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Tag: राजेन्द्र लाहिरी

शिक्षा बिना दुनिया?
कविता

शिक्षा बिना दुनिया?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो भद्र मानव चला जा रहा था, चलता ही जा रहा था अपनी मानसिक शांति के लिए, उस दौर में जब मनुष्य मरे जा रहा था हथियारों से युक्त क्रांति के लिए, भोर का समय, नीरवता लिये, तभी देखा दो जगह रोशनी, ना जोगन ना जोगनी, एक जगह एक बालक ग्यारह साल का, माथे पर लंबा तिलक, मुस्कुराता चेहरा, हाथ में थी आरती, जोर जोर से गाये जा रहा था भजन, दूसरे जगह कोई शोरशराबा नहीं, पर बैठा था वहां भी एक बालक, ढिबरी के अंजोर में बार बार कुछ पढ़ रहा था, अगल बगल बस्ता और किताबें, बालक बुदबुदा रहा था ज्ञान विज्ञान की बातें, भद्र पुरूष अवाक देखे जा रहा, उन्हें लग रहा कि उस झोपड़ी से कभी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, निकल-निकल आ रहा, वह सोचने लगा कि काश यह होता मेरा घर, मैं करता यही बसर, और होते ये सारे मेरे अपने, जीवंत करते मेरे ...
कौन हो चंदा?
कविता

कौन हो चंदा?

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** चुप कैसे क्यों मौन हो चंदा, या बतला दो कौन हो चंदा, कभी मामा तुम बन जाते हो, अंधियारा गुस्से में लाते हो, हमें पता है बस इतना ही कभी घटते कभी बढ़ जाते हो, क्यों किसके पीछे पड़ जाते हो, कोई कहते स्त्री और कोई पुरुष, अमावस्या को हो जाते हो खड़ूस, तारे क्या लगते हैं तेरे, कोई कहता बलम हो मेरे, किसी का मुखड़ा तुम्हारे जैसा, कोई लूट रहा तेरे नाम से पैसा, रात भर इतराते रहते हो जब तक न हो जाये भोर, खबर भी है तुमको क्या कुछ भी चाह रहा कोई तुम्हें चकोर, कभी कहलाते हो आफ़लब, कभी दिखते हो सबको लाजवाब, जंजालों से खुद को संभालते हो, खुद को ग्रहण से निकालते हो, जा सकता है कोई तुमसे पार, पूछ रहा था एक दिलदार, औलाद को कहे कोई चंदा सूरज, बतलाओ किस किस की हो जरूरत। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी न...
आज के आज
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आज के आज

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** देखता हूं आज का काम आज, बेवजह पाल के नहीं रखा हूं रिवाज, हाड़तोड़ मेहनत दिन भर की करता हूं, देखता हूं आज को कल पर नहीं विचरता हूं, दुनिया के लोग कहते हैं 'कल किसने देखा', मुझे कल को देखने की जरूरत भी नहीं, तभी चैन की नींद सो पाता हूं, ज्यादा लंबा दिमाग नहीं लगाता हूं, यदि नींद ही नहीं होगी, तो बन सकता हूं रोगी, अतः मुझे रोग नहीं पालना, आज का आज कल पर नहीं डालना, कल के बारे में सोचने के लिए दुनिया में भरे हैं और लोग, चिंता से उबर नहीं पाते भले ही खाएं छप्पन भोग, न किसी देवता से आस न किसी काले जादू का डर, क्योंकि हमें फुरसत नहीं दिन भर, काम कर अपनी उमर बढ़ाता हूं, बचत,निवेश और टैक्स चोरी की संभावित झंझट में नहीं आता हूं, मरने का डर नहीं तभी तो जीना आता है, डरपोक दिन में कई कई ब...
सही मैं हमेशा से हूं
कविता

सही मैं हमेशा से हूं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मुझे बचपन से छोड़ दिया गया था अपनों से दूर गैरों के घर, मजबूरन हो रहा था मेरा बसर, मेरे ही पिता का दिया वे भी खा रहे थे, पर मुझे हरामखोर कह नित गरिया रहे थे, खैर मुझे सहना ही था, उन्हीं के साये में रहना ही था, दूसरों के घर रहना खाना मेरी गलती नहीं थी, बड़ा हुआ तो देखा हालात बदला हुआ, भावनाएं अभी था मचला हुआ, लगना पड़ा घर को संभालना, सभी सदस्यों को काम कर पालना, विवाह, बच्चे के बाद भी कोई सुख नहीं देखे, नहीं चिंता गांव समाज को लेके, पढ़ा लिखा था तो मिला नौकरी, करने लगा सरकारी चाकरी, न कोई बुराई न कोई लत था, बताओ मैं कहां गलत था, संपूर्ण परिवार को खुद संभाला, सबने अलग कर घर से निकाला, बराबर होती रही बुराई, किसी को याद न रहा मेहनत और कमाई, आई रिश्तों में दरार और गफ़लत था, आप ह...
चलो खुलकर मुस्कुराते हैं
कविता

चलो खुलकर मुस्कुराते हैं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मुस्कुरा लो यार तलब न दबाओ, हर एक क्षण खुश नजर आओ, इसके फायदे एक नहीं अनेक है, महत्व इसका बहुत ही विशेष है, सोचो हमने कब कब मुस्कुराया है, हमें हर पल उन्होंने सिर्फ जलाया है, पर हम निराश नहीं हैं, उदास भी नहीं हैं, क्योंकि उपलब्धि की वो कील मेरे बाप ने ठोंके है, विषमताओं का प्रवाह सिर्फ उसने रोके है, वरना मुस्कुराने के पहले गिड़गिड़ाना होता था, हर देहरी पर सर झुकाना होता था, बाबा साहेब ने हर मिथक तोड़ा, अपने पैरों पर खड़ा कर हमें छोड़ा, हम अब शिक्षा की अलख जगा रहे हैं, इत्मीनान से यदि मुस्कुरा रहे हैं, तो इसका कारण सिर्फ बाबा भीमराव है, स्वतंत्र अस्तित्व की ओर जिनका झुकाव है, पुरखों का अहसास सोच भी सिहर जाते हैं, हर पग की कठिनाइयां जो बताते हैं, तो चलो खुलकर मुस्कुराते हैं, हमा...
बहुमूल्य योगदान
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बहुमूल्य योगदान

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** बड़े गुस्से से वो निकले थे पूरे लाव लश्कर के साथ उस मतदाता के हाथ पांव तोड़ने, तभी चुनावों की तारीखों का एलान हो गया, त्वरित नेताजी परेशान हो गया, अब वो उसी लाव लश्कर के साथ घूम रहे हैं हाथ पांव जोड़ते, चंद घंटे पहले की अकड़ छोड़ते, ये किस्सा गिरती हुई नैतिकता का पूरा हाल बता गया, और सब जान गए कि मौकापरस्त राजनीति का ये खूबसूरत दौर है नया, तो अब नेताजी घर-घर जा सही काम का भरोसा दिलाएंगे, गिर पैरों पर गिड़गिड़ाएंगे, पिला चार पेटी, खिला दो बोटी, फिर अपनी ईमानदार छवि के दम पर वहीं सीट फिर से जीत लाएंगे, तथा देश की उन्नति में अपना बहुमूल्य योगदान दे पाएंगे, हमें भरपूर भरोसा है कि यह नेता संविधान को खत्म होने से बचाएंगे, और वोटरों के घर वहीं पुराने गरीबी व भुखमरी के दिन ला पाएंगे। ...
प्रकृति के अंश
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प्रकृति के अंश

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** एक पत्थर से जैसे ही उसने ठोकर खाया, उस पाषाण को उसने उठाया, हृदय और माथे से लगाया, और बोला कि अच्छा हुआ कि मेरा पैर आपमें लगा यदि आप खुद आकर मेरे पैर में लगे होते तो आज मेरा पग टूट गया होता, कहीं बैठे-बैठे मैं उस पल को रोता, प्रकृति के नियमों से चलने वाला हूं, स्वार्थ के लिए उसे नहीं छलने वाला हूं, इस तरह से हुई होगी पत्थरों को पूजने की शुरुआत, प्रकृति को पूजने की आगाज, जो आज भी जारी है आदिवासियों में, धरती के मूलनिवासियों में, तब कुछ चालाकों के मन में आया होगा विचार, पाषाणों को दे दिया होगा आकर, और बोला होगा साक्षात साकार, जो है दुनिया को चलाने वाला निराकार, फिर डर-डर कर रहने वालों पर हुआ होगा पहला प्रहार, तब प्रारंभ हुआ होगा डर का व्यापार, इस तरह लोग मानने हो गए मशगूल,...
वो सदाबहार वृक्ष
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वो सदाबहार वृक्ष

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** धूर्तों तना या पेड़ तो बार बार काटते आये हो, उसी पेड़ के फल खाये हो, शायद जड़ काटने की तुम्हारी औकात नहीं, जड़ के रहते तुम्हारी बनेगी बात नहीं, क्योंकि वो इतनी गहरी है कि तुम्हारा साम, दाम, दंड, भेद काम नहीं आया, कुदरत के दुश्मनों को कुदरत ने मजबूत नहीं बनाया, हर तरह के हथियारों से लैस रहे हो, हो चुके इतने उदंड कि कभी बंधन में नहीं रहे हो, लकड़ी काटने के लिए लकड़ी का ही सहयोग लेते हो, कभी बिना सहयोग लिए काट कर देखो, आपसे होगा नहीं फिर भी कहूंगा षड़यंत्र छोड़ प्यार बांट कर देखो, बात काटने ही हो रही थी कि उन सदाबहार पेड़ों का अस्तित्व कभी भी मिटा नहीं पाओगे, कुछ अंतराल के बाद वो फिर उठेगा, और ऐसा उठेगा कि तुम्हें भी बेमन से गर्व करना पड़ेगा, पर चिंता मत करना वो पेड़ कभी अपना स्वभाव नहीं बदल...
यादें रेडियो की
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यादें रेडियो की

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** क्या बताएं वो समय ही कुछ और था, तब मनोरंजन के लिए रेडियो का दौर था, स्टेशन खुलने से पहले बजते रोचक नये-नये गाने, जो होते थे बड़े ही सुहाने, बड़े अदब से किया जाता था नमस्कार, मन प्रफुल्लित होता सुन देश दुनिया का समाचार, आज के टी वी चैनलों की तरह कई स्टेशन सुनने को मिलते थे, पसंदीदा कार्यक्रम सुन दिल खिलते थे, मेरी दिनचर्या में रेडियो शामिल था अनवरत, हो चाहे ऋतु सर्दी, गर्मी, बारिश या शरद, होती थी रोज कृषि पर उपयोगी चर्चा, मुफ्त की सलाह बिना किये कोई खर्चा, स्वास्थ्य से संबंधित जब सलाह होते थे, बच्चे ट्यून बदलने के लिए रोते थे, कमेंट्री सुनते चक्कर लगा आते खेत का, तब दौर था राष्ट्रीय खेल हॉकी और क्रिकेट का, रेडियो सीलोन सुनाता बिनाका गीतमाला, न सुन पाये तो लगता समय खराब कर डाला, बी बी सी हिंदी, ...
धरती आबा के वंशज
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धरती आबा के वंशज

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जनाब कितने आये और कितने गये, पर हम आज भी वहीं हैं जहां थे भले ही न बन पाये आपके जैसे नये, बुरी नीयत रख हमारी कितनों जमीनें साल दर साल आप हड़पे मगर आज भी हम मालिक हैं अपने खिलखिलाते हरे भरे जंगल के, यहीं हम ढूंढ लेते हैं सारी खुशियां और जरूरतें जन मंगल के, हमें मिटाने की हर कोशिशों के बाद भी हम अडिग हैं जस के तस, हमारी हस्ती मिटा सको ये नहीं है आपके बस, जब मिटा नहीं पाते, हमें हमारी जगहों से हटा नहीं पाते तो हमें कहने लगते हो उपद्रवी या नक्सली, जिस मानसिकता के मिल जाएंगे आपके लोग हर चौराहे हर गली, लेकिन लगा देते हो हम पर इल्जाम, जग में करते हो हमें बदनाम, जो परिचायक है आपके क्रूर सामाजिक व्यवस्था का, लाभ उठाते रहते हो अपने सामाजिक, राजनीतिक अवस्था का, मत भूलो हम वाकिफ़ हैं जंगल ...
तीन भाई
कविता

तीन भाई

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** जी हां तीन भाई जो लड़ते रहते थे आपस में लड़ाई, कि कौन किसके हिस्से की रोटी खाया, किसने किसको उल्लू बनाया, करना था सबको मुखियागिरी, सिद्धस्त थे करके चमचागिरी, बने रहे औरों की हाथों का खिलौना, फांके पड़े ऐसे बचा नहीं बिछौना, पर कोई कुछ भी नहीं समझने को तैयार, खुद को मानते रहे भाइयों से होशियार, मौका देखकर एक चालबाज आया, चिकनी, चुपड़ी बातों से तीनों को फंसाया, रोज-रोज लड़ना तीनों की बनी आदत, लोलुपता के कारण घर दे रहा शहादत, लड़ते रहने से घर में नहीं कुछ बचा, चालबाज सबको था रहा नचा, बनना था त्रिशूल पर सब शूल बन गए, एका नहीं बची अब सब धूल बन गए, रुतबा दबदबा तीनों मिलके खा गए, नेतृत्व का था मौका वो भी गंवा गए, सुखचैन का गाना चालबाज गा रहे, अकड़ अपनी तीनों न भूल पा रहे, यहीं हाल देखो ...
डर कितना है
कविता

डर कितना है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** खोजो-खोजो सब कोई बंधु अपने अंदर डर कितना है, जिंदा रहकर डरे हो कितना डरकर गए हो मर कितना है, डर अंदर की कमजोरी है, अनदेखे को श्रेय देना क्यों मजबूरी है, किसने तुम्हें कब कब बचाया है, किसने भीरू बना जब तब डराया है, डरना ही है तो प्रकृति से डरो, उनसे छेड़छाड़ खिलवाड़ मत करो, डर का अंजाम भयानक होता है, मत सोचो ये अचानक होता है, आपके भीतर खौफ धीरे-धीरे भरा जाता है, डराने कोई और नहीं आता है, बचपन में घर परिवार द्वारा, फिर सामाजिक संसार द्वारा, कहीं धन के घमंडियों द्वारा, कहीं धर्म के पाखंडियों द्वारा, ये डर लूट जाने पर मजबूर करता है, अनाम चमत्कारियों से गुहार कर, मन मस्तिष्क गुलामी की ओर जाता है, फिर कुछ धूर्त अपने इशारे पर नचाता है, डर से हमें दूर हमारी एकाग्रता और ध्यान कर सकता है, सोच व ज्ञान ...
दिलवाले बहुजन
कविता

दिलवाले बहुजन

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** गा खेल कूद या नाच, भरपूर समय है तुम्हारे पास, जगराता कर, उपवास रह या महीने भर कांवड़ उठा, मस्तिष्क में सिर्फ इसी बात को बिठा, यहीं सब तो कर सकते हो, यहीं तो सबसे महत्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाएं हैं, पूरे समाज को यहीं सब करने की आपसे अपेक्षाएं हैं, बरसते फूलों का आनंद लीजिए, घोर आस्थावान होने का परिचय दीजिए, पढ़ाई लिखाई की क्या जरूरत है, देखो भंडारे कराने की कब मुहूरत है, डॉक्टर, इंजीनियर,कलेक्टर, या कोई भी नौकरी करने की, वकील, न्यायाधीश बनने की, बताओ भला आवश्यकता ही क्यों है, खुश रहो भले मानुषों प्राचीन काल से तुम्हारी स्थिति ज्यों की त्यों है, बिजिनेस करने, धंधा करने, विधायक, सांसद, मंत्री बनने, या सत्ता हासिल करने का झंझट भूलकर भी मत लेना, देने वालों में से हो हमेशा दूसरों को ही अपना हिस्...
ये पब्लिक है
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ये पब्लिक है

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** ये पब्लिक है कुछ नहीं जानती है, हवाबाज जादूगर जो दिखा दे उसे ही सब कुछ मानती है, कोई कुछ व्हाट्सएप पर फेंक दिया, फेसबुक पर टैग किया, ट्विटर पर बकलोली की, किसी ने हंसी ठिठोली की, और ये पब्लिक मान जाती है, सभी झूठों को सही मान जाती है, आई टी सेल वालों की बातें बन ज्ञान सुहाती है, अब कैसे कहें कि ये पब्लिक है सब जानती है, प्राचीन काल से ही सभी झूठ को सच मानती है, यदि ऐसा है तो क्यों है कभी नहीं लगाती तर्क, मीठे,मनभावन और दिव्य लगते हैं सारे के सारे कुतर्क, जब तक गप्पों को उचित तर्कों से काटेंगे नहीं, सच को वैज्ञानिकता के आधार पर अलग कर छांटेंगे नहीं, तब तक एक ही बात कहता रहूंगा, ये पब्लिक है कुछ भी नहीं जानती। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र...
गांव का पेड़
कविता

गांव का पेड़

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** रह गया गांव का पेड़ वहीं उसी जगह गांव में, बस, ट्रक, ट्रेन, नाव व जहाज की सफर कर फल पहुंच गए शहर गगनचुंबी कंक्रीटों के छांव में, गांव के पेड़ आज भी कर रहे अपने वादे पूरे, नहीं तोड़ा भरोसा, नहीं छोड़ रहे अधूरे, तोड़ रहा फल बच्चा, बुजुर्ग, किसान, मजदूर और पल-पल रखवाली करती महिलाएं, डंटे रह दूर करती वृक्ष की बलाएं, जो सिर्फ अकेले नहीं खाते कोई फल, मिलकर खा रहे आज व कल, जो लेकर चंद कागज के टुकड़े शहर वालों के जायका व तिजारत के लिए, जो महसूस नहीं कर पाते थोड़ा सा अपनत्व और लगाव, फिर पका डालते है रातों रात रासायनिक क्रिया या हत्या कर उस फल की, फिर इंतजार करते हैं तिजारती कल की, चिंता करते हुए खुद की, बीबी बच्चों व आलीशान महल की, जी हां पेंड़ कभी नहीं जाते शहर और भेज देते हैं अपने जि...
भूतकाल का भूत
कविता

भूतकाल का भूत

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** भूतकाल के भूतों ने हमको बहुत सताया है, डरने के कारण अपने हिस्से ठेंगा आया है, आभासी कच्चे चिट्ठों पर आज भी करते भरोसा है, टूटता रहता यकीं अपना मिलता केवल धोखा है, किसी के लिए धंधा ये सब पर हमने बहुत गंवाया है, डर डर सब लुटाया हमने कोई थैली भर भर पाया है, भूतकाल के भूतों का शौक देखो मचल गया, देखने का भाव अब ऊंची नीची जाति में बदल गया, तब के समय के सारे नियम अब भी देखो लागू है, अश्पृश्यता, हिंसा, लिंचिंग करके ये बन जाते साधु है, अब भी मन में मैल भरा जिसे नहीं ये धोते हैं, आगे निकल गया दमित तो खून के आंसू रोते हैं, सदनीयत से जब भी कोई संविधान लागू कराएगा, भूतकाल का भूत फिर तो सरपट भागा जाएगा। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमा...
जमीर
कविता

जमीर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मानव सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माना गया है, पर उनका वो हिस्सा जहां दया होता है, जहां करुणा पाया जाता है, जो अच्छे बुरे का अनुभव करता है, जहां नैतिकता को धरता है, लाख मुसीबतें आने पर नहीं बिखरता है, जहां प्राणी मात्र के लिए प्यार होता है, सोच समझ कर आपा नहीं खोता है, जहां से सहयोग की भावनाएं निकलती है, जब मर जाती है, तब जाति, धर्म, सम्प्रदाय, ऊंच नीच की भावना, सिर्फ पाने की कामना, दूसरों से उच्च होने का घमंड, नफरत लिए हुए प्रचंड, चिकनी चुपड़ी बातों से छलने की काया, लाखों वसूल कर बताए सब कुछ है मोहमाया, तब समझिये उसे जिंदा लाश, अंदर से हो चुका है बदहवाश, कितनों भी हो वो अमीर, निश्चित ही मर चुका है उनका जमीर ... परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोष...
हां मैंने खुद को
कविता

हां मैंने खुद को

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** घर-घर रहे, हर सदस्य प्रखर रहे, यही सोच सब कुछ संभाला है, परिवार के लक्ष्यों को पाने खातिर मैंने खुद को घर से निकाला है, झिड़कने काट खाने को आतुर रिश्ते, हो चुके एक दूजे के लिए फरिश्ते, अब कौन समझाये इनको इनके खातिर ही जान संकट में डाला है, हां मैंने खुद को घर से निकाला है जी है हिस्से मेरे नफरतों का अंबार, गलत न होकर भी करना पड़ता है स्वीकार, ऐसा नहीं है कि मैं दूध का धुला हूं, जैसा भी हूं सबके सामने खुला हूं, इनके लिए हर दुख दर्द भुला हूं, किस-किस को बताऊं कि कब कब फांसी के फंदे पर मुस्कुरा कर झूला हूं, रहा होऊंगा कभी उजले तन वाला जिम्मेदारियों ने थूथन कर डाला काला है, हां मैंने खुद को घर से निकाला है त्राहिमाम हिस्से मेरे, उनके हिस्से जिंगालाला है, हां मैंने खुद को घर ...
ये महकती खुशबू
कविता

ये महकती खुशबू

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सिर्फ फूल ही नहीं देते खुशबू फल भी देते, आज भी देते हैं कल भी देते हैं, यहीं नहीं रिश्ते भी महकते हैं, संत, गुरू, पीर, फरिश्ते महकते हैं, आचार व्यवहार महकते हैं, सबसे ज्यादा विचार महकते हैं, पता नहीं किसी को महसूस होता है या नहीं पर हर वो संत, गुरू, महापुरुष, जिन्होंने गरीब, प्रताड़ित, वंचितों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाने का प्रयास किया, समता,समानता, बंधुता का विचार लाया, सबके मन मस्तिष्क में गहरा छाया, बुद्ध की महक पूरे विश्व में छाया है, जिसने सत्य अहिंसा शांति का मार्ग बताया है, वहीं खुशबू हमने महसूस किया महामना ज्योति बा फुले में, शिक्षा की देवी सावित्री बाई फुले में, तभी आज झूल पा रहे शिक्षा के झूले में, कबीर, रैदास, नानक, पेरियार, गुरू घासीदास, नारायणा गुरू, और भीम न...
प्रकृति
कविता

प्रकृति

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** पत्थरों और भ्रम वाले मायाजालों की शरण से मुकम्मल निकल हम प्रकृति की शरण में जा सकते हैं, अवास्तविक को गंवा कर वास्तविक को पा सकते हैं, इसके लिए हमें जाना होगा नतमस्तक हो पर्यावरण की शरण में, हम लोग भुलाये बैठे हैं स्वर्ग नरक और जीवन मरण में, हमारे सांसों की आपूर्ति किसके भरोसे है, चमत्कारियों के एजेंट अब तक हमें सिर्फ नोचे हैं, हम किस कदर अंधविश्वास में डूबे हैं, पाखंडों से अभी तक नहीं ऊबे हैं, पेड़ हमारी जीवन रेखा है, पग पग पर उसी को देखा है, प्रकृति हमारी संस्कृति जीवन और सार है, हर जीव के प्राणों का आधार है, कौन है और क्या है जो हमें कुछ वापस देता है, सब कुछ सहकर भी हमें हमारा अमूल्य जीवन देता है, तो कृतज्ञता हमें किसी चमत्कारी पर नहीं पर्यावरण पर को देना है, वर्ना क्या किसी से छीने हैं और ...
गर्मियों की छुट्टी
कविता

गर्मियों की छुट्टी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** सब बच्चों की टोली और हाथों में आमों की गुत्थियां, नजर आ जाता है जब आती गर्मियों की छुट्टियां, एक वो समय था जब हम छोटे थे, घरवालों की नजरों में सदा खोटे थे, तब छुट्टियां होते दो महीने का, मस्तियां हर जगह होती फर्क नहीं नानी या अपना घर होने का, पेड़ों की छांव में पूरा वक्त बिताते, खेलना छोड़ तब कुछ नहीं भाते, गर्मियों की छुट्टियां अब कितना सिमट गया, प्रशासन लाता है अब कई सारे चोंचले नया, टी वी मोबाईल समर कैंप, कौशल विकास, रोक रहा नेचुरल विकास, नन्हे दिमागों पर बोझ डालना कितना है सही, क्या धूप और गर्मी का तनिक ख्याल नहीं, खैर ग्रीष्म कालीन छुट्टियां लाता है उमंग, बस छुट्टी ही छुट्टी बालमन में नहीं घमंड। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं ...
अपनों को जगाने
कविता

अपनों को जगाने

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** अपनों को जगाने, निम्न परिस्थितियों से ऊपर उठाने, अपनी बात कलमबद्ध करने खातिर सही अल्फ़ाज़ खोजना पड़ता है, जिस तरह हलधर को अन्न उपजाने अपनी कृषि भूमि जोतना पड़ता है, विभिन्न बेशकीमती धातुओं को पाने धरती का गर्भ खोदना पड़ता है, हां प्रयोग कर सकता हूं अपनी रचनाओं में क्लिष्ट शब्द, समझ न पाने पर मेरे कौम के लोग बेवजह हो सकते हैं स्तब्ध, तभी तो लिखता हूं आसान भाषा में, पढ़ कर कर सके सुधार इस अभिलाषा में, तो मित्रों लगा हुआ हूं अपने अभियान में, चमत्कार,पाखंड छोड़ सब विश्वास करने लगे वास्तविक विज्ञान में, बहकावे के जद में आकर क्यों सुनना पड़े दुष्प्रचार, वास्तविकता को सोचे समझे लेने खुद के हक़ अधिकार। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि स...
मरा हुआ आदमी
कविता

मरा हुआ आदमी

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मरा हुआ आदमी सबसे पहले मरने का इंतजार करता है, होते भी है या नहीं वो आत्मा भी मर जाती है, फिर मरा हुआ आदमी बोलना चाहता है, पता नहीं किस मंसूबे से मुंह खोलना चाहता है, पर मुंह खोल नहीं पता, कुछ भी बोल नहीं पाता, क्योंकि वो पहले से मरा हुआ जो है, वो चीखना चाहता है, चिल्लाना चाहता है, पर कुछ भी कर नहीं पाता, क्योंकि पहले कभी मुंह खोला जो नहीं था, समाज को कुछ बताना चाहता है, कुछ जताना चाहता है, पर कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि समाज के बीच कभी गया नहीं, मरी हुई जिंदगी में सिर्फ तृष्णा के पीछे भागा था, समाज खातिर चंद लम्हा भी नहीं जागा था, इस तरह फिर से मर जाता है वो मरा हुआ आदमी। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुर...
वो मजदूर
कविता

वो मजदूर

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** वो कभी भूखा नहीं रह सकता जो मेहनत कर सकते हैं, काम कर सकते हैं, उन्हें होता ही है फायदा, ये है प्राकृतिक कायदा, मगर जो आलसी होते हैं उनका भूखे रहना तय है, एक एक क्षण उनके लिए हो जाता कष्टकारी समय है, मजदूरों ने इस बात को पढ़ा है, दुनिया के हर कार्य को पसीने से गढ़ा है, वो नेता, अधिकारी या किसी ऑफिस में बैठा बाबू नहीं है, तभी तो उनकी जिंदगी मेहनतों से भरा जरूर रहता है पर बेकाबू नहीं है, चैन की नींद उसके हिस्से में होता है, पैसे वाला और ज्यादा के लिए रोता है, शोषण सहकर भी वो नहीं बनता शोषक, वो एकमात्र नव निर्माण का है द्योतक। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। ...
झूठI कौन
कविता

झूठI कौन

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** प्रकांड विद्वान ने अपनी वैज्ञानिक आविष्कार के लिए रात-दिन एक करते हुए एक प्रयोग आरंभ किया, इंसानी मनोभावों का किया निरंतर अध्ययन, कुछ खास भावों का किया चयन, आभासी दुनिया का निर्माण उनका मूल लक्ष्य था, शुरुआत किया जाये कैसे बहुत बड़ा प्रश्न यक्ष था, कपोल कल्पना, फ़रेब, झूठ, इन सबसे कैसे मचाया जाये लूट, लोग धीरे-धीरे होने लगे इकट्ठे, सीखने लगे मारना झपट्टे, कौन छोटा कौन बड़ा पढ़ाया जाने लगा, लोगों में ये सुरूर सर चढ़ छाने लगा, सब समान है ये भाव क्यों सहें, बिना विशेषाधिकार वो क्यों रहे, लक्ष्य के सामने जो आये उन्हें क्रूरता से रौंदना जरूरी था, वज्रपात कुछ सरफिरों के लिए कौंधना बहुत जरूरी था, नयी खोज के लिए पूरे देश से एक सोच वाले वैज्ञानिक बुलाये गए, क्या करना है बताये गये, सामाजिक ताने-...