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Tag: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी का नाम वर्ल्डस ग्रेटेस्ट रिकार्ड्स में दर्ज
साहित्यिक

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी का नाम वर्ल्डस ग्रेटेस्ट रिकार्ड्स में दर्ज

उदयपुर के डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी ने सबसे अधिक अकादमिक प्रमाणपत्र अर्जित कर वर्ल्डस ग्रेटेस्ट रिकार्ड्स में अपना नाम दर्ज कराया डॉ. छतलानी ने विद्यापीठ को गर्वित किया: प्रो. सारंगदेवोत उदयपुर २६ जनवरी। किसी बेहतरीन कार्य को करने के लिए यदि ठान लिया जाए तो हर समय व परिस्थिति अनुकूल हो जाती हैं। यह संभव कर दिखाया है उदयपुर, राजस्थान के डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी ने, जिन्होंने लॉकडाउन के समय का सदुपयोग करते हुए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तरीय संगठनों यथा माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, सिस्को, विश्व स्वास्थ्य संगठन आदि द्वारा विविध अकादमिक विषयों व कार्यकर्मों के ऑनलाइन माध्यम से एक हज़ार से अधिक प्रमाणपत्र अर्जित किए। अंतरराष्ट्रीय संगठन वर्ल्डस ग्रेटेस्ट रिकॉर्ड्स, जो प्रमाणीकरण के साथ दुनिया भर के असाधारण रिकॉर्ड्स को सूचीबद्ध और सत्यापित करता है, द्वारा छतलानी को शैक्षणिक प्रमाणपत्रों की उच्च...
मेरे ज़रूरी काम
कविता

मेरे ज़रूरी काम

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) ****************** जिस रास्ते जाना नहीं हर राही से उस रास्ते के बारे में पूछता जाता हूँ। मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ। जिस घर का स्थापत्य पसंद नहीं उस घर के दरवाज़े की घंटी बजाता हूँ। मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ। कभी जो मैं करता हूं वह बेहतरीन है वही कोई और करे-मूर्ख है-कह देता हूँ। मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ। मुझे गर्व है अपने पर और अपने ही साथियों पर कोई और हो उसे तो नीचा ही दिखाता हूँ। मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ। मेरे कदमों के निशां पे है जो चलता उसे अपने हाथ पकड कर चलाता हूँ। मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ। और मेरे कदमों के निशां पे जो ना चलता उसकी मंज़िलों कभी खामोश, कभी चिल्लाता हूँ। मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ। मैं कौन हूँ? मैं मैं ही हूँ। लेकिन मैं-मैं न करो ऐसा दुनिया को बताता हूँ। मैं अपनी अहमियत ...
ना जाने क्यों ?
कविता

ना जाने क्यों ?

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) ****************** ना जाने क्यों? धरती का अक्ष मेरे घर को कुछ डिग्री झुका देता है। ना जाने क्यों? मेरे हिस्से का चाँद किसी और की छत से दिखाई देता है। ना जाने क्यों? सातों घोड़े सूरज के मेरे निवास की खिड़की में हिनहिनाते नहीं। ना जाने क्यों? ब्रह्मांड के चेहरे की झुर्रियां मेरे मकां की नींव को कंपकंपाने लगती हैं। ना जाने क्यों? अनगिनत सितारों की अपरिमित ऊर्जा मेरे छप्पर पर बिजली बन कर गिरती है। ना जाने क्यों? अनन्तता में स्थित तिमिर मेरे गृह-प्रकाश को लील लेता है। ना जाने क्यों फिर भी! मानस में जलता उम्मीद का दीपक मेरे घरौंदे में इक लौ पैदा कर देता है। ना जाने क्यों... सब-कुछ मिलकर भी यह दीपक बुझा नहीं पाए..... . परिचय :-  नाम : डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी शिक्षा : पीएच.डी. (कंप्यूटर विज्ञान) सम्प्रति : सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान) साहीत्...
सब्ज़ी मेकर
लघुकथा

सब्ज़ी मेकर

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) ****************** इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!” सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…” उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।” लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराह...
आइए जलते हैं
कविता

आइए जलते हैं

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) ****************** आइए जलते हैं दीपक की तरह। आइए जलते हैं अगरबत्ती-धूप की तरह। आइए जलते हैं धूप में तपती धरती की तरह। आइए जलते हैं सूरज सरीखे तारों की तरह। आइए जलते हैं अपने ही अग्नाशय की तरह। आइए जलते हैं रोटियों की तरह और चूल्हे की तरह। आइए जलते हैं पक रहे धान की तरह। आइए जलते हैं ठंडी रातों की लकड़ियों की तरह। आइए जलते हैं माचिस की तीली की तरह। आइए जलते हैं ईंधन की तरह। आइए जलते हैं प्रयोगशाला के बर्नर की तरह। क्यों जलें जंगल की आग की तरह। जलें ना कभी खेत लहलहाते बन के। ना जले किसी के आशियाने बन के। नहीं जलना है ज्यों जलें अरमान किसी के। ना ही सुलगे दिल… अगर ज़िंदा है। छोडो भी भई सिगरेट की तरह जलना! नहीं जलना है ज्यों जलते टायर-प्लास्टिक। क्यों बनें जलता कूड़ा? आइए जल के कोयले सा हो जाते हैं किसी बाती की तरह। . लेखक परि...
मानव-मूल्य
लघुकथा

मानव-मूल्य

********* डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर (राजस्थान) वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था। उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?" चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?" आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी। "ओह! ...