Monday, November 25राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

Tag: मुकेश सिंघानिया

वही अनबुझे से सवाल हैं वो ही टीस वो ही मलाल है
ग़ज़ल

वही अनबुझे से सवाल हैं वो ही टीस वो ही मलाल है

मुकेश सिंघानिया चाम्पा (छत्तीसगढ़) ********************          ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२ वही अनबुझे से सवाल हैं वो ही टीस वो ही मलाल है नया कुछ कहाँ नये साल में वही सब पुराना सा हाल है लुटी सी थकी सी हैं ख्वाहिशें दबी हैं जरूरतों के तले सरेआम होती नीलाम रोज तमन्नाएं बेमिसाल है नही बदला ढंग कहीं कोई वही आदतें है पुरानी सब है अभी भी बेपरवाहियाँ नही समझा कोई कमाल है यूँ डरे डरे तो हैं सब मगर है दिलों में सबके ही खौफ़ सा तो भी जश्न कैसे छूटे कोई ये तो रूतबे का सवाल है न की खैर की कभी मिन्नतें किसी हाल चाहे ही हम रहे जो मैं पी गया हूँ उदासियाँ मेरे दर्द को भी मलाल है न ही दिन ही बदला न रात ही न नया कोई भी कमाल है कहो किस तरह से कहें इसे भला हम की ये नया साल है मत पूछ मुझसे तू रास्ता मैं भटक रहा हूँ यहाँ वहाँ मुझे खुद की कुछ भी खबर नही मेरा जीना जैसे बवाल है ...
अजब है जलसा ये मुल्क में
ग़ज़ल

अजब है जलसा ये मुल्क में

मुकेश सिंघानिया चाम्पा (छत्तीसगढ़) ********************                        १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ अजब है जलसा ये मुल्क में सब तरफ ही जगमग सा हो रहा है मगर वो माटी के घर में माटी का दीप हालत पे रो रहा है/१ नसीब इन बिजलियों की देखो लिबास है कांच के बदन पर उधार की जगमगाती रौनक में डूब कर मन भी खो रहा है/२ ये झिलमिलाती सी दीप माला में एक दीपक जला अकेला चुनौतियां दे रहा अंधेरों को अपनी धुन का ही वो रहा है/३ मगन है दुनिया तो मस्तियों में किसे है परवाह कहाँ हुआ क्या खबर पड़ोसी को भी हुई ना बगल वो भूखा क्यूँ सो रहा है/४ वो बेसहारा यतीम हसरत भरी निगाहों से है निहारे सजा है बाजार हसरतों का बेचारा सपने संजो रहा है/५ रवायतें है गरीब खातिर अमीर के मौज का है जरिया ये तीज त्योहार बन के आफत ही झुग्गियों को भिगो रहा है/६ जरूरतें कौन सी निभाए किसे वो छोड़े किसे भुलाए उधेड़बुन में यही वो कितनी ही ह...
तेरे दर्शन की ख्वाहिश है
ग़ज़ल

तेरे दर्शन की ख्वाहिश है

मुकेश सिंघानिया चाम्पा (छत्तीसगढ़) ******************** ग़ज़ल - १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ सुधारों अब दशा भगवन तेरे दर्शन की ख्वाहिश है पड़े हैं सुने सब मंदिर तेरे कीर्तन की ख्वाहिश है हुए बेचैन अब घर में ही रह हम बंदियों जैसे खुले वातावरण में अब जरा विचरण की ख्वाहिश है भरा है मन बहुत संवेदना हिन देख लोगों को व्यथित मन में बहुत अब शोर की क्रंदन की ख्वाहिश है हुई क्यूँ ऐसी ये दुनिया भला कारण है क्या इसका इसी पर अब मनन की और गहन चिंतन की ख्वाहिश है जगत जकड़ा हुआ अज्ञानता के घोर अंधेरों में उजालों की नयी किरणों के अब सृजन की ख्वाहिश है अजब सी इक हवा का डर है पसरा सबके हृदय में सभी खुशहाल और भयमुक्त हो ये मन की ख्वाहिश है तेरे चरणों में ही दिन रात मेरे जैसे हों गुजरे तेरे दर पर ही निकले दम मेरे जीवन की ख्वाहिश है मनाएँ फिर तेरा उत्सव बड़े हर्ष और उल्लासों से तू कर दे पहले सी दुनिया ये अब जन...