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Tag: माया मालवेन्द्र बदेका

देशदीपक
लघुकथा

देशदीपक

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** नवविवाहिता नवोढ़ा पत्नी के साथ मधुमास बहुत जल्दी व्यतीत हो गया। बहुत शीघ्र वापस आंऊगा बोल कर, मनोज जाने की तैयारियां करने लगा। दबी आवाज में बस इतना ही कह पाई थी अंजु जल्दी आइयेगा। अब आप आयेंगे तो आपको मेरी और से बहुत अनुपम भेंट मिलेगी। वह पत्नी को प्यार कर, माता-पिता का आशीर्वाद लेकर चल दिया। इकलौता बेटा था, माता पिता का मन भर आया। अभी तो ब्याह हुआ हैं, बहू के साथ और कुछ दिन रहता। सीमा पर शत्रु का आक्रमण हो जाये, पता नहीं। इसी वजह से मनोज को तुरंत बुलावा आया था। अनहोनी होनी थी हो गई। मनोज फिर नहीं आया। अंजु बेटे को जतन से बड़ा कर रही थी। अपने सास-ससुर के साथ रह वह बेटे को पढ़ा लिखा रही थी। बचपन से बेटे के मन में बैठा दिया की देश सेवा के लिए ही तुम्हें जाना है, और उसी की शिक्षा लेनी है। लोग कहते कि आजकल त...
साहित्य और समाज
संपादकीय

साहित्य और समाज

आज की अतिथि सम्पादक माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** साहित्य की समाज में कल और आज की भूमिका देखी जाये तो बहुत ज्यादा फर्क आया है। एक पंक्ति ऐसी होती थी की पूरे देश में राष्ट्र प्रेम की लहर दौड़ जाती थी और आज एक पंक्ति ऐसी स्थिति पैदा करती है कि शर्मिंदगी से नजरें झुक जाती है। ऐ मेरे वतन के लोगों। और मुन्नी बदनाम हुई। कहां से कहां आ गये हम। क्या यही सब युवाओं के बीच, बच्चों के बीच परोसा जाना चाहिए। साहित्य समाज को बहुत कुछ देता है! साहित्य अपने मनोभावो को व्यक्त करने का, मनुष्य के लिये सबसे अच्छा साधन है! कुछ संदेश कुछ शिक्षा - साहित्य से देश की सभ्यता देश की संस्कृति की पहचान होती है हमारा देश जग मे सभ्यता और संस्कृति के लिये विख्यात है ! विगत कुछ समय से बहुत ही निम्न स्तर के लेखन ने समाज को, देश को अलग ही जगह ला खड़ा किया है ! साहि...
संस्कार
लघुकथा

संस्कार

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** सम्पूर्ण समर्पण से अपने पति को प्यार करती थी दयावती। उसे तो उसके पति में ईश्वर नजर आता था। पति जब तक घर परिवार में रहा उसके साथ ठीक रहा, क्योंकि बड़े परिवार में अक्सर पति-पत्नी रात्रि विश्राम पर ही मिल सकते हैं।दो कमरे का घर और दस लोग। हर समय चहल-पहल शुरू रहती थी। एक बेटी हुई, वह भी सासू माँ के सपनों को तोड़कर, क्योंकि पोता होता फिर उसका पड़पोता होता वह सोने की निशनी चढ़ती। दयावती के पति की नौकरी बदली, बाहर नौकरी के लिए गया तब पत्नी को घर परिवार में रखा फिर ले गया फिर छोड़ गया। पारिवारिक कामकाज चलते रहते थे। बाहर रहते पड़ोसी की शादीशुदा लड़की से मन लगा बैठा। पड़ोसी की बेटी आगे की पढ़ाई के लिए मायके में रहती थी। वह साथ रहकर भी साथ नहीं थी, हर समय वह लड़की प्रताड़ना पर उतर आई थी। दयावती ने उस लड़की को समझाने की बहुत कोशिश की, पर...
भीष्म प्रतिज्ञा
लघुकथा

भीष्म प्रतिज्ञा

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** सुंदर सलोनी सरल सुशीला धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। बचपन से उसके मन में देशभक्ति, देशप्रेम कूट-कूट भरा था। उसने हमेशा अपने बुजुर्गो से वीरों और वीरांगनाओं की गाथाएं सुनी थी जो उसके मन में रच बस गई थी। उम्र के साथ उसने अपने सपने में जोड़ लिया था, विवाह तो देश के सैनिक के साथ ही करेगी और वह ऐसी संतान को जन्म देगी जिससे देश का मान बढ़े। माता-पिता अपनी इकलौती बेटी को ऐसे घर में ब्याहना चाहते थे जहां बस बिटिया को सुख ही सुख हो। सुशीला सुशील थी, जानती थी कि माता पिता नहीं चाहते हैं लेकिन हर माता-पिता और लड़की इस तरह सोच रखेंगे तो देश के सैनिक की उम्मीद और फिर देश रक्षा के लिए सैनिक कैसे। बहुत कोशिश के बाद सैनिक परिवार में ही सुशीला का विवाह हुआ। तीन महीने की छुट्टी के बाद पति पुनः सीमा पर प्रस्थान कर रहा था ....... मिलकर प्रतिज्ञा हुई ...
यायावर
कविता

यायावर

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** कुछ अपने कुछ अपनों के सपने पूरे करने थे, किये। उसकी सपनों की दुनिया में वह भी थी, आई यायावर भाई का था, भाई बेचारा था उसको किसी बाला ने आहत किया कुंवारा था। यायावर बहन का था, बहनोई आवारा था यायावर ने बहन को दुलारा था। यायावर माँ का प्यारा था नौ महिने का कर्ज संवारा था। यायावर मित्रो का था सखा संग बचपन गुजारा था। यायावर उन सभी गुणा भाग जोड़ घटाव के रिश्तों का प्यारा था। ऊंची चढ़ती सीढ़ी में वह सबके लिए न्यारा था। जिद, दम्भ, श्रम, धन, वैभव कीर्ति सब साथ हुए अछूता रह गया वह मन वह सपनों की दुनिया जो जीवन भर साथ चली छलता गया कर्त्तव्य, अधिकार फर्ज के नाम पर यायावर जीवन भर चलती साथ लाठी को अवमानित करता रहा उसके सपनों को अपनों को जोड़ने का जो सबसे बड़ सहारा था। मूक ह्रदय मौन समर्पण करती रही उसने अपना जीवन हारा था। परिचय :- नाम -...
किताब
कविता

किताब

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** दर्शन यह जीवन पूरा या किताब है पूरा जीवन। हर पल हर क्षण का हिसाब रखती। किताब है पूरा जीवन। बरसे जब जब नयनों से कातर आंसूओं ने भिगोया इसे। शब्द शब्द पगडंडी बनकर समाया इसमें। भावों के समंदर का वेग का किताब है पूरा जीवन। दर्द की चीखों ने दबा ली आवाज उतार लिया अपने पन्नो पर किताब है पूरा जीवन। खोजते सत्य को पथ चले पथिक दर्शन ज्ञान करा कर समाहित करती किताब है पूरा जीवन। विरहणी का विरह हो या रण में संग्राम मानक तय करती वृतांत लिखती किताब है पूरा जीवन। इतिहास रच लेती सीने पर शीलालेख सी अटल रहती किताब है पूरा जीवन। महकती कभी चहकती कभी भौरौं सी मंडराती। शब्दों के गुंजन का कितना है पूरा जीवन। झरौखा यादों का विस्मृत न होने देती भूल भूल्लैया पन्नों पर गलियारें किताब है पूरा जीवन। दूर सूदूर अखिल विश्व की सेतु बन भ्रमण कराती किताब है पूरा...
सुख
लघुकथा

सुख

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** भागमभाग की जिंदगी। कभी व्यापार के सिलसिले में दस दिन बाहर तो कभी-कभी शहर में रहकर भी रात, बारह बजे तक घर नहीं आना। जिंदगी बड़ी तेजी से भागी जा रही थी और मुकेश को पल भर भी फुरसत नही थी। मां कहती तो कह देते कि, यही समय है कमाने का। पत्नि कहती तो कभी-कभी गुस्से में पारा चढ़ जाता की,....कमाउंगा नहीं तो यह सब सुविधाएं कहां से मिलेगी। तुमको घर में बैठकर क्या पता चलता है। हर दिन व्यंग सुनकर वीणा ने बोलना ही बंद कर दिया। अचानक परिस्थितियों ने सबको घर में रहने को मजबूर कर दिया। मुकेश को इन दिनों में लगा की कितना भागा में। जरुरत तो परिवार के प्यार की थी, जरूरत तो स्नेह की थी। भौतिक सुखों में आज कुछ काम नहीं आ रहा था। बस एक साथ बैठकर बतियाता परिवार सब सुखों से उपर था। परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ. श्री लक्षमी...
अफवाह
लघुकथा

अफवाह

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** वह बदहवास सी दौड़ती आई थी। अम्माजी मुझे काम से न हटाइये, अम्माजी मुझ गरीब पर दया कीजिए। क्या हुआ कमली..... अचानक ऐसे क्यों दौड़ी चली आई है। कहा था ना तुझे अभी काम पर नहीं आना है। नहीं-नहीं अम्माजी मुझे कुछ नहीं हुआ है। कुछ लोग बोल रहे थे .... अब काम बंद तो पैसा बंद। महिने की पगार नहीं मिलेगी। अम्माजी बच्चों को क्या खिलाऊंगी। काम पर आती हूं तो सब घर से मुझे थोड़ा बहुत बचा हुआ खाने को मिल जाता है, मुझे भी चाय मिल जाती है। पगार भी नही और बचा-खुचा भोजन भी नहीं? बच्चें बीमारी से नहीं भूख से ...? नही-नही कमली तू इन फालतू की अफवाह पर ध्यान न दे और घर जा। रूलाई आ गई कमली को... बेबस कमली बस आंखों में बोल पड़ी... महामारी का नाश हो। परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ. श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय माता - श्रीमती चंद...
कोरोना
आलेख

कोरोना

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** कोरोना रो_कोना। आने दो स्वागत करो। जी भर भर स्वागत करो। जनता मेरे देश की जनता। स्वदेश का नारा लगा लगा कर स्वदेश को नहीं पहचान पा रही जनता। कितना अपने आप को धोखा देना है। क्या इस शिक्षित युग में अब भी हमारी जनता को अंगुली पकड़कर चलना सिखाना होगा। आजादी के बाद इतने वर्षो में कम से कम हर नागरिक इतना तो शिक्षित हो ही गया होगा की उसे स्वयं के भले बुरे का ज्ञान होने लगा होगा। घर परिवार की परिस्थितियों से निपटने की क्षमता यदि है तो कुछ देश के लिए योगदान भी समझ में आता होगा। हम हर पहलू से सोचे तो सोच यहीं निकल रही है कि हम सब ठीकरे दूसरे के माथे ही फोड़ेंगे। किसी भी दल की सरकार हो। उसमें कितने भी कपट छल वाले लोग भरे हो, हमारी समझ कहां जाती है। यदि हम प्रधानमंत्री के पद तक के दावेदार चुन सकते हैं तो हम इतनी बुद्धि तो रखते ही है कि हम...
बसंत पंचमी
आलेख

बसंत पंचमी

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** बसंत पंचमी, माघी पंचमी, श्री पंचमी..... मां वागेश्वरी, सरस्वती अवतरण दिवस। बसंत पंचमी का पर्व अपने आप में एक सुखद अनुभूति है। बसंत पंचमी के दिन माता सरस्वती अवतरित हुई, इसलिए यह बहुत पावन दिन माना जाता है, क्योकि ज्ञान की देवी शारदे को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन पर प्रसन्न होकर वरदान दिया था की, बसंती पंचमी के दिन तुम्हारी पूजा की जायेगी। श्रीहरि की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने जीव-जंतु, मनुष्य योनि की रचना की पर उन्हें पूर्णतः संतुष्टि नहीं थी। फिर से श्रीहरि की अनुमति से ब्रम्हा जी ने अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का। जल की बूंद धरती में समाहित होते ही कम्पन हुआ और वृक्षो के बीच से एक स्त्री शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। यह मां वीणा पाणी थी और दिन माघ शुक्ल पंचमी थी, जो हम बसंत पंचमी के रुप में मनाते है। भारत वर्ष के अलावा नेपाल औ...
सीख
लघुकथा

सीख

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** हर समय उलाहनों की बारिश करती रहती थी सासू मां। 'हमारे समय में बहुत सख्ती थी, अब देखो निर्लज्लता से घूमती है बहुएं'! हर समय अपनी बराबरी बहुओं से करते रहना। रामलाल जी परेशान थे, अपनी पत्नी की आदतों को। कभी स्वयं ससुराल में नहीं रही वह। रामलाल जी के बचपन में ही उनकी माता का देहांत हो गया था। बड़ी बहन और ननिहाल वालों ने शिक्षा दी, बड़ा किया। शादी के बाद पिता गांव में ही रहे और अपनी नवोढ़ा को लेकर रामलाल जी दूसरे शहर चले गये। बच्चों की पढ़ाई नौकरी मे तबादला इसके कारण कभी कभी पिता के पास बच्चों को ले जाते फिर अकेले रह जाते पिता। गांव में अकेले रहते थे। लोग कहते चले जाओ बहू के पास लेकिन अनुभवी आंख एक बार में ही अपनी बहू को जान गई थी। वह अपने बेटे को दुखी नहीं देख सकते थे। रामलाल जी की किस्मत अच्छी थी। चार बहूएं गुणी पढ़ी लिखी। सम्म...
रणबांकुरे
कविता

रणबांकुरे

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** जंजीरों में बंधकर भी वह, जी भर कर मुस्काये थे। देश पर बलिदान होकर, मन में बहुत हरषाये थे। मां,बहन, बेटी उनसे, बिछुड़ने की नही पीर थी। वह भी रांझा किसी के, उनकी भी कोई हीर थी। पर देशप्रेम की बंधी, उनके मन में कड़ी जंजीर थी। ऐसे वीर सपूत मीटे देश पर, वीरांगना के जाये थे। जंजीरों में बंधकर भी वह, जी भर कर मुस्काये थे। देश पर बलिदान होकर, मन में बहुत हरषाये थे। दीपावली के दीप जले, होली की कहीं अबीर थी। वीर बांकुरे मिले देश को, भारत की तकदीर थी। आजाद देश की शान बने वह, ऐसी तस्वीर थी। हमारे लिए बदन पर उनने, अनगिनत कोड़े खाये थे। जंजीरों में बंधकर भी वह, जी भर कर मुस्काये थे। देश पर बलिदान होकर, मन में बहुत हरषाये थे। लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय माता - श्रीमती चंद्रावल...
संस्कार
लघुकथा

संस्कार

माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) ******************** दीदी आप भजन गाइये ना, कितना अच्छा गाती है'। सरला जी उसे देख मुस्कुराई कुछ बोली नहीं। वह अभी इस शहर में नई नई आई थी। धीरे धीरे पास पड़ोस से परिचित हो रही थी। सामूहिक मायका और सामूहिक ससुराल परिवार की आदी, वह सभी को अपने घर जैसा मानती थी। कभी भजन कभी कथा कभी कुछ और कार्यक्रम में आपस में मिलने लगे। उसको सभी के साथ मिलकर अच्छा लगा और सभी ने प्यार से उसे अपनाया। उसकी उम्र से बड़ी कई महिलाएं थी, वह उनका सम्मान करती थी। ऐसे ही स्वभानुसार उसने आज भी कह दिया चलिए दीदी आप सब आज हमारे यहां चाय बनाती हूं। आप सभी का आना नहीं हुआ अब तक। एक दो छोटी थी वह कुछ नहीं बोली, लेकिन जिन्हें दीदी कहकर सम्बोधित किया, वह एकदम तमतमा गई और बोली__ 'यहां दीदी कोई नहीं सबका नाम लेकर बुलाया कीजिए'। हम बुढ़ा नहीं गये है। वह हतप्रभ थी की बड़े लोग प्यार और सम...
जिंदगी बख्शी जिसने
कविता

जिंदगी बख्शी जिसने

********** माया मालवेन्द्र बदेका उज्जैन (म.प्र.) जिंदगी बख्शी जिसने, उसका एहसान अता कर। रब देता है छप्पर फाड़, करता नहीं वो जता कर। नसीब तो जो लिखे उसने सबके कर्मो की मानिंद। सजा दे या रिहाई उसका फैसला, तू बात पता कर । मयस्सर न होती किसी को कभी आसमां सी बुलंदी। गम दिये होंगे किसी को तूने, अब न ऐसी खता कर। जन्नत से जहन्नुम तक का सफर बड़ा ही पेचिदा है। दिलजमई की गुंजाइश ही नहीं किसी को सता कर। बड़ी बेरूखी बे-अदबी से रुसवा कर देते हैं दर से। बेहिसाब बनाये है इंसान, रब ने अलग सी कता कर। पाने के लिये सितारों से आगे और भी बहुत है माया। छोड़ दे सारे गुमान लालच, बस साथ अपनी मता कर। लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय माता - श्रीमती चंद्रावली पान्डेय पति - मालवेन्द्र बदेका जन्म - ५ सितम्बर १९५८ (जन्माष्टमी) इंदौर मध्यप्रदेश शिक्षा - एम•...
कैनवास
कविता

कैनवास

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका दाता ने दिया था बहुत मजबूत,साफ सुथरा बुना था उसने एक मुलायम ताना बाना तांत से तांत जोड़े हंसते ओंठ मुस्कुराते नैन किलकारी ऐसी की देव भी झूमें मां की कोख में सहेजा नाजुक ह्रदय,वात्सलय भेजा था परमेश्वर ने इंद्रधनुषी रंगों के साथ भरोसा किया अपने कैनवास पर यह क्या किया ? दाता के साथ छलावा रंग भरे भी तो, कैसे कैसे छल,कपट ,लोभ,लालच मजबूत कैनवास पर कच्चे ,फरेबी रिश्ते लिख लिये उसका कैनवास और उसी के साथ छल रंग भर लेते कोई वासंती प्रीत का या हरितिमा आंनद की भरते। गुलगुले से मीठे चाशनी पगे, मौन भाव भरते। स्वार्थ मत भरते, कुछ खाली कोने में ही परमार्थ रखते। सफेद झक्क न रख पाये,काश इतना बदरंग न करते। सम्मान किया होता दाता के  कैनवास का। लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय माता...
शरारत
कविता

शरारत

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका शरारत अंबर ने कर दी,झुक गया धरा पर ऐसे। घनी जुल्फों के साये हो,धरा गौरी बनी जैसे। नभ खिलखिला रहा,दौडता उड़ता रहता है। कभी नीचे को आता है,कभी उपर ही रहता है। करता है अठखेलियां, शरारत वो करता है। न जाने किस मौज में फिर, धरा पर बरसता है। वसुधा तृप्त होती है,बरसो की प्यासी हो जैसे। शरारत अंबर ने कर दी,झुक गया धरा पर ऐसे। घनी जुल्फों के साये हो,धरा गौरी बनी जैसे। झीलमिल सितारे जब, गगन में,चमकते हैं। धरा की ओट में फिर, जुगनू से दमकते है। इठलाती है धरणी, रिमझिम सुर सजते हैं। टपटप बूंदो की बारिश ,सरगम बजते हैं। भीनी खुशबू माटी की ,गगन को चूमती जैसे। शरारत अंबर ने कर दी,झुक गया धरा पर ऐसे। घनी जुल्फों के साये हो,धरा गौरी बनी जैसे। लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय मा...
बिलखे धरा
कविता

बिलखे धरा

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका मत रो धरा मत रो धरा, निर्मोही बादल नहीं झरे। निर्मोही बादल नही झरे, बेदर्दी बादल नहीं झरे। मत रो धरा मत रो धरा_____ हरियाला आंचल तेरा तरस रहा। आंचल का फूल, देखो तरस रहा। वसुंधरा का कैसे हो श्रृंगार । कैसे उपवन में आये बहार। कब तक अवनी बाट जोहे, कब तक प्रतिक्षा करे। मत रो धरा मत रो धरा_____ वन उपवन, बाग सूखे हो जाये। कलियां और फूल न मुसकाये। एक एक बूंद बूंद की प्यास रहे। बादल से मिलने की आस रहे। धरती घट हुआ रीता,बिन बादल इसे कौन भरे। मत रो धरा मत रो धरा_____ मां अचला बड़ी दयालू है तू। अन्नदात्री धरा, अन्नपूर्णा है तू। धरणी तेरे बिन मानव भूखा। कभी  न अकाल न पड़े सूखा। बिन तेरे माता, जीवनयापन कौन करे। मत रो धरा मत रो धरा____ लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीन...
लावा
कविता

लावा

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका जब जब लिपटती है कसकर मुझसे वह जी करता है लावा बन जाऊं बहा ले जाऊं उन दहेज के लोभियों को। पाषाण बन जाती हूं,जब उसके नैन बरसते हैं। समझाती हूं उन सारे तानों का मतलब। जो उस निर्दोष को दिये गये। ताने के अर्थ, हजार बिच्छुओं के डंक मुझे देते हैं। ना समझ, नहीं समझ पाई । पूछती रही मतलब। पहली बार पूछने पर बता देती काश तो उससे ज्यादा, अर्थ समझती में। उस पीड़ा से निकाल देती जो मेरी समझी हुई, नासमझी से भोगी उसने। दहेज के मीठे लोभियों कटाक्षों के कुबेर। घर से बाहर निकलना और दुनियां देखना। धरती कूड़े करकट का ढेर नहीं तुम्हारी गंदी मानसिकता से बोझिल हुई है। बोझिल है उन बेटियों की भस्म से। जो तुम्हारे मन के दानव ने जला दी। चंद सिक्कों के भिखारी। ईश्वर के पास कटोरा लेकर मत जाना। वो बेटियों को बहुत प्यार करता है। ...
ओ पिता
कविता

ओ पिता

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका पिता जनक लौट आओ दो शुभाषिश शीश धरो हाथ ह्रदय अकुलाता पुकारता निशदिन थामे रखना बचपन खिलौनों सपने खेल झूठे राते सूनी हुई दिन है रिते धड़कन अंश वंश जुड़े नाम अस्तित्व नहीं तुम बिन ठौर ठाम दौलत मेरी तुम जागिर मान संग चले पिता पकड़ हाथ सुख आंनद रहते साथ अबोध के बोध निर्मल तात विस्तृत आकाश जनक देव रुप मुक्तक  स्वरुप चंद्र किरण बांहे खुली जनक पिता ओ लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय माता - श्रीमती चंद्रावली पान्डेय पति - मालवेन्द्र बधेका जन्म - ५ सितम्बर १९५८ (जन्माष्टमी) इंदौर मध्यप्रदेश शिक्षा - एम• ए• अर्थशास्त्र शौक - संस्कृति, संगीत, लेखन, पठन, लोक संस्कृति लेखन - चौथी कक्षा मे शुरुवात हिंदी, माळवी,गुजराती लेखन प्रकाशन - पत्र पत्रिका...
सुरभि
लघुकथा

सुरभि

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका बहुत भीनी खुशबू आ रही है, मां आपने फिर क्यारी में कोई महकने वाले फूलों की कलम लगाई है। घर की दहलीज पर कदम रखते ही बिटिया सुरभि ने अपनी मां की क्यारी में लगे पुष्पों को निहारा। सुरभी आते ही बस दौड़ पड़ी तुम बगीचे में। चलो आओ घर के अंदर। मां बेटी बहुत दिनों के बाद मिली थी। पहले बेटे पढ़ने जाते थे,अब बेटियां भी पढ़ने के लिए की साल बाहर रहती है तो घर आना जाना कम होता है। सुरभी अपनी पढ़ाई के दौरान छुट्टियों में आई थी। कुछ दिन रहकर सुरभि अपनी महक बिखकाकर फिर लौट गई। मां हर पौधे को जतन से रखती, उसे हर पौधा अपने बच्चों सा लगता और पौधै भी जैसे मां को देख झूमते। पढ़ाई पूरी हुई, सुरभि के लिए लड़का पसंद किया गया। आपसी रजामंदी पर शादी हो गई। लेकिन सास, ससुर जेठानी, पति सभी का व्यवहार सुरभि के नाजुक मन सा कहां था, वह तो सब जैसे...
संगीत
कविता

संगीत

==================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका जीवन एक मीठी धुन, मधुर संगीत है। प्यार का निर्झर झरना, अनुपम गीत हैं। आओं संवारे प्रेम से यह, फूलों की डलियां। चुन चुन कर इसमें लगाये, प्रेम की कलियां। मनुज जन्म उपहार ईश्वर का, यूं मिलता नहीं। नफरत,धोखे छल, कपट पर नेह की जीत है। जीवन एक मीठी धुन, मधुर संगीत है। प्यार का निर्झर झरना, अनुपम गीत हैं। बजने दो जीवन में, शहनाईयों का गान। भर दो झनकती, मीठी बांसुरी की तान। झूमे गगन, धरा झूमती फूलों की डालियां। अंबर से धरा तक पसरी, प्यार की रीत है। जीवन एक मीठी धुन, मधुर संगीत है। प्यार का निर्झर झरना, अनुपम गीत हैं। लेखिका परिचय :- नाम - माया मालवेन्द्र बदेका पिता - डाॅ श्री लक्षमीनारायण जी पान्डेय माता - श्रीमती चंद्रावली पान्डेय पति - मालवेन्द्र बधेका जन्म - ५ सितम्बर १९५८ (जन्माष्टमी)...
भाग्य की गति
लघुकथा

भाग्य की गति

भाग्य की गति =========================================== रचयिता :  माया मालवेन्द्र बदेका बहुत मिन्नते की थी उसने --- कोई अपना बच्चा मुझे गोद दे दो ---- बाहर से बच्चा लाने के लिए सासू मां तैयार नही थी! घर का बच्चा गोद रखने से घर के संस्कार  आयेंगे ! घर का खून, गोत्र, रिश्ता सब रहेंगे! सासू मां का कहना था! वह सबको मनाती रही! जेठ, देवर, भाई बहन, ननंद कोई भी न माने! जेठ को पांच बच्चे थे, उसमे एक शरीर से अशक्त! न बोल सकता न चल सकता! जेठ  उसे देने को तैयार हुए! उसमे भी उसने हामी भर दी पर बच्चे की स्थिति नही थी की बदली वाली नौकरी मे उसे हर बार परिवर्तन कराया जाये! बात जमी नही! समय  आगे बढता गया! अचानक  उसके पति को दिल का दौरा पड़ा और वह दफ्तर मे ही चल बसे! घर की दूरी ,पास मे कोई नही! एक भोजन बनाने वाला और  उसका तीन साल का बेटा! बस तभी से महीने भर मे वह  उसका बेटा हो गया और  उसे नाम, संस्कार...