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Tag: दीपक कानोड़िया

दो जून की रोटी
कविता

दो जून की रोटी

दीपक कानोड़िया इंदौर मध्य प्रदेश ******************** दो जून की रोटी खाने को बेबस बैठी है मानवता भांति-भांति के लोग यहां जाने कब आएगी समता कुछ लोलुप सत्ता के लोभी कुछ राजनीति रचते धोबी कुछ है विद्वान प्रकांड यहां कुछ निर्धन से धनवान यहां कितना भी धैर्य रखें जनता जाने कब आएगी समता कुछ को चाहिए आज़ादी रुकती नहीं अब आबादी दर दर पे घूमते हैं गांधी फिर भी नहीं थमती आंधी कर्तव्य निभाने से पहले हक मांगने निकली जनता जाने कब आएगी समता जिस तरह कीट पतंगे भी वृक्षों को काट के खा जाते दीमक बनकर दीवारों पर कण-कण को चाट के खा जाते बस वैसे ही अब मानव है या कह दो सच्चे दानव है ख़ुद को ही काट रही जनता जाने कब आएगी समता दो जून की रोटी खाने को बेबस बैठी है मानवता भांति भांति के लोग यहां जाने कब आएगी समता परिचय :- दीपक कानोड़िया निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी...
मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं
कविता

मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं

दीपक कानोड़िया इंदौर मध्य प्रदेश ******************** मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे, तुम भय खाते हो ? तुम हो मानव बलशाली क्यों मुझको पीठ दिखाते हो ? जिस आरी से छलनी करते हो वृक्षों को, नदियों को | भवन बनाते हो वन में, अब लाज कॅंहा आती तुमको ? गज का वध करके भी अब तुम, हाथी दांत दिखाते हो। मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे, तुम भय खाते हो ? छोड़ कहां रक्खा है तुमने धरती का बस एक कोना ? बीज ज़हर का बोकर कैसे धरती उगलेगी सोना ? ख़ुद का कचरा मुझको देकर नज़रें क्यों चुराते हो ? मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे, तुम भय खाते हो ? जो सुनामी के जाने पर फिर से नगर बसाओगे क्या फिर तुम कुछ पेड़ों को, कुछ नदियों को बचाओगे ? दलदल जंगल वापस करके मुझ पर जो दया बरसाते हो मैं निसर्ग नैसर्गिक हूॅं क्यों मुझसे तुम भय खाते हो ? तुम हो मानव बलशाली क्यों मुझको पीठ दिखाते हो ? मैं निसर्ग नैस...
नई पारी
कविता

नई पारी

खुल जाएंगे आज शहर खुल जाएंगी गलियां सारी खुल जाएगा उजियारा छंट जाएगी अंधियारी क्या खुल जाएगी सोच वही जो लेकर हम सब बंद हुए थे ? क्या खुल जाएगी सोच वही जो जिससे चेहरे मंद हुए थे ? खुल जाएगी किस्मत क्या उस बुढ़िया चेहरे की लाठी ? खुल जाएगी बचपन की वो खेल खिलौनों की काठी ? या फिर से बंद हो जाएगा अंधियारा इस तूफान का क्या जुड़ पाएगा दूरियों में नाता फिर इंसान का ? क्या खुशियां फिर से खेलेंगी या ग़म के बादल छाएंगे ? जो बिछड़ गए हैं अपनों से क्या फिर से वो मिल पाएंगे ? अब समय नहीं है बंद सोच का, बस वही बदलने की बारी। लेकर आशाओं के दीप शुभम, हम खेलेंगे अब नई पारी। हम खेलेंगे अब नई पारी।   परिचय :- दीपक कानोड़िया निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानिया...