माँग का सिंदूर
प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला, (मध्य प्रदेश)
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नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।
जिसमें रौनक बसी हुई है, जीवन का है नूर।।
जोड़ा लाल सुहाता कितना, बेंदी, टिकुली ख़ूब
शोभा बढ़ जाती नारी की, हर इक कहता ख़ूब
गौरव-गरिमा है माथेकी, आकर्षण भरपूर।
नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।
अभिसारों का जो है सूचक, तन-मन का है अर्पण
लाल रंग माथे का लगता, अंतर्मन का दर्पण
सात जन्म का बंधन जिसमें, लगे सुहागन हूर।
नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।
दो देहें जब एक रंग हों, मुस्काता है संगम
मिलन आत्मा का होने से, बनती जीवन-सरगम
जज़्बातों की बगिया महके, कर देहर ग़म दूर।
नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।
चुटकी भर वह मात्र नहीं है, प्रबल बंध का वाहक
अनुबंधों में दृढ़ता बसती, युग-युग को फलदायक
निकट रहें हरदम ही प्रियवर, जायें भले सुदूर।।
नग़मे ...