Sunday, February 23राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: राजेन्द्र लाहिरी

जरे आदमी
आंचलिक बोली, कविता

जरे आदमी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** (छत्तीसगढ़ी) वइसे तो दूध के जरे आदमी ह दही घलो ल फूंक के पिथे, फेर कोनो धियान नइ देवय के गरीब शोसित आदमी ह का का सहि के जिनगी जींथे, वो तो गरीबी के आगी म रोज के रोज जरत रथे, उपर ले जात के अपमान कोनो ल कुछु नइ कहय फेर भितरे भीतर धधकत मरत रथे, कतका घिनक बेवस्था बनाय हें मनुस के घटिया रहबरदार मन, बिन काम बुता करे बने हे ऊंच अउ काम कर कर के मरत हे निच कहा जरोवत हे अपन तन, बेसरमी ल ओढ़ रात दिन जात पात के नाव म सतावत हें, जानवरपना भरे हे ओकर तन मन म रोज रोज छिन छिन जतावत हें, आदमी जरे तो हे फेर मरे नइ हे, का डर हे के पलटवार करे नइ हे, जे दिन एमन जुर मिल एक हो जाहि, सासन सत्ता अपन हाथ म लाय के बिचार नेक हो जाहि, जे दिन अदरमा इंखर फाट जाहि, ओही दिन अपन बिरूध बने सबो अमानवीय बेवस्था ल काट जाहि। ...
पढ़ ले संविधान को
कविता

पढ़ ले संविधान को

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** नीम करेले क्या जानेंगे बाबा जी की शान को, सोच औकात अपनी और पढ़ ले संविधान को, बाहरी बातों में आकर भूले उनके ज्ञान को, सोच औकात अपनी और पढ़ ले संविधान को, स्कूल के बाहर रहकर क्या तू पढ़ पाता रे, रो रो पाठशाला छोड़ घर को चला आता रे, याद कर झाड़ू पीछे गले थूकदान को, भूल जा पाखंड बांटे ऐसे विद्वान को, सोच औकात अपनी और पढ़ ले संविधान को, मुसीबतें सह सह कर भी बस्ता उसने उठाया था, जातिवादी ताने सुन-सुन आंसू खूब बहाया था, प्रचलित ढोंगों पर उसने उंगली प्रतिपल उठाया था, चमत्कार को नहीं मानकर तार्किक प्रश्न लाया था, अभावों में पढ़कर उसने कई डिग्री लाया था, भीमराव की नजर से आ देख ले जहान को, सोच औकात अपनी और पढ़ ले संविधान को, ढोंगियों की ढोंग के आगे नतमस्तक होना पड़ा, मुश्किलों से मिला हुआ अधिकार खोन...
ठौर नहीं होगा
कविता

ठौर नहीं होगा

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** यलगार करने के लिए कोई वक्त मुक़र्रर नहीं होता, हर समय किया जा सकता है, वो दौर और था कि महिलाएं, बच्चे, दलित, आदिवासी, खामोश रह सब सहा करते थे, डर कहें या अमानवीय नियम ये हद से ज्यादा हद में रहा करते थे, पर आज का दौर और है, हर जगह इनका हक़ व ठौर है, ये हक़ हमें संविधान ने दिया है, जिनकी रक्षा का हमने प्रण लिया है, वो संविधान जो सबको सम मानता है, अधिकारों को छीनना अक्षम्य मानता है, एक स्त्री को घर तक सीमित क्यों रखना? वह किसी पुरूष से कम नहीं, उसके बाद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी को दमित करना, किसी का हक़ मारना, जान कर जातिय दुर्व्यवहार उभारना, कुछ कुंठितों का शगल है, मगर वे मत भूलें कि ये सब यदि अपने पर उतर आए, तो मुंह छिपाने के लिए कहीं भी सुरक्षित ठौर नहीं होगा। ...
कलम का हत्यारा
कविता

कलम का हत्यारा

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अब इसे कहूं तुम्हारी हताशा या लहू से हाथ रंगने का जुनून, बड़ी आसानी से बोल रहा है कि मैंने कर डाला कलम का खून, ऐसा करके तूने की है वाहियात कोशिश मिटाने की बुद्ध के विचारों को, कबीर, रैदास के विचारों को, ज्योतिबा,सावित्री के सरोकारों को, चुनौती देते पेरियार के दहकते अंगारों को, बाबा साहब के बोये संस्कारों को, जागरूक करते कांशी के पंद्रह-पच्चासी वाले बहुजन विचारों को, पर भूलना मत कि कत्ले-कलम से फिर पैदा होंगे अनगिनत कलम, उस काल्पनिक रक्तबीज की तरह, तब तू पड़ा रहेगा ताउम्र गाली खाते अपनों से, खुद से, क्या तुम्हें अब भी उम्मीद है कि कलम फिर से लिखेगा वो काल्पनिक बहकावे जिसके चपेट में तू आ गया। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्...
जाति की ख्याति
कविता

जाति की ख्याति

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जातियों के भीड़ में हर जगह नजर आ जाता है जाति, जिसके साये में रहकर ही लोग पाना चाहते हैं ख्याति, मुंह सुख गया हो और प्यास से तड़पने मरने की जब आ चुकी हो नौबत तब भी अपने से नीची माने जाने वाले लोगों के हाथों से पानी पीने से इंकार करते हुए देखा हूं लोगों को, काश ऐसे लोग मर ही जाते, क्यों इंसान को इंसान नहीं सुहाते, एक तरीके से पैदा होते, एक जैसे शरीर रखते, एक जैसे जिंदगी का स्वाद चखते, हर लम्हा एक सा गुजारते, पर एक दूजे को देख जाति की नजरों से निहारते, चीथड़ों में पड़ा व्यक्ति भी केवल जाति के कारण कुलीन सा दिखने वाले को देखता है हिराक़त की नजरों से, मुस्कान छोड़ गाली छोड़ते हैं अधरों से, ये किस तरह की समूह के लोग हैं, वो जाति ही एकमात्र आधार है नित अंगूठा काटने के लिए, इसने अब तक नफरत ...
समता और न्याय
कविता

समता और न्याय

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** कहां जाएं, कैसे पायें? संविधान के युग में भी नहीं मिल रहा समता और न्याय, आजादी के इतने वर्षों बाद भी कुछ लोगों की मानसिकता आज भी सालों पुरानी वाली है, जो कुचक्रों, कुंठाओं से भरी है बिल्कुल नहीं खाली है, जहां समता दिखने चाहिए वहां ये समरसता की बात करते हैं, मुंह से इंसाफ की राग गाएंगे और दिलों में मसल डालने की चेष्ठा कुख्यात रखते हैं, जब सम की भावना ही नहीं तब न्याय मिलना असंभव है, पर तथाकथित उच्च व रईसों के लिए न्यायालय खुलना रात में भी संभव है, पर दमितों, दलितों के लिए न्याय कहां हैं? उनके मामले पीढ़ियों तक खींचाता है, मरने के बाद न्याय की अंतिम तारीख आता है, जहां विषमता है वहां न्याय की उम्मीद किससे व कैसे? जाति-पाति, ऊंच-नीच से इंसाफ तय होता है, समता के बिना न्याय बिकने लग...
जिंदगी कब बेमानी हो जाये
कविता

जिंदगी कब बेमानी हो जाये

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** उम्मीद पाल हर कोई चलता है कि जिंदगी सुहानी हो जाये, कब किसे क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। मत कर उम्मीद कि नफ़रत पालने वाले दिल से गले लगाये, क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। उलझा हुआ है कौन कब कितनी झंझावतों में, कहां पिस रह जाये किस किस की अदावतों में, संबल की आस वाले जब लूटने लगे भरम, सितम भगाने वाले खुद बन जाये सितम, मौत ही पक्का जब निशानी हो जाये, क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। फरेब संग रहकर जब जटिल जाल बुने, दिल का हरा आंगन लगने लगे जब सुने, अनुराग और प्रेम जब लगाने लगे चुने, अहसास नहीं होता अपने अपनों को भुने, अपनों से अपनेपन का विश्वास जब खो जाये, क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोष...
वो अदना सा आदमी
कविता

वो अदना सा आदमी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हमने देखे हैं कि बड़े-बड़े तुर्रमखां लोग भी जेब से नहीं निकालते एक भी दमड़ी, जब कोई भूखा, कोई जरूरतमंद, कोई असहाय, आ जाए गुहार करने कुछ मदद की, तब दिहाड़ी करने वाले की जेब से निकलता है मदद को चंद सिक्के, जो वो बचाकर रखा रहता है अपनी मुश्किल पलों पर इस्तेमाल करने खातिर, उन्हें नहीं होता देने में कुछ मलाल, क्योंकि वो भी गुजरा रहता है किसी समय इस तरह के नाजुक पलों से, तब जाग उठता है उसके अंदर की इंसानियत, वैसे भी पेट भरा हुआ भी गाहे बगाहे निकालते रहते हैं इनसे पैसे, कभी चंदे के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, तो कभी उत्सव के नाम पर, यहीं तो है वो अदना सा आदमी। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित ...
बदल नहीं पा रहा हूं
कविता

बदल नहीं पा रहा हूं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अछूत हूं साब, गंगाजल से भी नहाता हूं, नित्यप्रति प्रार्थना करने मंदिर भी जाता हूं, ये अलग बात है कि वहां लतियाया जाता हूं, वहां से घर आकर घरवालों को सुनी कथा सुनाता हूं, चमत्कारियों का हूनर बताता हूं, साल में कई बार कराता हूं पूजापाठ, ये परंपरा नहीं भूलता चाहे गरीबी रहे या ठाठ, पूण्य कमाने की चाहत रखता हूं, प्रवचनों का स्वाद चखता हूं, अपने पूर्वज का सर कटाने के बाद भी नित्य मंत्र जपता हूं, लोग खाने को मेरे घर में नहीं आते तो क्या हुआ मंदिर में भंडारे कराता हूं, ब्रह्मदेवों को जिमाता हूं, इतना सब कुछ करने के बाद भी पता नहीं क्यों अभी भी बना हुआ हूं अछूत, पता नहीं देवों को क्यों नहीं आ रही दया जस का तस ही हूं नहीं हो पा रहा सछूत, तो बताओ किसको दोष दूं? अपनी जात को? उनके खयालात को? ...
तो मत पूजो कन्या
कविता

तो मत पूजो कन्या

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हम उस देश के बाशिंदे हैं जहां औरतों को देवी कहा जाता है, पर उन्हीं औरतों द्वारा इसी देश में सबसे ज्यादा अत्याचार सहा जाता है, घर में, परिवार में, समाज में, कार्यक्षेत्र में, हर जगह उनका शोषण किया जाता है, उनकी विश्वनीयता का बार-बार परीक्षण लिया जाता है, मनहूसियत का तमगा, हर बात पर ताना, साथ में दोगलापन इतना आराध्य मान गा रहे गाना, दहेज के नाम पर जहर, क्या गांव क्या शहर, सिर्फ कहर हो कहर, ऊपर से कन्या पूजन का ढोंग, छेड़छाड़, बलात्कार का दंश, क्षण क्षण सम्मान का विध्वंस, समाज किधर जा रहा, पुरूषत्व सोच तड़पा रहा, ये सब सहकर भी दे रही सुकून, मां के रूप में, पत्नि के रूप में, बेटी के रूप में, थेथरई लिए हुए हम इतने स्वार्थी क्यों? मूढ़ों कल्पना क्यों नहीं करते उनके बिना अपने होने का, गर यही है मं...
हम नेताओं पर छोड़ दो
कविता

हम नेताओं पर छोड़ दो

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** पहले तो बुदबुदाया, फिर नेताजी जोर से चिल्लाया, क्या जमाना आ गया दुनिया बन रही बुरे कर्मों की दीवानी, बढ़ रही है देखो मनमानी, मन से मनमानी तोड़ दो, कुछ काम हम नेताओं पर छोड़ दो। हर विभाग वाले कर रहे भ्रष्टाचार, काम वे जिससे है आम जनता को सरोकार, युवा बैठे हैं बेकार, आह्वान है नई पीढ़ी से भ्रष्टता की दिशा मोड़ दो, कुछ काम हम नेताओं पर छोड़ दो। गरीबी ऐसी कि नारी देह बेच रही, ऊंचे पद वाले गरीब देश की खुफिया जानकारी खेंच रहे, कुछ देश ही बेच रहे, भाइयों वतन बचाने पर जोर दो, कुछ काम हम नेताओं पर छोड़ दो। भारत के नेता किससे कमजोर है, हमारे मस्तिष्क का होता बहुत जोर है, भले ही हम नहीं सुधर सकते हैं, पर हम कुछ भी कर सकते हैं, हमारा समर्थन चहुंओर पुरजोर हो, कुछ काम हम नेताओं पर छोड़ दो। परिचय :...
लहर का अनुमान
कविता

लहर का अनुमान

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बहुजनों की भीड़ देखकर कभी भी न करें लहर का अनुमान, बोलने से पहले दस बार सोच लो वर्ना हो जाओगे बदनाम, भीड़ का इस्तेमाल कैसे करें इनको पता ही नहीं, खैर इसमें इनकी कोई खता नहीं, ये बहकावे में सबसे ज्यादा आते हैं, अपने शक्ति का खुद मजाक उड़ाते हैं, बाद में जिनका समर्थन किये उनका पैर पकड़ गिड़गिड़ाते हैं, वक्त रहते समझ नहीं पाते हैं, सारी जिंदगी बेईमानी करने वाला निर्णायक दिन ईमानदार बनता है, रिश्वत के बदले दुश्मन को चुनता है, एक विचारधारा के होते नहीं है, खास सपने संजोते नहीं है, विरोधी इन्हें भला लगता है, अपना तो मनचला लगता है, भूल जाता है प्रतिद्वंद्वी के विचार, यादों से निकल जाता है भूतकाल के शोषण और अत्याचार, तो भीड़ देख न करें गुणगान, धराशायी हो सकता है लहर का अनुमान। परिचय :-  राजे...
गर आप न होते
कविता

गर आप न होते

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** आप न होते तो हम होते जरूर, मगर क्या कर पाते किसी भी बात पर गुरूर, जिंदा लाशों की ढेर में एक लाश हम भी होते, जिंदगी गुजर जाता अपने होने पर रोते-रोते, जीवित होने पर घुटन होता, खाने को सिर्फ जूठन होता, रूखे भोजन संग गाली भी खाता, शोषक को कहते भाग्य विधाता, सहना पड़ता दिन भर अपमान, नहीं मिल पाता कभी सम्मान, ना पढ़ पाते ना गढ़ पाते, अस्वच्छता संग ही सड़ जाते, बिना ठौर रह जाते रोते, गर आप न होते आप न होते, क्या पढ़ पाते क्या लिख पाते, चार अक्षर क्या हम सीख पाते, पाबंद होकर मनु विधान के सूट बूट में क्या दिख पाते, क्या होती तब अपनी इज्जत, सहते रहते कितने जिल्लत, नहीं कभी भी सर उठाते, उनसे कैसे हम नजर मिलाते, आप न होते गर मेरे मालिक संविधान हम कैसे पाते, समता और बंधुत्व नाम की माला हम कैसे पिरोते, ग...
बिखरे सपनें
कविता

बिखरे सपनें

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बिखरते आये हैं सपनें सदा से, दुश्मन मोहते आये हैं अपनी अलग अलग अदा से, एक बार फिर बिखर गया तो कोई बात नहीं, फिर से मिला सौगात नहीं, लेकिन हम आंसू बहाने वालों में से नहीं, हौसले की महल खड़ी करेंगे यहीं, संघर्ष करेंगे फिर से, हर बार उठेंगे गिर गिर के, शत्रु का काम ही है तोड़ना, अपनी सहूलियत अनुसार हमारी दिशाएं मोड़ना, मगर हमने कभी हार मानी न मानेंगे, लक्ष्य भेदने सारा संसार छानेंगे, तब होंगे हमारे पास अत्यधिक अनुभव, जो तय करेंगे दिशा और दशा करने को करलव, देखते आये हैं और देखते रहेंगे सपनें बार बार, कर कर खुद में सुधार, हम थे ही नहीं कभी तंगदिल, एक दिन मिल ही जायेगी मंजिल। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वा...
श्रेय का खेल
कविता

श्रेय का खेल

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** श्रेय लेने देने का खेल जारी रहता है अनवरत, मरते को जीवन देता डॉक्टर तब चौक जाते हैं यकबयक, कि मरीज ठीक होकर धन्यवाद करता है उन मिथकीय पात्रों का जो किसी ने देखा नहीं, कण-कण में है कह तो देंगे पर किसी से कभी मिला नहीं, विज्ञान लगा है रात-दिन मनमाफिक जिंदगी जीने का मौका देने के लिए, पर एन वक्त आ जाता है जादू श्रेय लेने के लिए, ये तथाकथित कभी चुनावों में किसी को क्यों नहीं जिताते, प्रकट हो किसी को प्रतिनिधि क्यों नहीं बनाते, चुनने का अधिकार है सिर्फ और सिर्फ मतदाता को, चुनते नहीं देखा कभी खुदा या विधाता को, श्रेय का जो असली हक़दार है उन्हें दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे सारी जिंदगी जूझते हैं लोगों को खुशनुमा जीवन देने के लिए, मगर उनके पास समय नहीं होता आगे आ श्रेय लेने के लिए। प...
घर को घर ही बनाएं
कविता

घर को घर ही बनाएं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** स्वर्ग बनाने से अच्छा है घर को घर ही बनाएं, मिथ्या स्वर्ग-नरक में न उलझाएं, सिर्फ बेटी में ही दोष न देखें, उनकी भावनाओं को भी सरेखें, घर को मकान ही रहने देने का जिम्मेदार नशेड़ी बेटा भी हो सकता है, लालची भाई भी सुख शांति का धनिया बो सकता है, बहू से कुढ़ती-नफरत करती सास भी घर का माहौल बिगाड़ सकती है, उच्छलशृंख ननदें संबंध उखाड़ सकती है, संयुक्त परिवार की बेटी भी बहू बन एकल परिवार खोजती है, एकता मधुरता को तह तक नोचती है, घर सबसे मिलकर बनता है, तब मुखिया का सीना तनता है, दहेज शब्द घर का नहीं धनलोलुपों के स्वार्थ का नाम है, ये अकड़ दिखा भीख मांगने का काम है, घर में तनाव लेकर न जाएं, सभी अपनी जिम्मेदारी उठाएं, मिलजुलकर समस्याओं का समाधान खोज घर को घर ही बनाएं। परिचय :-...
बेशक मैं …
कविता

बेशक मैं …

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बेशक मैं अब दुश्मन की श्रेणी में आता हूं। पर जब भी मेरे अपनों को जरूरत पड़ी दिल से दुआएं दे जाता हूं, हां होता रहता है अपनों के बीच गिले शिकवे नाराजगियां, मुसीबतों में खुद से सबकी बलाएं ले जाता हूं, महरूम हूं लाड़ प्यार दुलार से, नाराज नहीं किसी के गाली गलौज या लताड़ से, झंझावतों से जूझते रहने का नाम ही है जिंदगी, पर किया हूं दिल से हर रिश्ते की बंदगी, पर मैं वो जालिम नहीं कि बंधे बंधन की डोर पर बिजली गिराता हूं, बेशक मैं अब दुश्मन की श्रेणी में आता हूं। नहीं मेरे पास अकूत संपत्ति, रुपये-पैसे, जमीन-जायदाद, रूठों को मनाने किसे करूं फरियाद, चल रही है मेरे परिवार की गाड़ी जैसे तैसे, तूफानों से घिर बचा हूं कैसे, मौत से पहले शायद मना न सकूं रूठों को पर अपने हिस्से का फर्ज़ निभाता हूं, बेशक ...
जातियता को त्यागे कौन
कविता

जातियता को त्यागे कौन

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सो रहा समता का दिल तो खुद से होकर जागे कौन, स्व को दूजे से ऊंचा समझे जातियता को त्यागे कौन। आने और जाने के क्रम में, सभी बराबर क्यों हो भ्रम में, कदकाठी तन सबका एक, नहीं यहां पर कोई विशेष, खून में सबके लाल रंग है, पेट खातिर सबका जंग है, मानवता बंधुत्व भाव को देखो अब तो सिराजे कौन, जातियता को त्यागे कौन। बंटे हुये हैं लोग हजारों में, लेकर विष घूमे विचारों में, घमंड जात का दिखलाते है नजरों और नजारों में, नहीं खाते हैं एक दूजे घर, भूख से भले ही जाये मर, कब लाएंगे सीने में अपने भाईचारा और बड़ा जिगर, नफरतों को हवा दे देकर दिलों में अब बिराजे कौन, जातियता को त्यागे कौन। नहीं किसी को फिक्र देश की, बातों में नहीं जिक्र देश की, जाति पकड़ कर घूम रहे सब दिल में नहीं है चित्र देश की, ऊंच नीच सर ...
चलो चुनाव कराते हैं
कविता

चलो चुनाव कराते हैं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** गलती की कोई गुंजाइश नहीं, खुद की कोई ख्वाहिश नहीं, पता नहीं कहां कितनी दूर जाते हैं, चलो चुनाव कराते हैं, प्रत्यक्ष शिक्षण, कड़ा प्रशिक्षण, कान लगाकर सुनना, ध्यान लगाकर सुनना, खत्म प्रशिक्षण भोर में आओ, बोरी बिस्तर साथ में लाओ, सामान उठाओ, चेकलिस्ट मिलाओ, फिर वाहन में बैठो, जरा न ऐंठो, शहर या जंगल में जाओ, मताधिकार केंद्र को खुद सजाओ, कुछ मिल गया तो जल्दी खाओ, वर्ना भूखे ही सो जाओ, सुबह उठो मॉक पोल दिखाओ, दिनभर फिर चुनाव कराओ, ना लो झपकी ना ही लेटो, जल्दी से सामान समेटो, गाड़ी में बैठो वापस आओ, सारा सामान अब जमा कराओ, न हुई दुर्घटना खुशी मानते हैं, चलो चुनाव कराते हैं। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार...
मताधिकार
कविता

मताधिकार

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मतदान के लिए नहीं मताधिकार प्रयोग के लिए आगे आएं, सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य को सोच समझकर संपन्न कराएं, बाद के पांच साल तक रोने चिल्लाने की आवश्यकता न रहे, मैंने गलत व्यक्ति को वोट दे दिया कोई ये न कहे, धर्म,जाति,सम्प्रदाय के नाम अत्याचारी न रहे, हम जुल्म ही क्यों सहें, अभी लोटेंगे दर दर पैरों में, बाद प्यार लुटाएंगे गैरों में, पैर पकड़ने वाला कब गर्दन पकड़ ले, लोकतांत्रिक मूल्यों को अपने विचारों से कोई कब जकड़ ले, संविधान की रक्षा के लिए सब खुलकर आगे आएं, खुद जागें और लोगों को जगाएं, बढ़ चढ़ कर संवैधानिक दायित्व निभाएं, उचित व्यक्ति को प्रतिनिधित्व दिलाएं, आओ मताधिकार के कर्तव्य को निभाएं, अपनी आवाज को सदन तक ले जाएं। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र...
क्या गलती थी?
कविता

क्या गलती थी?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बुद्ध ही मिल रहा जगह-जगह की खुदाई में, कैसे उजाड़ा होगा सभ्यता को दंभ और घमंड भरी लड़ाई में, क्या कसूर था महामानव बुद्ध का, जिसने हमेशा विरोध किया कत्लेआम और युद्ध का, उसने मानव मानव में भेदभाव मिटाया है, दुनिया को अहिंसा और अमन शांति की राह दिखाया है, जिसने भी किया होगा शांति उपदेश, शिलालेख और मूर्ति को नेस्तनाबूद, नहीं रहा होगा निश्चित ही जिसका ऐतिहासिक वजूद, वो झूठा होगा, दंभी होगा, झूठी शान वाला एकदम घमंडी होगा, नहीं सह पाया होगा सत्य की बड़ी ताकत को, भूल गया होगा लोगों की शराफत को, मिटाया होगा कुछ इमारतों व किताबों को, पर कैसे वो मिटा पाता भाईचारे की रवाज़ों को, देश बुद्ध का है हर जगह दिखेगा वजूद, तर्क व विज्ञान सम्मत विचार है फिर से होगा ही मजबूत, विचारों को मिटाने की जरा बताएंग...
हां जारी है सफर
कविता

हां जारी है सफर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हां जारी है सफर, पैदल, बस की या फिर ट्रेन की, मुझे यकीन है कोई तो कर रहा होगा जिंदगी का सफर साथ प्लेन की, सफर होता जरूर है अनवरत जब तक आ न जाएं मंजिल, संतुष्ट न होइए क्योंकि कब कहां हो जाये जीवन बोझिल, सफर ही कर सकता है जीवन की मंजिल का अंत, निर्माण उतना मुश्किल भी नहीं है यदि छुपा न हो विध्वंस, सृजन और निर्माण जीवन के है दो पहलू, पर कोई क्या कह सकता है? कोई नहीं बता सकता कि आगे क्या हो सकता है, कोई हंस सकता है कोई रो सकता है, गाड़ी जहां थमी रुक सकता है जीवन कोई बता सकता है क्या ग्यारंटी है, अंत कुछ भी हो सकता है भले ही वो कोई संतरी या मंत्री है, समय किसी के लिए रुक नहीं सकता, वो ताकतवर के सामने झुक नहीं सकता, सफर सतत चलने का नाम है, कर्मों में ही छुपा अंजाम है, तो कोशिश ...
दो डाकू
कविता

दो डाकू

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** डाका शब्द सुन डाकू भी चौक रहे, कुत्ते खामोश और टीवी चैनल भौक रहे, दो दोस्त बड़े हुए, बेरोजगारी के घेरे में खड़े हुए, करें क्या नहीं सूझ रहे थे, दाने दाने के लिए जूझ रहे थे, वे छोटी-मोटी चोरी करना नहीं चाहते थे, पर पुनः भूखे मरना नहीं चाहते थे, दोनों चाहते थे डाका डाला जाये, घर के बाहर हाथी पाला जाये, एक लड़ने लड़ाने की शरारत करता था, दूजा जोर-जोर से ख़िलाफात करता था, पहला शरारत ही करता रहा और दूसरा नेता बन गया, लोग पीछे चलने लगे वो उनका प्रणेता बन गया, फिर एक ने सीधा बैंक में डाका डाला, एक झटके में करोड़ों निकाला, साथी नेता ने विरोध में रैली निकाला, भावनाओं पर भरने लगा मिर्च-मसाला, डाकू कुछ दिनों बाद पकड़ा गया, गिरफ्त में माल सहित आ गया, पर नेता ने डाका डालने का एक नायाब तरीका निक...
जिसे जो कहना है कहने दो
कविता

जिसे जो कहना है कहने दो

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जिसे जो कहना है कहने दो, मुझे मेरे सांचे में रहने दो, मुझे क्या करना है, कहां जाना है, क्या खाना है, किन सोये हुओं को जगाना है, मुझे नहीं कभी मजबूर होना है, किन जाहिलों से दूर होना है, ये मुझे तय करने दो, जमीं पर अपना पांव खुद धरने दो, मुझे मिली ऐसी शिक्षा कि सिर्फ अपना न सोचूं, जो जा चुका है उसके लिए सिर न नोचूं, शायद जरूरत हो मेरी तनिक भी मेरे समाज को, पढ़ाना है, जगाना है, तो क्यों बदलूं अपने अंदाज को, मजलूमों को अपनी बातें कहने दो, प्रगति की बयार उनके घर तक भी बहने दो, जिसे जो कहना है कहने दो, मुझे इंसानियत, भाईचारा, नैतिकता और संवैधानिक सांचे में रहने दो। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिका...
जिंदगी की रेलगाड़ी
कविता

जिंदगी की रेलगाड़ी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हां जिंदगी एरोप्लेन या रेलगाड़ी नहीं, पर घिसट-घिसट कर चल रही, एक्सप्रेस, सुपरफास्ट तो नहीं कह सकता, पर पैसेंजर रेल सा ही बहता, कभी सिग्नल नहीं मिल पाता, कभी टाइमिंग के इंतजार में खड़ी रह जाती है जिंदगी, कभी जबरन जीवन में घुस आये नेता या रिश्तेदारों की तरह खड़ी कर दी जाती है घंटों जंगल में, नहीं पड़ रहा रंग में भंग पर रुकावटें रौद्र रूप लिए खींच रही अपनी ओर फुफकारते बाधा डाल रहे अपने मंगल में, समझ ही नहीं आ रहा जियें, जीने की आस छोड़ दें, या जिये जायें घिसटते कीड़ों जैसे, बचे उम्र दिखाएंगे रंग कैसे कैसे, कभी चल पड़ती है जिंदगी तो पता नहीं क्यों भयंकर दर्द का अहसास करने लगते हैं सारे के सारे रिश्तेदार, क्या मालूम ये वेदना है या खुशी की खुमार, एक बात तो जान पाया कि कहने के लिए होती है जिंदगी हसीं,...