स्वामी विवेकानंद
प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला, (मध्य प्रदेश)
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प्रखर रूप मन भा रहा, दिव्य और अभिराम।
स्वामी जी तुम थे सदा, लिए विविध आयाम।।
स्वामी जी तुम चेतना, थे विवेक-अवतार।
अंधकार का तुम सदा, करते थे संहार।।
जीवन का तुम सार थे, दिनकर का थे रूप।
बिखराई नव रोशनी, दी मानव को धूप।।
सत्य, न्याय, सद्कर्म थे, गुरुवर थे तुम ताप।
काम, क्रोध, मद, लोभ हर, धोया सब संताप।।
गुरुवर तुमने विश्व को, दिया ज्ञान का नूर।
तेज अपरिमित संग था, शील भरा भरपूर।।
त्याग, प्रेम, अनुराग था, धैर्य, सरलता संग।
खिले संत तुमसे सदा, जीवन के नव रंग।।
था सामाजिक जागरण, सरोकार, अनुबंध।
कभी न टूटे आपसे, कर्मठता के बंध।।
सुर, लय थे, तुम ताल थे, बने धर्म की तान।
गुरुवर तुम तो शिष्य का, थे नित ही यशगान।।
मधुर नेह थे, प्रीति थे, अंतर के थे भाव।
गुरुवर तुमने धर्म को, सौंपा पावन ताव।।
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