता
कविता

वास्तविकता

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ ******************** इंसानियत हैवानियत से गलबहियां डाले घूम रहा है गली गली, इंसाफ मुजरा करने को एलान करते करते चली, नैतिकता उल्टियां कर रहे हैं, करुणा और दया खास लोगों के घर सुबह शाम पानी भर रहे हैं, सहयोग नोटों के सहारे स्वसहायता खुल के कर रहे हैं, आस और विश्वास कोने में बैठकर दिन रात सिहर रहे हैं, खेलों में कुर्सियां भाग ले रहे हैं, पदकों के बजाय खुशी खुशी दाग ले रहे हैं, खुशियां पैरों तले कुचला जा रहा, बदमाशियां अश्लील गाने गा रहा, जिससे सबको आस है, कसम से वो खुद निराश है, भीड़ को फैसला करने का हो गया हक़, जिन्हें आत्मविश्वास से डट कर बोलना था वो बोलने से क्यों रहा हिचक, नोट छाप छाप कर विश्वगुरु बनना है, व्यवस्था को पता है किसके आगे कब कब अकड़ना और तनना है। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ घोषण...
अंधेरा अच्छा नहीं साहब
कविता

अंधेरा अच्छा नहीं साहब

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ ******************** सदियों से अंधेरे में रहे हैं, पल पल तकलीफें सहे हैं, कभी किसी से कुछ नहीं कहे हैं, हमने कभी किसी का रक्त नहीं बहाया पर पग-पग हमारे रक्त बहे हैं, हम कोई रात्रिचर जंतु जानवर तो नहीं कि अंधेरा हमें पसंद हो, हमने कभी नहीं चाहा कि किसी के साथ हमारा द्वंद्व हो, अपने हिसाब से रहने की, अपने हिसाब से चलने की, इतराने की, मचलने की, हमारी भी इच्छा रही है, पर तब हम पर जबरन अंधेरा थोपा गया था, काले विधानों के जरिए हमारे पीठ में छुरा घोंपा गया था, अंग्रेजों से आजादी आप लोग पा गये, लेकिन हम तो वहीं के वहीं रह गये, आपका छप्पन भोग जारी है अपने हिस्से अभी भी अंधियारी है, इसके लिए आपकी वहीं पुरातन सोच जिम्मेदार है, आपके सोच बता रहे हैं कि अभी भी आप मानसिक बीमार हैं, चार दिनों तक इस थोपे गये अंधेरे में रहकर देखिये, तब आप ...
मैं कहां हूं?
कविता

मैं कहां हूं?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ ******************** सदियों से लेकर आज तक तुम्हारी व्यवस्था में बताओ मैं कहां हूं? सिसकते, दम तोड़ते, मायाजाल काटकर आज मैं यहां तक पहुंचा हूं, तुमने तो हमें पैदा ही पैरों से करवाया, हमें नीच, अधम, शुद्र बताया, व्यवस्था की कठोर लकीर खींच पग पग हमें तड़पाया, हांडी झाड़ू बांध हमारे तन से छाया, पदचिह्न तक को अपवित्र बताया, हम तब भी समझते थे और आज भी समझ रहे हैं कि तुमने हमें तन मन धन से तड़पाया, वो तो शुक्र है हमारे महापुरुषों का, जिन्होंने अलग अलग समय से हमें समझाते, जगाते आया, फिरंगियों के नेक पहल से हमने आंखें खोल देने वाला शिक्षा पाया, संविधान बनाया, हक़ अधिकार पाया, मगर फिर भी अपनी कुटिल चालों से हमें धर्म में उलझा हर शसक्त संस्थाओं पर कब्जा जमाया, अब राग अलाप रहे हो कि देश में सब कुछ ठीक है, कहते हर काम विधान नीत है तो बताओ आ...
सिसकता इंसाफ़
कविता

सिसकता इंसाफ़

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ ******************** सुबह से बैठे हैं आज साहब के इंतजार में, मेहनत छोड़कर आये थे वो समय गया बेकार में, घूम रहे जिम्मेदार लिए कैंची पद के धार में, विज्ञापनों में उपलब्धि गिना खुद को शाबाशी दे रहे हैं वो जो बैठे हैं सरकार में, साहब तनकर आ गया, मातहतों को चमका गया, भूखे लोगों के सामने ही लाये गये पकवान खा गया, पीड़ित लोगों ने अपना दुखड़ा सुनाया, सबको हड़काया, तुम सब शासन की योजनाओं के रोड़े हो, विरोध कर सारे नियमों को तोड़े हो, तुम्हारे सौ के एवज में एक-दो दे दे रहा हूं वो गनीमत है, यह दिया जा रहा सौगात तुम्हारे लिए खुशी तो हमारे लिए मुसीबत है, इस प्रकार से बैठक सम्पन्न होता है, रोते-रोते पीड़ित अपने श्याह पड़ चुके शरीर को बेमन से अपने घर तक ढोता है, पूरी की पूरी स्थिति साफ है, क्योंकि अब तो बुरी तरह से सिसक रहा इंसाफ है। ...
जिद
कविता

जिद

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ ******************** वो जिद में अड़े रहे कि घर में लक्ष्मी आयी है, कुछ के मन में था कि खुशियां लायी है, पर उनके मन में था मुसीबत आयी है, पता नहीं किन मनहूसों ने कब से ये भ्रांतियां फैलायी है, वो जिद पर अड़े रहे लड़की है सिर्फ चूल्हा फूंकेगी, वो चूल्हा फूंकती रही, क़िताबों से हवा देते चूल्हे को, अक्षरों के भंडार लूटती रही, पर वह भी जिद पर थी अज्ञानता, निरक्षरता को चूल्हे में आग के हवाले निरंतर करती रही, फिर चुपके से सायकल चलायी, स्कूटी चलायी, कार चलायी, ट्रेन चलायी, एरोप्लेन चलायी, पर वो पुराने खयालात वाले का जिद अभी भी है लड़की चूल्हा फूंकेगी, जनाब अब तो अपने भंवर से बाहर आकर देख, तुम्हारे कलुषित अरमानों की धज्जियां उड़ाते हुए वो देश भी बखूबी चला लेती है, तुम्हारे दूषित संस्कार, ढकोसले, पाखण्डों को मटियामेट करती हुई, सार...